अनुवाद: शहला प्रवीण, दिल्ली विश्वविद्यालय
बिहार विधानसभा चुनाव में मजलिस की सीरियस इंट्री’ से वहां का राजनीतिक परिदृश्य काफी हंगामा पूर्ण होता जा रहा है। 19 सितमबर को ओवैसी ने देविंदर यादव की पार्टी के साथ गठबंधन कर के और इसके दायरे का और विस्तार करने का संकेत देकर मामले को और भी गरमा दिया है।
यह स्थिति दो पार्टिओं के लिए सबसे अधिक चिंताजनक है।एक राजद और दूसरी जदयू, चूंकि अब तक बिहार के मुसलमान ज्यादातर इन दोनों पार्टियों को ही वोट देते आ रहे हैं, कांग्रेस कुछ समय से वहां महत्वपूर्ण स्थिति में नहीं है और भाजपा को मुस्लिम वोट की जरूरत भी नहीं है। नीतीश कुमार ने जो लगातार तीन बार जीत हासिल की उसमें उनके अपने राजनीतिक तोडजोड़ के अलावा, मुस्लिम वोट ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान कुछ महत्वपूर्ण और बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़े कार्यों को भी अंजाम दिया। इसका भी उन्हें फायदा हुआ और उन्हें सुशासन बाबू भी कहा जाने लगा। हालांकि, 2015 में, उन्हें जीत महा गठबंधन के प्लेटफॉर्म से मिली थी। जिससे उन्होंने साल डेढ़ साल बाद ही पल्ला झाड़ लिया और वापस एनडीए में चले गए।इसके बाद वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा विशेष रूप से मुसलमानों के संबंध में उठाए गए भेदभावपूर्ण कदम में खूद नीतीश भी शामिल रहे, तीन तलाक के मामले में उन्होंने तिगड़म से काम लिया।एनआरसी सीएए के मुद्दे पर भाजपा के साथ चले गये ।हालांकि, हाल के दिनों में, उन्होंने एनपीआर पर विधानसभा से एक प्रस्ताव पारित किया है कि इसका सवरूप पहले जैसा ही होगा, इसमें कोई बदलाव नहीं होगा। लेकिन कई अन्य मामलों में, उन्होंने या तो अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं की या केंद्र सरकार का समर्थन किया। पिछले कुछ दिनों में बिहार के विभिन्न जिलों में सांप्रदायिक दंगों में वृद्धि हुई है।इन सभी घटनाओं ने बिहार के मुसलमानों का भरोसा नीतीश कुमार पर से उठा दिया है और अब वे एक विकल्प की तलाश कर रहे हैं,लेकिन क्या वह वैकल्पिक राजद या उसके नेतृत्व में बनने वाला महागठबंधन हो सकता है,जिसकी रूपरेखा अभी तक स्पष्ट नहीं है और राजद के कई वरिष्ठ नेता खुद पार्टी से अलग हो गए हैं या इसकी तैयारी कर रहे हैं।राजद के एक प्रमुख नेता, बाबू रघुवंश प्रसाद, पार्टी से नाराज होकर चल बसे। हालांकि दल बदलने की यह प्रक्रिया एनडीए की पार्टियों में भी चल रहा है लेकिन जदयू और भाजपा यहां मजबूत स्थिति में हैं। जबकि महा गठबंधन का ऊंट किस करवट बैठेगा इस के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है।
लालू यादव की अनुपस्थिति में, ऐसा नहीं लगता है कि तेजस्वी यादव महागठबंधन बनाने और सही तरीके से चलाने की स्थिति में हैं।इसकी झलक हमने पिछले साल लोकसभा चुनाव में देखी कि तेजसवी एंड कंपनी ने बहुत बुरी चाल चली और लापरवाही, अनुभव की कमी और बेवक़ूफ़ना तरीकों के कई हास्यास्पद उदाहरण देखने को मिले। जिसका नतीजा यह हुआ कि लोकसभा चुनाव में बिहार की 40 सीटों में से 39 पर एनडीए को कामयाबी मिली और 5 छोटी बड़ी पार्टियों के गठबंधन ने मिलकर केवल एक सीट पर जीत प्राप्त की। अभी विधानसभा चुनाव से पहले जिस तरह की स्थिति है, इसमें मुझे नहीं लगता कि हालात बहुत कुछ बदल सकेंगे, तेजस्वी यादव से सभी को बड़ी उम्मीदें थीं, लेकिन उनकी सबसे बड़ी कमी यह है कि वे अपनी पार्टी के वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं को मनाने में सक्षम नहीं हैं।