अनुवाद: नूरूज़्ज़माँ अरशद
(एस.टी.एस.स्कूल (मिंटो सर्किल), ए.एम.यू.,अलीगढ़
नोट: भारत सरकार ने हाल ही में ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव ‘ कार्यक्रम के तहत मगफुर ऐजाज़ी का नाम भारत के गुमनाम स्वतत्रंता सेनानी की लिस्ट मे डाला है .
मगफुर ऐजा बिहार ज़ी (1900-1966) का नाम उस समय प्रकाश में आया,जब 1997 में नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय(NMML), नई दिल्ली ने अपने अनुसंधान अधिकारी के माध्यम से मगफुर ऐजाज़ी से सम्बंधित दस्तावेज प्राप्त किए। उन पेपर्स ने अचानक कई लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया और लोगों को याद दिलाया कि आज़ादी के बाद की अवधि में उर्दू बोलने वाले अल्पसंख्यकों के शैक्षिक उत्थान के लिए लड़ने के अलावा,ऐजाज़ी भारत की आज़ादी के लिए संघर्ष करने वालों में एक प्रमुख व्यक्ति थे। द टाइम्स ऑफ इंडिया(15 अगस्त 1992, पटना) ने उनके बारे में लिखा था, “इतिहास उनके प्रति निर्दयी रहा है। एक व्यक्ति जिसने अली ब्रदर्स, मौलाना आजाद, सी. राजगोपालाचारी जैसे दिग्गजों के साथ आज़ादी के लिए संघर्ष किया और यातनायें सही,उनको 1947 के बाद, समकालीनों द्वारा,शायद ही उनकी सराहना की गई”।
3 मार्च 1900 को मुजफ्फरपुर (बिहार) के सकरा थाने के एक गाँव डिहुली [डेउढ़ी बुज़ूर्ग] में जन्मे, ऐजाज़ी एक अमीर किसान हफीजुद्दीन के बेटे थे, जिन्होंने यूरोपीय निहले के खिलाफ किसानों को संगठित किया था। ऐजाज़ी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मौलवी मेहदी हसन की देखरेख में मदरसा इमदादिया, दरभंगा और नॉर्थब्रुक जिला स्कूल, दरभंगा से प्राप्त की। उन्होंने उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के लिए छात्रों को संगठित और लामबंद किया था, जिसके लिए उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया था। बाद मे पूसा हाई स्कूल (समस्तीपुर) से मैट्रिक पास किया और बी एन कॉलेज,पटना में प्रवेश मिला।
स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़ना (1921)
औपनिवेशिक शैक्षणिक संस्थानों का बहिष्कार करने के लिए, 1921 में वह असहयोग आंदोलन में कूद पड़े, इस काम में उनके साथ प्रजापति मिश्र और खलील दास चतुर्वेदी भी थे। इसके बाद वह अली बंधुओं के और करीब आ गये,और मौलाना आज़ाद सुभानी,अब्दुल माजीद दरियाबादी आदि के साथ, वह सेंटरल खिलाफत कमेटी के संस्थापकों में से एक थे। 1921 में वे मुज़फ्फरपुर जिला कांग्रेस कमेटी के सदस्य बने,और मुज़फ्फरपुर की सकरा थाना कांग्रेस कमेटी की स्थापना की,साथ ही कांग्रेस की थाना इकाई के सचिव भी रहे। जैसा की कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन (दिसंबर 1920) ने कांग्रेस की जिला और निचली इकाइयों को स्थापित करने का निर्णय लिया था।
जैसे-जैसे उपनिवेश विरोधी संघर्ष तीव्र होता जा रहा था और दूरदराज के ग्रामीण इलाकों में फैल रहा था, औपनिवेशिक राज्य बहुत सतर्क और दमनकारी हो चला था। फलतः 11 दिसंबर 1921 को पुलिस ने सकरा थाना कांग्रेस के कार्यालय पर छापा मारा और मगफुर ऐजाज़ी के खिलाफ एक मामला दर्ज किया गया। तब वह हकीम अजमल खान की अध्यक्षता में हुए अहमदाबाद कांग्रेस के एक प्रतिनिधि के रुप में गए थे। इस सत्र में हसरत मोहानी ने “पूर्ण स्वराज” का प्रस्ताव पेश किया,जिसे ऐजाज़ी ने समर्थन दिया था। अखिल भारतीय खिलाफत समिति की भी वहां बैठक हुई थी, जिसमें ऐजाज़ी ने अबादी बानो बेगम (बी अम्मा) से मुलाकात की थी, जिसमें उन्होंने “अंगोरा फंड” के लिए 1,50,000, रुपये जुटाने का आग्रह किया था। तुर्क खलीफा के लिए चल रहे साम्राज्यवादी हमलों के खिलाफ खुद को बचाने के लिए “अंगोरा फंड” बनाया गया था।
