इस्लाम और देशप्रेम के बीच कोई विरोधाभास नहीं है। यह देशप्रेम का मामला है ही नहीं बल्कि यह उच्च स्तर की पहचान का मामला है अर्थात् प्रश्न यह है कि आपकी उच्चतम पहचान दीन (धर्म) से है या देश से। एक धर्मनिरपेक्षतावादी या राष्ट्रवादी के निकट यह पहचान देश से है और हमारे निकट यह दीन से है। जब आपसे यह प्रश्न होता है कि आप पहले भारतीय हैं या मुसलमान तो प्रश्नकर्ता आपकी उच्चतम पहचान जानना चाहता है, यदि आप उत्तर देते हैं कि धर्म और मातृभूमि दोनों मेरे लिए समान हैं तो इस उत्तर से आम व्यक्ति शायद निरुत्तर हो जाए लेकिन आप या तो यह स्वीकार करें कि आपने तौरिया से काम लिया है और सच्चाई को छुपा लिया है या फिर यह स्वीकार करें कि आपके निकट उच्चतम पहचान कई हो सकती हैं अर्थात् धर्म और मातृभूमि दोनों ही उच्चतम पहचान हो सकती हैं। स्पष्ट है कि यह विचार एक तार्किक ग़लती के अतिरिक्त कुछ नहीं है। दो चीज़ों को उच्चतम मानना ही तो शिर्क है जब दीन (धर्म) की तुलना में किसी वस्तु का उल्लेख किया जा रहा हो।
धर्मनिरपेक्षता का वास्तविक अर्थ है ख़ुदा को राजनीति और समाज से बाहर रखना। इस विचारधारा को भारत में हल्के ढंग से लागू किया जाता रहा है जबकि फ्रांस और निकटवर्ती अतीत में तुर्की ऐसा देश है जहाँ धर्मनिरपेक्षता का चरमपंथी पहलू देखने में आता रहा है। यही कारण है कि भारत में हालांकि धर्म को सरकारी मामलों से बाहर रखा गया है लेकिन साथ ही समाज में इसकी मौलिक स्थिति निर्विवाद रही है। (देश के विभाजन के समय भारत के मुसलमानों के पास नरम धर्मनिरपेक्षता को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, उन्होंने देखा कि यदि धार्मिक स्वतंत्रता मिल रही हो तो यह घाटे का सौदा नहीं है भले ही अब पचहत्तर वर्ष की मुस्लिम राजनीति पर अपने सभी गुणों से ऊपर उठ कर गंभीरता से चर्चा की जानी चाहिए लेकिन फिर भी उस दौर के मुसलमान धर्मनिरपेक्षता का नरम संस्करण स्वीकार करने के लिए मजबूर, अक्षम और इंशाल्लाह अल्लाह के निकट सवाब के हक़दार थे)। इसलिए फ्रांस आदि में देश और देश के प्रति वफ़ादारी को धर्म का दर्जा दे दिया गया क्योंकि मानव समाज स्वाभाविक रूप से धर्म प्रेमी है, जब आसमानी धर्म को निष्कासित कर दिया गया तो मानव धर्म को अपना लिया गया। आज वहां की हर उस मस्जिद और मुस्लिम संस्थान को बंद किया जा रहा है जिसके बारे में उन्हें लगता है कि इसके ज़िम्मेदार धर्म सम्बद्धता को राष्ट्रीय संबद्धता से अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। इसके विपरीत संयुक्त राज्य में नरम धर्मनिरपेक्षता के कारण उच्चतम आधिकारिक पहचान मानव जाति है। अनौपचारिक रूप से मानव धर्म को उच्चतम पहचान के रूप में भी स्वीकार किया जाता है। समाज में शुद्ध अमेरिकी का कोई स्थान नहीं है बल्कि लोग व्हाइट अमेरिकन, ब्लैक अमेरिकन, इंडियन अमेरिकन, यहूदी अमेरिकन, क्रिश्चियन अमेरिकन और मुस्लिम अमेरिकन जैसी पहचानों से जाने जाते हैं।
