एक लड़की जंगल में थी वो ज़ेवरात से लदी हुई थी। एक आदमी की नियत बदल गयी, उसने लड़की के सर पर एक पत्थर दे मारा, लड़की बेहोश होकर गिर पड़ी। आदमी ने ऊपर से एक और पत्थर मारकर उसका सर कुचल दिया ओर उसके ज़ेवरात उतार कर चंपत हो गया। लड़की को उठा कर लाया गया। इसमें ज़िन्दगी की रमक बाक़ी थी, उससे पूछा गया कि उसके साथ ये हरकत किसने की है? उसमें बोलने की ताक़त न थी। उसके सामने एक मुश्तबा (जिस पर शक हो) आदमी का नाम लिया गया कि क्या उसकी हरकत है? उस लड़की ने सर हिलाकर मना कर दिया, दूसरे का नाम लिया गया तब भी उसने मना कर दिया, तीसरे का नाम लिया गया तो उसने हाँ में सर हिला दिया। इसके कुछ देर बाद लड़की की जान निकल गयी। उस आदमी को पकड़ कर लाया गया और उससे पूछताछ की गई, उस पर दबाव बनाया गया तो उसने अपना जुर्म क़ुबूल कर लिया। लिहाज़ा ठीक उसी तरीक़े से उस आदमी से क़िसास (बदला) लिया गया। उसे एक पथरीली ज़मीन पर लिटाकर ऊपर से एक पत्थर से उसका सर कुचल दिया गया। जैसे को तैसा। (बुखारी:2413,मुस्लिम:1672)
एक लड़की अपनी माँ के साथ खेत मे काम करने गयी। चार नोजवानों ने उसे पकड़ा, उसे बुरी तरह मारा- पीटा, उसके साथ जानवरों की तरह बलात्कार किया यहाँ तक कि उसकी जान पर बन आई। उसे हॉस्पिटल दाखिल कराया, लेकिन वो अपनी जान हार गई। उस लड़की के साथ ये घिनोनी हरकत करने वाले चारों नोजवान बहुत नामी थे, वो इस घटना के बाद भी अपनी बस्ती में खुले आम मौजूद रहे। पुलिस ने कोई कार्यवाही नहीं की। लड़की मर गई तो उसकी लाश उसके घरवालों के हवाले नहीं कि गयी, यहाँ तक कि उन्हें उसके आखरी दीदार से भी महरूम रखा और पुलिस ने लाश अपने क़ब्ज़े में लेकर ज़बरदस्ती ढाई बजे रात को उसे आग के हवाले करवा दिया। अब मालूम हुआ कि पुलिस ने पूरी बस्ती को अपने घेरे में ले रखा है और किसी को भी, यहाँ तक कि प्रेस वालों को भी वहां जाने नहीं दिया जा रहा है।
ऊपर दो मामलात बयान किये गए हैं। एक मामला आज से चौदह सौ (1400) साल पहले अरब में मदीना की बस्ती में पैश आया था। वहाँ इस्लाम की हुकूमत थी और पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्ल. जैसी शख्सियत खुद मौजूद थी। जुर्म करने वाला आदमी एक ताक़तवर क़बीले (यहूद) का फर्द था, लेकिन जब उसने जुर्म किया तो तहक़ीक़ (जांच-पड़ताल) के बाद और जुर्म साबित होने पर उसी से क़िसास (बदला) लिया गया। उसे वैसे ही सज़ा दी गयी जैसे जुर्म उसने किया था। उसका ताक़तवर कबीला उसे सज़ा पाने से बचा न सका और न उस वक़्त के हुक्मरान ने उसके साथ ज़रा भी नरमी की। इसका नतीजा ये था कि उस वक़्त का ज़्यादातर मज़हबी समाज अमनो -अमान का गढ़ बना हुआ था। दस साल की मुद्दत में जुर्म के इक्का-दुक्का मामलात ही रिपोर्ट हुए और जो नोटिस में आये उनपर तुरन्त कार्यवाही की गई और मुजरिमों को सही सज़ा दी गयी।
दूसरा मामला अभी कुछ दिन पहले उत्तरप्रदेश के जिला हाथरस में सामने आया है। मज़लूम लड़की दलित समाज की है, जिसे समाजी तौर पर नीच और शूद्र समझा जाता है और दरिंदगी करने वाले नोजवानों का सम्बंध ठाकुर जाति से है, जिसे समाजी तौर पर बरतर (श्रेष्ठ) समझा जाता है। ये मामला दिन-दहाड़े पेश आता है। मुजरिम मालूम थे, लेकिन वो बेख़ौफ़ घूमते रहे, क्योंकि वो जानते थे, कोई उनका बाल बांका नहीं कर सकता। अमनो अमान और क़ानून चलाने वाले इदारे मज़लूम की हिमायत में आने के बजाए ज़ालिमों को बचाने में लगे हुए हैं। वो मज़लूमा और इज़्ज़त से खेलने, और क़त्ल का शिकार होने वाली लड़की के घरवालों को डरा-धमका रहे हैं कि वो अपना बयान बदल दें, और किसी को नामज़द न करें। उनकी पूरी कोशिश है कि तमाम गवाह मिट जाएं, ताकि मुजरिमों के ख़िलाफ़ मज़बूत दफात(धाराओं) के साथ मुक़दमा ही क़ायम न हो सके और चंद दिनों के बाद वो बाइज़्ज़त बरी हो जाएं।
अगर समाज मे पनपने वाले अपराध की रोकथाम मकसूद हो तो इसके लिए ज़रूरी है कि पहले वाक़िये को नमूना बनाया जाए। कोई जुर्म हो तो फौरन मुजरिमों को कानून की गिरफ्त में लाया जाए। वो किसी भी समाज के मालिक हों, उनकी हैसियत उन्हें सज़ा से बचाने में कारगर न हो। जुर्म का ख़्याल दिल में लाने वाले हर शख्स को मालूम हो कि वो किसी भी सूरत में उसकी सज़ा से न बच सकेगा। अगर सज़ा में इबरत (सीख) का पहलू नुमायां हो तब वो दूसरे मुजरिमों को जुर्म करने से बाज़ रखने में असरदाई होगा । इस्लामी सज़ाओं को वहशियाना (हैवानियत) कहने वालों को मालूम हो जाना चाहिए कि इन सज़ाओं के एलानिया निफ़ाज़ (क़ायम करने) के ज़रिए उन्हें दूसरों के लिए इबरत व नसीहत बना दिया गया है।