आज जो किताब मेरे संग-साथ रही वह थी कृष्णा सोबती जी की “ऐ लड़की”। पतली सी किताब 87 पेज की, एक ही बैठक में पूरी कर लेने वाली। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ, एक बार उठाया तो आद्योपांत पढ़े बिना छोड़ा न गया। वैसे देखा जाए तो कहानी ऐसी रोचक भी नहीं पर लेखन का करिश्मा कि एक बार शुरू करो तो पढ़े बिना छोड़ा न जाए। कृष्णा सोबती जी यूं ही किसी को अपना मुरीद नहीं बना लेतीं।
यह पुस्तक एक संवाद यात्रा है एक बूढ़ी मरणासन्न मां का अपनी अविवाहित रह गई बेटी और अपने नर्स के साथ। टूटे हुए कूल्हे, बिछावन पर पड़े रहने के कारण पीठ में उग आए बेड सोर की टीस, आंखों में जलन और धुंध लिए एक बूढ़ी महिला बातों ही बातों में अपने पूरे जीवन के सुख-दुख की कहानी अपनी बेटी को ‘ऐ लड़की’ कहते हुए सुनाती जाती है। न जाने क्यों एक बार भी उसे उसके नाम से नहीं पुकारती जब की बेटी मां की सेवा में जी जान से जुटी अम्मी, अम्मू कहते नहीं थकती। लेकिन नाम न लेने से मां का प्यार कम तो नहीं हो जाता! जाते-जाते अगर उसे किसी की चिंता है तो उसी एक बेटी की जिसे वह कभी प्यार से सलाह देती है, कभी जीवन का मर्म समझाती है और कभी अपने ज्वर और दर्द की पिनक में झल्लाती और दुत्काती भी है।
एक आम स्त्री की भांति ही तो है यह स्त्री, वैसी ही कामनाएं वैसी ही लालसाएं। मरने से पहले अपने बेटे, पोते का मुंह देख लेने की तमन्ना पालने वाली, अपनी अकेली बेटी के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए अपना घर उसके नाम करने वाली, नौकर-चाकर से लेकर घर के समानों की भी व्यवस्था कर चुकने वाली, एक साधारण स्त्री। सुखी दाम्पत्य की स्मृति जिसकी आंखों में एक चमक भर देती है और आपसी कलह की याद भर से जिसका चेहरा थोड़ा और मझा उठता है। परंतु वह जो कुछ भी कहती है क्या उसे एक मरणासन्न स्त्री का अनर्गल प्रलाप मान कर नकारा या नजरअंदाज किया जा सकता! वह कहती ही जाती है नर और नारी, मां और बेटी, माता और पिता, मृग और मृगया की कथा पर हर कथा जैसे इन शब्दों, रिश्तों को नए ढंग से परिभाषित करने का एक अपूर्व प्रयास।
बुजुर्गियत अनुभव से आता है और उसके सिखावन में जीवन का निचोड़ होता है। इस बूढ़ी स्त्री के मुंह से भी जो शब्द झड़ रहे वह क्या किसी पहुंचे हुए पीर-फकीर से कम हैं! कुछ बानगी देखिए – “दिल बड़ा दांव-पेची है। पाक साफ तो आत्मा ही है चेतन और चैतन्य। चैतन्य होता है पानी के रंग जैसा। निर्मल ।वही इस देश का ईश्वर है।” और फिर यह “आत्मा और देह मिलकर ही दुनिया का सपना बुनते हैं दोनों में से किसी एक की कोई बिसात नहीं।” कितना बड़ा नग्न सत्य उदधाटित कर रही लेखिका उसके मुंह से।
अपनी बेटी को लक्ष्य करके इस बूढ़ी स्त्री द्वारा कहे गए शब्द – “अपने आप में होना परम है श्रेष्ठ है……गृहस्ती में सारी शोभा नामों की है।” और यह कि “तुम तो अपने में आजाद हो। तुम पर किसी की रोक-टोक नहीं।…….एक बात याद रहे कि अपने से भी आजादी चाहिए होती है।”
मरने से पहले क्या हर व्यक्ति दार्शनिक हो जाता है? मुझे लगता है जिनका जीवन अभी बचा हुआ है उसे मरते हुए व्यक्ति की बातें ध्यान से सुननी चाहिए क्योंकि उसी में जीवन के मर्म छुपे होते हैं और एक पछतावा से मुक्त जीवन जीने के सूत्र भी। कम से कम इस किताब को पढ़ने के बाद तो मैं ऐसा ही मानने लगी हूं। वे सारे संवाद जो इस पुस्तक में एक स्त्री के मुंह से कहलवाए गए हैं और जो कभी एकालाप और कभी विलाप में भी बदल जाते हैं, एक नवीन जीवन दर्शन का प्रकटीकरण ही है।
अंत में यही कहूंगी कि ‘ऐ लड़की’ एक पतली सी किताब और छोटी सी कहानी भले ही हो पर पढ़ने वाले पर ऐसी असर छोड़ती है जो ताजिंदगी बनी रहने वाली है। तो जो साहित्य में सच्चा और खरा सोना ढूंढ रहे उन्हें यह किताब अवश्य पढ़नी चाहिए।