लेख़क : नायाब हसन क़ासमी
अनुवादक : महताब आलम क़ुद्दूसी
जानिए ब्रांड मोदी के निर्माण के पीछे की रणनीति
राणा अयूब (Rana Ayyub) ने अपनी पुस्तक “गुजरात फाइल्स” (Gujarat Files) में लिखा है कि जब वह अपनी असली पहचान छुपाकर गुजरात दंगों के मुख्य पात्रों की जांच के सिलसिले में गुजरात में थीं और उस दौरान अन्य महत्वपूर्ण लोगों के साथ मोदी से भी उनकी मुलाकात हुई थी।
उस मुलाकात में, जब राणा अयूब ने मोदी से गुजरात दंगों के बारे में पूछा, तो मोदी ने दंगे मे मारे गए हजारों लोगों पर खेद व्यक्त करने के बजाय स्पष्ट रूप से मीडिया को ही दोषी ठहरा दिया कि मीडिया ने गुजरात दंगों की खबर बड़ा चड़ा कर फैलाई है, जिससे उनकी छवि खराब हुई। मोदी ने कहा कि वह मीडिया का ठीक से प्रबंधन नहीं कर सके।
और तब से उन्होंने राजनीतिक स्तर पर अपनी विश्वसनीयता मजबूत करने के साथ साथ मीडिया पर भी विशेष ध्यान देना शुरू कर दिया।
यहां तक कि जब भारत में सोशल मीडिया का उदय हुआ, तब भी अपने राजनीतिक विज्ञापन के लिए सोशल मीडिया का उपयोग करने वाली पहली पार्टी भाजपा थी और इसमें निश्चित रूप से मोदी की ही राजनीतिक रणनीति थी।
नरेंद्र मोदी 2009 से ही ट्विटर पर सक्रिय हैं, जबकि राहुल गांधी को 2015 में उसकी उपयोगिता का एहसास हुआ, इसी तरह अन्य राजनीतिक नेता भी बहुत बाद में ट्विटर और अन्य सोशल साइट्स पर सक्रिय हुए हैं।
भाजपा (BJP) का आधिकारिक ट्विटर अकाउंट 2010 से ही सक्रिय है, इसके साथ साथ भाजपा के सभी राज्य इकाइयों के अलग-अलग ट्विटर अकाउंट हैं और ये सभी सक्रिय हैं, जबकि कांग्रेस 2013 में ट्विटर पर आई और इसकी राज्य इकाइयां अभी भी सोशल मीडिया पर इतनी सक्रिय नहीं हैं।
भाजपा और कांग्रेस की वेबसाइटों में भी, गतिकी और गतिविधि के संदर्भ में जमीन आसमान का अंतर है।
2014 के आम चुनाव से दो तीन वर्ष पहले, जबकि यूपीए सरकार के खिलाफ पूरे देश में व्यापक अशांति पाई जा रही थी, मीडिया में खुल कर सरकारी उपाधियों की आलोचना हो रही थी और अन्ना हजारे ने अपने साथियों के साथ मिलकर लोकपाल के नाम पर सरकार के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन छेड़ रखा था।
इसी बीच, मोदी को पूरा अवसर मिला कि वह सरकार विरोधी मीडिया को अपना समर्थक बनालें और वह इस उद्देश्य में सफल भी रहे।
आम चुनाव से पहले चुनाव प्रचार के दौरान, मुख्यधारा के अधिकांश मीडिया चैनल मोदी के गुण गाने में लगे हुए थे।
उस समय देश का मीडिया कांग्रेस के भ्रष्टाचार के खिलाफ तीखी तलवार बना हुआ था, उसी भ्रष्टाचार पर प्रधान मंत्री के लिए मोदी की उम्मीदवारी की नींव रखी गई और मोदी ने “Sabka Sath Sabka Vikas” (सबका साथ सबका विकास) के मुखौटे के साथ चुनावी अभियान की शुरुआत की। जिसमें उन्हें मीडिया का भरपूर सहयोग मिला।
2014 के आम चुनाव में, मोदी को जबरदस्त सफलता मिली और इसके परिणामस्वरूप, 2002 के नरसंहार पर खेद और माफी का एक शब्द न बोलने वाला व्यक्ति पूरे देश का प्रधानमंत्री बन गया।
फिर अचानक मुख्यधारा की मीडिया की भाषा ही बदल गई, अब उसने सरकार की आलोचना करने के बजाय प्रशंसा करने की नीति अपना ली।
क्योंकि मोदी सरकार ने जहां इंटरनेट की दुनिया को नियंत्रित करने के लिए आईटी सेल को सक्रिय किया, वहीं टीवी चैनलों को एक एक करके राम किया गया, जो भिक्षा, परोपकार और विशेष मेहरबानी के कारण पत्रकारिता के रुतबे से नीचो उतर कर मोदी के सहयोगी बन गए, उन्हें पुरस्कार देने की प्रक्रिया शुरू हुई। ज्यादातर न्यूज़ चैनल और मुख्यधारा के पत्रकार ऐसे ही (दत्तक) निकले।
