अनुवाद: शहला प्रवीण, दिल्ली विश्वविद्यालय
बिहार चुनाव से ठीक पहले, राज्य में कई समस्याएं पैदा हो गई हैं। जिन्हें हल करने या यह कहें की सर्द करने का सरकारी प्रयास भी जारी है। किसी दलित की हत्या पर एक वारिस को सरकारी नौकरी, इंटर पास बिना शादी शुदा लड़कियों को अब 10 की बजाय 25000 और ग्रेजुएशन पास लड़कियों को 25 की जगह ₹50000 का विशेष छात्रवृत्ति, हाल ही में सहायक प्रोफेसर और उर्दू अनुवादक और सहायक अनुवादक की नियुक्ति के लिए परीक्षा की संभावित तिथि की घोषणाओं को उसी श्रृंखला की एक कड़ी के रूप में देखा जा सकता है। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने भी चुनावी दाव चलते हुए बिहार में विभिन्न क्षेत्रों में कई सौ करोड़ की परियोजनाओं का उद्घाटन किया है,दरभंगा एयरपोर्ट के शुरू होने की खबर एक बार फिर जोर पकड़ रही है। इन्हीं चुनावी मुद्दों में एक मुद्दा उर्दू का भी शामिल हो गया है। हालाँकि, उर्दू से संबंधित कुछ मुद्दे, जैसे बिहार उर्दू अकादमी, उर्दू सलाहकार बोर्ड, आदि पहले से ही मौजूद थे। नई समस्या भी बीते मई में पैदा हुई है ,वह यह है कि हाई स्कूलों में अनिवार्य विषय के बजाय उर्दू को वैकल्पिक विषय बना दिया गया है , और अब शिक्षकों को पांच अनिवार्य विषयों (हिंदी, अंग्रेजी, समाजशास्त्र, विज्ञान, गणित) और एक अन्य भाषा के लिए नियुक्त किया जाएगा जिसमें पहले से ही संस्कृत, बंगाली, मैथिली, भोजपुरी, अरबी और फारसी आदि थीं और 15 मई, 2020 के शिक्षा विभाग, बिहार की नई अधिसूचना के बाद, उर्दू को भी इसी कतार में शामिल किया गया है। इससे पहले, उर्दू को एक मातृभाषा के रूप में और दूसरी राजभाषा के रूप में अनिवार्य विषय के रूप में शामिल किया गया था। नीतीश कुमार ने पहली बार सत्ता में आने के बाद ही घोषणा की थी कि बिहार के सभी स्कूलों में उर्दू शिक्षकों की नियुक्ति की जाएगी। उनकी सरकार ने भी उर्दू के पक्ष में कई सराहनीय कदम उठाए। बिहार में सरकार के तत्वावधान में कई उर्दू संस्थान चल रहे हैं। यह अलग बात है कि इन संस्थानों से उर्दू को बढ़ावा देने के लिए क्या और कितना काम हो रहा है और बिहार के स्कूलों में अभी भी कितनी शिक्षक सीटें खाली हैं। मई वाले सूचना की जानकारी उर्दू वालों को लगभग 2 महीने तक नहीं हो सका था या यह ज्ञात था, लेकिन इस पर चुप्पी थी, संभवतः जुलाई के शुरुआत या जून के अंत में एक हिंदी अखबार ने इस संबंध में एक समाचार प्रकाशित किया, फिर इस संबंध में डॉ मुश्ताक दरभंगवी, मुफ्ती सना उल-हुदा कासमी, डॉ सैयद अहमद आदि के विस्तृत लेख प्रकाशित हुए। बिहार राज्य उर्दू शिक्षक संघ भी जुलाई के मध्य से इस संबंध में सक्रिय है। उन्होंने 11 जुलाई को मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर उनका ध्यान आकर्षित किया था। उर्दू अखबारों में कई लोगों के बयान प्रकाशित हुए, और अगस्त के मध्य तक, बिहार के लगभग सभी उर्दू वहलों को इसके बारे में पता चल गया कि सरकार ने हाई स्कूल स्तर के पाठ्यक्रम से उर्दू विषय की अनिवार्य स्थिति को हटा दिया है;परिणामस्वरूप, पटना और उसके आसपास के सरकारी और गैर-सरकारी उर्दू संगठनों के कुछ कार्यकर्ताओं सहित आम उर्दू लोग जाग गए।