भारत में देशभक्ति बढ़ी हुयी धर्मनिरपेक्षता का परिणाम नहीं है बल्कि बढ़े हुए राष्ट्रवाद का परिणाम है जिसकी जड़ें हिंदू धर्म से मिलती हैं। सनातन धर्म जिसे सामान्यतः हिंदू धर्म कहा जाता है, एक क्षेत्रीय धर्म रहा है। इस धर्म में भारत को एक देवी के रूप में देखा जाता है, यही कारण है कि संघ को हिंदुओं में देश के प्रति वफ़ादारी का जुनून पैदा करने में कोई कठिनाई नहीं हुयी। उन्होंने राष्ट्रवाद को धार्मिक रंग देकर बढ़ावा दिया और देशीय पहचान को धार्मिक पहचान के समान बल्कि उससे ऊपर बताया। यदि किसी हिंदू से पूछा जाए कि वह पहले हिंदू है या भारतीय और वह उत्तर देता है कि वह पहले भारतीय है तो वह हिंदू ही रहता है क्योंकि बहुदेववादी धर्म में शिर्क करते हुए ग़ैर-मुशरिक बनने का कोई मार्ग ही नहीं है।
इसलिए यदि यही प्रश्न एक मुस्लिम से पूछा जाए और उन लोगों के द्वारा पूछा जाता है जिनकी विश्वदृष्टि चरमपंथी धर्मनिरपेक्षता या चरमपंथी राष्ट्रवाद है तो प्रश्न का उद्देश्य देश को ख़ुदा के तुलना में प्रस्तुत करने के अलावा कुछ और नहीं हो सकता। इसलिए उत्तर भी उसी विश्वदृष्टि को सामने रखकर देना आवश्यक हो जाता है कि हमारी उच्चतम पहचान इस्लाम से है उसके बाद हमारी पारिवारिक पहचान है क्योंकि इस संबंध को हदीसों के अनुसार बदला नहीं जा सकता, इसके बाद हमारी वह पहचान है जो परिभाषित तो नहीं है लेकिन उसका सम्बन्ध धर्म से है, जैसे किसी स्कूल ऑफ़ थॉट की ओर सम्बद्धता। अन्त में देशीय पहचान है क्योंकि राष्ट्रीय सम्बद्धता को प्रवास की प्रक्रिया से कभी भी परिवर्तित किया जा सकता है। उच्चतम से निम्नतम पहचानों की इस श्रंखला में कोई विरोधाभास नहीं है। एक व्यक्ति एक मुसलमान होने के साथ-साथ सुन्नी, ग़ैर-सुन्नी, हनफ़ी, शाफ़ई, सैय्यद, शेख़, पठान, अंसारी और फिर भारतीय भी हो सकता है। यदि कोई निम्नतम पहचान को उच्चतम पहचान की तुलना में लाए और ज़ोर देकर कहे कि आप दोनों में से किसी एक को चुनें तो निम्नतम पहचान का चयन करने में कुफ़्र का अन्देशा है जबकि उच्चतम और निम्नतम को समान कहना यह पूरी तरह से ग़ैर-इस्लामिक रवैय्या है।
हमवतनी भाइयों को स्पष्ट शब्दों में यह समझाना आवश्यक है कि आपकी मान्यता के अनुसार भारत यद्यपि राम का देस है लेकिन राम को न मानने वाला भी देश का उतना ही भागीदार है जितना कि राम को मानने वाला, उसी प्रकार भारत को केवल देश स्वीकार करने वाला और इस अर्थ में स्वाभाविक रूप से प्रेम करने वाला भी देशप्रेमी है और अपने इस संबंध में वह भारत की उपासना करने वाले से किसी तौर पर कम नहीं है और उसे देश से प्रेम के लिए अपनी उच्चतम पहचान का बलिदान देने की बिलकुल आवश्यकता नहीं है। यह बात जब तक दो टूक अन्दाज़ में नहीं कही जाएगी तब तक तर्कहीन प्रश्न आपसे पूछा जाता रहेगा।