जबकि कुछ गिने चुने चैनलों या पत्रकारों ने सरकार की हां में हां मिलाने से मना किया, या सरकार से सवाल पूछने की हिम्मत की तो मोदी सरकार ने पहले उन्हें प्यार से मनाने की कोशिश की, वे नहीं माने, फिेर सरकार ने उनहें आंखें दिखाई, फिर भी न माने तो उनके पीछे सीबीआई और आईटी सेल के योद्धाओं को छोड़ दिया।
एक तरफ उन्हें कानूनी दाव पेच के माध्यम से फांसने की कोशिश की गई, तो
दूसरी ओर, सोशल मीडिया पर, उनके आईटी सेल के लोगों द्वारा सवाल पूछने वाले चैनलों या पत्रकारों की नाक में दम करने के लिए साजिशें रची गईं, जिसके परिणामस्वरूप सरकार के पांच साल पूरे होते होते, नब्बे फीसदी भारतीय मीडिया ने खुद को मोदी एंड कंपनी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया, और जो सर फिरे नहीं माने, उन्हें उनके चैनलों से हटा दिया गया या भाजपा ने व्यावहारिक तौर पर उनका बहिष्कार कर दिया।
शुक्र है कि ऐसे कुछ पत्रकार जीवित हैं और YouTube या अन्य निजी मीडिया वेबसाइटों पर लिख बोल रहे हैं।
यह कितना अजीब बलकि भारतीय लोकतंत्र का शर्मनाक तथ्य यह है कि चार सौ से अधिक चैनलों के बीच अगर किसी समाचार चैनल को वास्तव में पत्रकारिता की जिम्मेदारियों को निभाने वाला कहा जा सकता है, तो वह एक एकल चैनल “एनडीटीवी” है, जिसे भाजपा ने सदाचारी करार दिया है और मोदी सरकार इसे नियंत्रित और पसपा करने के लिए हर तरह की रणनीति अपनाती रही है।
2002 के गुजरात दंगों और 2020 के दिल्ली दंगों के बीच का अंतर सिर्फ इतना ही नहीं है कि अंकों का उलट फेर हुआ है (0 और 2 का स्थानांतरण हुआ है), खूनी नाटक का मंचन करने वाले जो लोग उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री और गृह मंत्री थे, अब वे पूरे देश के प्रधानमंत्री और गृह मंत्री हैं; वास्तव में, दोनों के बीच एक बड़ा अंतर यह है कि उस समय के भारतीय मीडिया ने गुजरात नरसंहार पर मोदी सरकार के खिलाफ खड़े होकर तथ्यों को उजागर किया था, लेकिन आज भारतीय मीडिया मोदी सरकार के योगदानकर्ता और भागीदार के रूप में काम कर रहा है।
बल्कि, पिछले हफ्ते भारतीय राजधानी में आग और खुन की जो होली खेी गई है, इसमें गृह मंत्री अमित शाह, परवेश वर्मा, कपिल मिश्रा, अनुराग ठाकुर, गिरिराज सिंह और अन्य उन जैसे भाजपा नेताओं के ज़हरीले बयानों के साथ भारतीय मीडिया की भी प्रत्यक्ष भूमिका रही है।
दंगा भड़काने वाले और दंगाइयों के साथ साथ स्टूडियो रूम को युद्धक्षेत्र बनाने वाले न्यूज एंकर भी दिल्ली को जलाने में समान रूप से शामिल हैं।
उत्तर-पूर्वी दिल्ली में अब तक लगभग पचास लोग मारे जा चुके हैं, और अभी तक लोग अपने प्रियजनों के शवों के लिए मृत घर के बाहर इंतजार कर रहे हैं,
मगर अफसोस कि , इन दुष्ट लोगों के छाती की आग अभी तक शांत नहीं हुई है और सभी मुख्यधारा के मीडिया समाचार चैनल आम आदमी पार्टी के एक मुस्लिम पार्षद ताहिर हुसैन को आईबी अधिकारी अंकित शर्मा की हत्या के मामले में एक खलनायक के रूप में पेश कर रहे हैं, उसके घर के कोने कोने को छानकर पता नहीं क्या-क्या”बरामद” कर चुके हैं, जबकि तथ्य यह है कि ताहिर हुसैन खुद दंगों के पीड़ितों में से एक है और वह खुद पुलिस की मदद से बच पाऐ थे, लेकिन जब से मृत का शव उसके घर के पास मिला है, तो सभी बेशर्म, गोदी मीडिया ये साबित करने में लग गया है कि वह ताहिर हुसैन द्वारा मारा गया था, जबकि “द वॉल स्ट्रीट जर्नल” ने पीड़ित के भाई अंकुर शर्मा के हवाले से एक रिपोर्ट प्रकाशित की है, कि अंकित शर्मा के हत्यारे “जे श्री राम” के नारे लगा रहे थे, हालांकि बाद में कई रिपोर्टों ने बताया कि द वॉल स्ट्रीट जर्नल ने गलत सूचना दी है, और अंकुर शर्मा ने इस अखबार के लिए ऐसा कोई बयान नहीं दिया है। कई पुलिस अधिकारियों ने भी फर्जी समाचार प्रकाशित करने के लिए वॉल स्ट्रीट जर्नल के खिलाफ शिकायत दर्ज की है।
