आरिफ इक़बाल ( ईटीवी भारत, अररिया)
एक मोहसिन, एक सरपरस्त, ख़ुश मिजाज़, मिलनसार और छोटो की कद्र और हमेशा होंसला देने वाले भाई अब्दुल क़ादिर शम्स ( सब एडिटर, राष्ट्रीय सहारा उर्दू) आखिरकार ज़िन्दगी की जंग हार गए। एक नही, बेशुमार एहसानात रहे मुझ पर और हर मोड़ पर रहनुमाई करते आए। आख़री बात चित कोविड सेंटर पर भर्ती के वक़्त हुई थी जहाँ आपने मुझे हिम्मतवर जांबाज़ कहते हुए जल्द बाहर आने की दुआएं दी थी, मगर अफसोस आप खुद इस से लड़ते हुए हम से जुदा हो गए। बीमारी के आलम में ये खबर सहन करना मुश्किल है। अब्दुल क़ादिर भाई जैसे नेक दिल और सलाहियत मंद सहाफी हम लोगो के लिए एक रोशनी की तरह थे। किसी मोड़ पर कोई परेशानी हुई कि तुरन्त एक फ़ोन लगाया और आप उसे हल करा देते। दिल्ली रहते हुए आप से क़ुर्बत हुई और फिर बड़े भाई की शक्ल में आगे बढ़ गया। कभी कभी हम लोगो की महफ़िल जमती जिस में मुफ़्ती महफ़ूज़र रहमान उस्मानी साहब, शहाबुद्दीन भाई, मुफ़्ती नादिर क़ासमी साहब, शम्स तबरेज़ भाई का जुटान होता तो अब्दुल क़ादिर भाई उसमें चार चांद लगा देते। वो सब नज़ारे इस वक़्त मेरे आंखों में तैर रहे हैं और आपको हंसता, मुस्कुराता और खिलखिलाता महसूस कर रहा हूँ। ये ताल्लुक़ात अररिया आने के बाद और भी मज़बूत हुआ। एक नही, कई मौकों पर आपने मेरी परेशानी को दूर किया। जिस वक्त अररिया में क़दम रखा था, उस वक़्त कोई था, तो सिर्फ क़ादिर भाई ही थे। अररिया में रिपोर्टिंग के दौरान आप मुझ से हमेशा खुश रहे, बोलते आपने अररिया के जटिल मुद्दों में जान पैदा कर दिया। इसके इलावा अन्य चीज़ो की तरफ भी इशारा करते कि इन मुद्दों पर भी आप कम करें।
समझ नही आ रहा, क्या लिखूं, क्या छोडू, यादों का हुजूम दिमाग पर हावी हो रहा है और बेतरतीबी से लिख रहा हूं। कलेजा मुंह को आ रहा है और आंखे भींग रही हैं।
अब किसी और मौके पर उन पहलुओं को सामने लाऊंगा जो सिर्फ आप का हिस्सा था।
अल्लाह मरहूम की मग़फ़िरत करे। आमीन