और न ही सहयोगी दलों को संतुष्ट करने की स्थिति में हैं। इसी वजह से जीतन राम मांझी महागठबंधन में शामिल होते होते रहे गए और उन्होंने चुनाव से पहले दोबारा वह एनडीए में चले गए हैं। यही वजह है कि लालू यादव की जमानत की कोशिशें फिर से तेज हो गई हैं, अगर वह चुनाव से कुछ दिन पहले भी बाहर आ जाएं, तो कुछ उम्मीद की जा सकती है।
मजलिस-ए-इत्तेहाद उल मुसलमीन के जरिए बिहार चुनाव में एक नया मोर्चा खोलने का प्रयास राजद और जदयू दोनों के लिए खतरे की घंटी साबित हो सकती है। क्योंकि भले ही अकेले मजलिस कुछ बेहतर न कर सके, लेकिन अगर ओवैसी बिहार में अन्य दलों के साथ एक महत्वपूर्ण और प्रभावी गठबंधन बनाने में सफल हो जाते हैं, तो इसका परिणाम जमीन पर दिखाई देगा।इसीलिए राजद और जदयू के मुस्लिम नेता विशेष रूप से परेशान हैं। 19 सितंबर को, जहां ओवैसी और देवेंद्र यादव ने गठबंधन की घोषणा की। उसी दिन जेडीयू एमएलसी खालिद अनवर की अध्यक्षता में मुसलमानों के विकास में नीतीश कुमार की भूमिका पर एक वितुआल सम्मेलन आयोजित किया गया था। जिसमें बिहार के बहुत से जिलों से मुस्लिम नेता और जनता ने भाग लिया और नीतीश कुमार के मंत्रियों अशोक चौधरी, नीरज कुमार और विधायक नौशाद आलम, मास्टर मुजाहिद और अन्य लोगों ने सभा को संबोधित किया और इन सभी ने नीतीश के शासन के दौरान मुसलमानों के लिए उठाए गए कदमों और योजनाओं की बखान की। उसी दिन एक यूट्यूब चैनल पर राजद के प्रदेश युवा अध्यक्ष क़ारी सूहेब की साढ़े पांच मिनट की बातचीत देखने और सुनने को मिली।जिसमें कारी साहब ओवैसी और मजलिस के प्रति भारी गुस्सा व्यक्त कर रहे हैं और गुस्से में उन्होंने कुछ ऐसी बातें कही हैं, जिसकी एक बड़ी पार्टी का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्ति से उम्मीद नहीं की जा सकती है,एक जज्बाती वक्ता की तरह बोलते हुए उन्होंने कहा कि मजलिस टीबी के रोग की तरह है, वह मुस्लिम युवाओं को बारूद के ढेर पर खड़ा कर रहा है, वह मुस्लिम युवाओं के हाथों से कलम छीनकर तलवार पकड़ा रही है। दो अलग-अलग दलों के बीच राजनीतिक मतभेद आश्चर्यजनक नहीं हैं। लेकिन इस मतभेद को व्यक्त करने का एक तरीका है, हमारे पटना ही के महान कवि कलीम आजिज़ कह गए हैं।
बात चाहे बे सलिका हो कलीम
बात कहने का सलीका चाहिए
इस तरह की बात आरजेडी के हित में निश्चित नहीं जा सकती अलबत्ता इससे पार्टी को नुकसान पहुंचने की सौ प्रतिशत संभावना है। देश के बहुत से मुसलमान ओवैसी से असहमत हैं और उनके कई विचार विवादित हैं भी,मगर इस कारण से क्या यह कहना सही है की मजलिस मुस्लिम युवाओं के हाथ में तलवार थमा रही है? क्या आपको अंदाजा है कि पार्टी में वाहवाही बटोरने के लिए आपने जो कहा है , उसका कितना गहरा और दूरगामी प्रभाव हो सकता है? अगर राजद ऐसे मुस्लिम नेताओं को बढ़ावा देकर मुसलमानों का वोट हासिल करना चाहता है, तो इसे अपनी खैर मनानी चाहिए!
बिहार चुनाव :ओवैसी का गठबंधन,जेडीयू की वर्चुअल कॉन्फ्रेंस और आरजेडी की ‘तलवार’-नायाब हसन
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