इसी तरह, मुख्यधारा के मीडिया ने एक बंदूकधारी जिस की पहचान शाहरुख के नाम से हुई, इसकी खबर को भी कथित तौर पर दिखाया जैसे कि सारे दंगे एक ही आदमी ने किए, जब कि अस्पतालों में दाखिल घायलों की रिपोर्ट में लगातार ये खुलासा हो रहा है कि उनमें से ज्यादातर को गोली मारी गई है, तो निश्चित रूप से गोली मरने वाले भी कई लोग होंगे, और सोशल मीडिया पर पचास से अधिक वीडियो घूम रही हैं, जिनमें दंगाइ खुले आम घरों को आग लगाते, मस्जिदों को शहीद करते और लोगों पर गोली चलाते दिख रहे हैं।
लेकिन हमारे देश का मीडिया अब भी पूरी कोशिश में है कि इस दुखद त्रासदी के पीड़ितों के परिवारों को दिलासा देने के बजाय किसी तरह इसमें मुस्लिम चरित्रों को ढूंढकर उन्हें मास्टरमाइंड बना दिया जाए।
परिस्थितियों को देखते हुए, खुद गृह मंत्री की गंभीरता का हाल ये हैै कि इतनी हत्याओं के बाद भी कल ओडिशा में एक सार्वजनिक रैली में, उन्होंने दंगों में मरने और लुटने वालों के लिए हमदरदी और दियासे के एक दो शब्द बोलने के बजाय, विपक्षी दलों के बहाने, CAA / NRC के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों को ही अपनी ज़हरीली भाषा का निशाना बनाया।
खैर, यह काल भारतीय लोकतंत्र का सबसे अंधकार काल है, 2002 में मोदी को जिस मीडिया पर नियंत्रण न कर पाने का मलाल था, उसे वह 2020 में पूरी तरह से अपने कबजे में ले चुके हैं।
दिल्ली लगातार तीन दिनों तक जलती रही, लेकिन देश के प्रधानमंत्री को इसकी कोई चिंता नहीं थी, वह अमेरिकी राष्ट्रपति की मेजबानी करने में व्यस्त थे, लगभग 70 घंटों के बाद वह कुछ शाब्दिक ट्वीट्स के साथ शांति की अपील करके चुप बैठ गए।
लेकिन मजाल है कि देश की मीडिया ने उनसे कोई सवाल पूछा हो, इसके विपरीत, उनके ट्वीट को इस तरह प्रस्तुत किया गया जैसे कि श्री नरेन्द्र मोदी को दिल्ली के दंगों से गहरा दुःख हुआ है और उन्होंने दंगों के केवल 70 घंटे के बाद ही यह अपील कर दी है।
मोदी सरकार में ये देश जिस विनाशकारी तबाही की तरफ बढ़रहा है, उस में सबसे बड़ी भूमिका यहां की मीडिया की है।
न्यूज रूम में बैठ कर गला फाड़ने वाले एंकर ये समझते हैं कि वे मोदी सरकार के राष्ट्रवादी एजेंडे को बढ़ावा दे रहे हैं और उनके मुंह से निकलने वाले जहरीले झाग का एकमात्र शिकार मुसलमान होंगे लेकिन देख लिजऐ कि दिल्ली के दंगों में मरने वाले चालीस से अधिक लोगों में आधे मुस्लिम हैं, ते लगभग आधे ही हिंदू हैं, यदि खून मसलमानों के जिस्म से बह रहा है तो हिंदू के जिस्म भी रक्त से बच नहीं सके हैं, यदि मुसलमानों की संपत्ति तबाह ह्ई है तो हिंदूओं का भी नुकसान हुआ है।
यदि हम भारत के लोग हिंदू हो या मसलमान समझदारी से काम नहीं लिया और गोदी मीडिया के द्वारा फैलाई जा रही झुटी अफवाह और प्रोपेगेंडे का इसी तरह निशाना बनते रहे, तो यह निश्चित है कि सरकार के पालतू इस मीडिया द्वारा लाई गई इस तबाही और विनाश से कोई बच नहीं पाएगा। बस नाम रहेगा अल्लाह का!