डॉ मोहम्मद सफ़दर मुस्तफा का नजरिया हिन्दूस्तान की तारिख से
नई दिल्ली : आजादी के 73 साल गुजर चुके हैं, स्वतंत्र भारत के सफर में मुसलमानों ने कई अहम पड़ाव देखे हैं, बावजूद इसके आज भी मुसलमानों के हालात नहीं बदले हैं और न ही उनके मुद्दों का सही निराकरण ही हुआ ! वे आज भी अपनी आंखों में एक ख्वाब लिए हुए दर बदर की ठोकरे खाने को मजबूर हैं, यूँ कहे की आजादी के 73 साल बीत जाने के बाद भी 80 प्रतिशत मुस्लिम समुदाय सब से छोटे काम कर जीवनयापन करने को ही अपना मुक़द्दर मानते हैं ! क्या यह सयाशी कमज़ोरी है या हमारा शैक्षणिक पिछड़ापन या समाज के आपसी भाईचारगी में भेदभावपूर्ण रवैये, आखिर इसका जिम्मेदार कौन ? इस विशेष बिन्दुओं पर डॉ मोहम्मद सफ़दर मुस्तफा, राष्ट्रीय अध्यक्ष, नेशनल एंटी क्राइम ह्यूमन राइट्स कौंसिल ऑफ़ इंडिया के द्वारा सच्चर रिपोर्ट के आधार पर विस्तृत विश्लेषण में उन्होंने समाज के लोगों को इसकी गहन सोंच को जिन्दा करने का काम किया है ! डॉ मुस्तफा बताते हैं की यह सोंच सिर्फ मुस्लिम समाज का ही नहीं बल्कि कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने इसी पहलु को जानने के लिए एक ऐतिहासिक और विशेष कमिटी का गठन करते हुए 9 मार्च, 2005 को मानवाधिकारों के जाने-माने समर्थक जस्टिस राजिंदर सच्चर के नेतृत्व में सच्चर कमेटी का गठन किया, इस कमेटी में सच्चर के अलावा शिक्षाविद् और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति सैयद हामिद, सामाजिक कार्यकर्ता ज़फर महमूद के साथ अर्थशास्त्री एवं नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च के सांख्यिकीविद् डॉ. अबुसलेह शरीफ इस कमेटी के सदस्य सचिव बनाये गए थे ! अध्यक्ष महोदय ने बताया की लगभग 9 माह के लम्बे समय के बाद 403 पेज की सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को 30 नवंबर, 2006 में लोकसभा में पेश की गई, उन्होंने अन्य मुद्दों के साथ शैक्षणिक पर विशेष धयान रखते हुए उस वक्त देश की प्रशासनिक सेवा में मुसलमानों की भागेदारी मात्र 3 फ़ीसद आईएएस और 4 फ़ीसद आईपीएस, पुलिस बल में मुसलमानों की भागेदारी 7.63 फ़ीसद, रेलवे में केवल 4.5 प्रतिशत मुसलमान कर्मचारी की भागीदारी आंकी गयी, जिनमें से 98.7 प्रतिशत निचले पदों पर हैं और सरकारी नौकरियों में उनका प्रतिनिधित्व सिर्फ़ 4.9 प्रतिशत बताया गया था, जिसमे कहा गया कि मुसलमानों की साक्षरता की राष्ट्रीय औसत दर बाकी समुदाय से कम है ! इतना ही नहीं रिपोर्ट में आश्चर्चकित कर देने वाली बातें लिखी गयी थी कि देश में “मुसलमानों की हालत दलितों से भी बदतर है”, क्या कभी हमने इस रिपोर्ट में लिखी बातों पर गौर किया, अगर नहीं तो क्यों और पता होने के बावजूद भी चुप रहना, यह कैसी जिम्मेदारी है ? आखिर आने वाले पीढ़ी को हम क्या देना चाहते हैं ? क्या यह सोंच हमें सुन्नी, शिया, बोहरा, अहमदिया और न जाने कितने फ़िरक़ों में बटे होने को दर्शाता है, या हमारे हुक्मरानों और ओहदेदारों में तरबियत की कोई कमी की ओर इशारा करती नज़र आती है, आखिर कब तक मुस्लिम समाज ग़ुलामी की जंज़ीरों में सिसकते हुए दम तोड़ती रहेगी ? इतना ही नहीं राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) ने भी वर्ष 2011 – 2012 के सर्वे रिपोर्ट में सभी धर्मों के साथ मुस्लिम समुदाय पर गहरी संवेदनाये जताते हुए लिखा कि “मुसलमानों की आर्थिक स्थिति भारत में सुधार के कोई संकेत नहीं दिखती है”। ऐसे तो सरकार मुस्लिम समाज के उत्थान के लिए आयोग का निर्माण और कई योजनाओं का अविष्कार समय समय पर करती रही है, तो क्या वह योजनाओं का मुझे पता ही नहीं होता, या पता होने के बावजूद भी हम इसका लाभ नहीं ले पाते ! आज के इस नज़रिये पर हमें बहुत ही गौर – ओ – फ़िक्र करने की ज़रुरत है, नहीं तो आने वाला भविष्य और भी अंधकार मय हो जाने से इंकार नहीं किया जा सकता, तभी डॉ अल्लामा इक़बाल ने क्या खूब लिखा था “न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्ताँ वालो, तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में !!