कुछ लोगों ने शिक्षा मंत्री से मिलने और मसले को सुलझाने की कोशिश की, इसलिए कुछ लोगों ने विरोध किया और न्याय की मांग की। बिहार के विभिन्न जिलों की ऐसी तस्वीरें सोशल मीडिया और उर्दू अखबारों में लगातार छप रही हैं, जिनमें कुछ लोग हाथों में तख्तियां लिए हुए उर्दू के साथ बिहार सरकार से न्याय की मांग कर रहे हैं, जैसे-जैसे चुनाव का दिन नजदीक आता जा रहा है, यह सिलसिला तेज हो रहा है।
अब एक नई अधिसूचना शिक्षा विभाग की गश्त कर रही है, जिसमें यह कहा गया है कि जिस स्कूल में भी उर्दू या अन्य दूसरी भाषाओं में से किसी एक को पढ़ने वाले छात्र होंगे, वहां उस भाषा के शिक्षक के लिए नियुक्ति होगी, मई और नवीनतम अधिसूचना के बीच अंतर यह है कि पहले में 40 छात्रों की सीमा थी, इस में संख्या की कैद नहीं है, मगर उर्दू को दूसरी भाषा पहले वाले में भी बनाया गया था और इसमें भी वह दूसरी भाषा ही है। यह 27 अगस्त को जारी किया गया और मदरसा बोर्ड के वर्तमान अध्यक्ष और अंजुमन तरक्की –ए-उर्दू की बिहार शाखा के सचिव अब्दुल कय्यूम अंसारी ने कहा है कि यह दूसरी अधिसूचना अंजुमन तरक़्क़ी-ए- उर्दू बिहार के प्रयासों के से जारी की गई है। उन्होंने यह बात जहानाबाद में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान कही है। उनका एक लंबा बयान 25 सितंबर को बिहार के कई उर्दू अखबारों में प्रकाशित हुआ था। इससे पहले 11 सितंबर को अंजुमन तरक़्क़ी-ए- उर्दू बिहार ने लगभग आधे पेज का विज्ञापन प्रकाशित करवाया था। जिसमें उर्दू और अल्पसंख्यकों (मुस्लिमों) के पक्ष में नीतीश सरकार के फैसलों, पहल और योजनाओं की प्रशंसा की गई थी। प्रारंभिक पंक्तियों में मई वाले अधिसूचना और बाद के 27 अगस्त के अधिसूचना का भी उल्लेख किया गया था। उसमें लिखा था कि अंजुमन तरक़्क़ी –ए- उर्दू बिहार के प्रयासों से शिक्षा विभाग ने 15-05-2020 को जारी जारी सूचना में संशोधन करते हुए 27-08-2020 को एक नई सूचना जारी की है, जिसके अनुसार, यदि माध्यमिक और इंटर स्तर के स्कूलों में उर्दू का एक भी छात्र है, तो उसके लिए एक शिक्षक नियुक्त किया जाएगा।
एक दिलचस्प बात यह है कि अंजुमन तरक़्क़ी –ए- उर्दू हिंद के मुख्यालय से अलग आवाज़ उठ रही है और इसकी बिहार शाखा का पक्ष कुछ और है। 24 सितंबर को उर्दू अखबारों में अंजुमन तरक़्क़ी –ए- उर्दू हिंद के जरिए बिहार के मुख्यमंत्री को भेजे गए एक पत्र के संदर्भ में खबर प्रकाशित की गई है। जिस में उन्होंने बिहार सरकार के फैसले को असंवैधानिक करार दिया और इसकी यथास्थिति बहाल करने की मांग की। दूसरी अधिसूचना के संबंध में, कौमी तन्ज़ीम और अन्य उर्दू अखबारों में 26 सितंबर को एक खबर प्रकाशित हुई है। जिसका शीर्षक है “शिक्षा विभाग की सफाई (محکمۂ تعلیم کی وضاحت) लेकिन ख़बर जदयू के विधान परिषद के नवनिर्वाचित सदस्य प्रो गुलाम गोस और उर्दू परिषद के मुख्य सचिव डॉ असलम जावेदां कि बिहार के मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव, शिक्षा विभाग के प्रधान सचिव और बिहार परीक्षा बोर्ड के अध्यक्ष के साथ एक बैठक से संबंधित है। इसमें जो बातें हैं, उन से यह पता चलता है कि इन अधिकारियों ने केवल मौखिक आश्वासन दिए हैं। गुलाम ग़ौस साहब का कहना है कि “हम उर्दू वलों की मांगों को पूरा करने के लिए अभियान जारी रखेंगे”, उन्होंने आशा व्यक्त की है कि उन्हें हमेशा की तरह उर्दू प्रेमियों का समर्थन प्राप्त रहेगा।
बिहार राज्य उर्दू शिक्षक संघ के कुछ पदाधिकारियों ने संयुक्त रूप से 24 सितंबर को विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव को एक ज्ञापन सौंपा है। तेजस्वी ने औपचारिक रूप से यह आश्वासन दिलाया है कि “वे अपने स्तर पर इस मुद्दे को सख्ती से उठाएंगे और सरकार से उर्दू के साथ अन्याय को रोकने की मांग करेंगे।” 1 सितंबर को, राजद नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी ने भी इस संबंध में एक बयान दिया था उन्होंने कहा था कि “उर्दू शिक्षकों की नयुक्ति के लिए 40 छात्रों के कैद बिहार से उर्दू को मिटाने की साजिश है।” राजद विधानसभा सदस्य फैसल रहमान ने भी इस संबंध में 21 सितंबर को मुख्यमंत्री को पत्र लिखा था। इसके अलावा, जमीयत उलेमा-ए-बिहार और इमारत ए शरिया ने भी इस संबंध में अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन किया है।
एक ओर सरकार उर्दू के अस्तित्व के लिए हाई स्कूल पाठ्यक्रम में सफाई पेश कर रही है। 25 सितंबर को बिहार परीक्षा बोर्ड का एक व्याख्यात्मक विज्ञापन भी प्रकाशित किया गया है, दूसरी तरफ, सरकार के पक्ष के खिलाफ आवाजें भी जोर-शोर से उठ रही हैं। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि इन आवाजों में कोई एकता नहीं है। सबकी अपनी अपनी डफ़ली है, और अपना अपना ढोल। सरकार द्वारा अधिसूचना जारी किए जाने के ढाई महीने बाद तक उर्दू वलोन में पूरी तरह से चुप्पी छाई थी। कई विद्वानों और लेखकों ने इस ओर ध्यान आकर्षित किया तो भी उर्दू से जुड़े प्रभावशाली हस्तियाँ या संस्थान ने ध्यान नहीं दिया, लेकिन अब ऐसा लगता है कि हर कोई चुनावी मौसम को देखते हुए “खादिम-ए-उर्दू” और “काइद-ए-उर्दू” का तमग़ा पाना चाहता है। बिहार में उर्दू के नाम पर राजनीति का अपना इतिहास है और इस चुनाव में भी इसे दोहराने की कोशिश की जा रही है। अब, मतदान की तारीखों की घोषणा के साथ, चुनाव आचार संहिता भी लागू हो गई है। इसलिए शायद इस मुद्दे पर सरकार की ओर से कोई नया व्यावहारिक कदम या स्पष्टीकरण कठिन है। इसलिए अब तो यह देखना है कि सरकार उर्दू वालों को संतुष्ट करने में सफल होगी या नहीं? क्या इस नए मुद्दे का जेडी (यू) और एनडीए के वोटों पर कोई नकारात्मक या सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा? तथा क्या कोई अन्य पार्टी इससे लाभान्वित हो सकती है?
बिहार चुनाव से पहले उर्दू पर नई मुसीबत – नायाब हसन
previous post