ऐजाज़ी इतना लोकप्रिय हो गये थे कि उन्होंने “अंगोरा फंड” में, योगदान के लिए 11000 रुपये जुटाए। सरोजिनी नायडू ने अहमदाबाद में अखिल भारतीय कॉलेज सम्मेलन (1921) की अध्यक्षता की थी, जिसका उद्देश्य उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में शामिल होने के लिए छात्रों के एक स्वयंसेवी दल को खड़ा करना था। इसका जवाब देते हुए,ऐजाज़ी ने अपने “एजाज़ी ट्रूप्स” के साथ कांग्रेस सेवा दल की शुरुआत की,जिसने उत्तरी बिहार में,स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए छात्रों की भर्ती की। उन्होंने अहमदाबाद के साबरमती आश्रम में महात्मा गांधी से भी मुलाक़ात की थी। इस मुलाक़ात ने उन्हें और अधिक ऊर्जा प्रदान किया, और वह लोगों को जुटाने के लिए 1921-24 के दौरान उत्तरी बिहार के गांवों का दौरा करते रहे। इस दौरान उन्होंने स्वयंसेवी वाहिनी, चरखा समितियों और रामायण मंडलियों का गठन किया। उन्होंने मुजफ्फरपुर की कांग्रेस और खिलाफत समितियों के लिए धन जुटाने के लिए एक सात सूत्री कार्यक्रम शुरू किया, जिसने मुजफ्फरपुर के तिलक मैदान में जिला कांग्रेस के लिए जमीन खरीदने में मदद की। खादी के कपड़े बेचने, विदेशी कपड़े जलाने,अन्य विदेशी सामानों का बहिष्कार करने, मुट्ठी भर अनाज प्राप्त करने (मुठिया), दान स्वरुप महिलाओं के गहने,और आंदोलन के लिए नकद रकम,उनकी लामबंदी योजनाओं की कुछ विशेषताएं थीं। ऐसी ही एक जनसभा में उन्होंने अपने पैतृक गांव डिहुली में अपने विदेशी कपड़ों को जला कर विदेशी ताकतों का बहिष्कार किया। इस प्रकार, शफी दाउदी (1875-1949) के अलावा, ऐजाज़ी ही वह लीडर थे जिन्होंने असहयोग आंदोलन के दौरान उत्तरी बिहार के ग्रामीण इलाकों में उपनिवेशवाद विरोधी लामबंदी को लोकप्रिय बनाया, तथा उन्होंने शराब के खिलाफ भी अभियान शुरू किया।
उन्होंने औपनिवेशिक राज्य के खिलाफ विध्वंसक गतिविधियों का एक गुप्त कार्यक्रम (जो की 5 जनवरी 1922 को लागू किया जाना था) बनाया था। लेकिन यह साजिश समय से पहले ही लीक हो गई थी,और उस मामले में उन पर मुकदमा भी चलाया गया था जिसे “डिहुली षड्यंत्र केस” के रूप में दर्ज किया गया। गया में हुए कांग्रेस अधिवेशन (1922) में ऐजाज़ी ने सी.आर. दास से मुलाकात की, और उन्होंने, अपनी पत्नी के साथ-साथ अपने ससुर सह मामा की मृत्यु के बावजूद 1923 के नगरपालिका चुनावों में कांग्रेस उम्मीदवारों के लिए जोरदार चुनावी अभियान चलाया। वह मोहम्मद अली जौहर और बी अम्मा के बहुत करीब हो गए। मुजफ्फरपुर से बनारस तक लोगों को लामबंद करने में लगे रहे,और मोहम्मद अली जौहर की अध्यक्षता में, काकीनाडा में हुए कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया। मौलाना आज़ाद की अध्यक्षता में कांग्रेस के एक विशेष सत्र (1923) में,उन्होंने बिहार के प्रतिनिधियों को अग्रिम पंक्ति में सीट नहीं दिए जाने के कारण, बैठने की व्यवस्था,के विरोध में अपनी क्षेत्रीय देशभक्ति का प्रदर्शन किया। स्वभाभिक ही उनका विरोध बिहारियों के स्वाभिमान के मुद्दे पर था।
ऐजाज़ी कांग्रेस के प्रो-चेंजर विंग (जिसमें सी.आर. दास और मोती लाल नेहरू थे) के साथ गए। उन्होंने रियासतों के लोगों के लिए आत्मनिर्णय के अधिकार को लेकर,केलकर के प्रस्ताव का समर्थन किया था। वहां से दिल्ली होते हुए वह बदायूं गए और एक सूफी,ऐजाज़ हुसैन को श्रद्धांजलि दी और अपने नाम के साथ ऐजाज़ी जोड़ा। वापसी पर उन्होंने मोतिहारी में कांग्रेस और खिलाफत की बैठकों में भाग लिया। 1924 में उन्होंने जिला बोर्ड चुनाव लड़ा, उसी वर्ष पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया क्योंकि उन्होंने पूर्णिया जिले में प्रवेश करने के खिलाफ सरकार के निषेधाज्ञा का उल्लंघन करते हुए किशनगंज (अब्दुल बारी (1882-1947) की उम्मीदवारी के लिए उपचुनाव में प्रचार किया) में एक जनसभा को संबोधित किया था।
28 जुलाई 1924 को, मोहम्मद अली जौहर के निर्देश के बाद वे कलकत्ता चले गए और खिलाफत समिति के कार्यालय का कार्यभार संभाला,और वहां वे सुभाष चंद्र बोस के संपर्क में आए, जो छात्रों को जुटाने में लगे हुए थे। कलकत्ता में अपने प्रवास के दौरान, ऐजाज़ी ने नारकुल डांगा में एक मस्जिद का निर्माण किया,जो अब भी मौजूद है। मद्रास कांग्रेस सत्र (1927) में, उन्होंने एमए अंसारी से मुलाकात की,जिन्होंने सत्र की अध्यक्षता की थी, जो साइमन कमीशन (1928) का बहिष्कार करने में सबसे आगे थे। उस समय वह खिलाफत समिति के सचिव थे। उन्होंने नेहरू रिपोर्ट (1928) पर अपना असंतोष व्यक्त किया, और शफी दाउदी के साथ वे अहरार पार्टी (1929) में शामिल हो गए, जो मुस्लिम लीग की सांप्रदायिक अलगाववादी राजनीति के विरोध में थी। ऐजाज़ी अहरार पार्टी के सचिव और दाउदी अध्यक्ष बने। 1930 में उन्होंने नमक सत्याग्रह के लिए लोगों को लामबंद किया, शराब के खिलाफ अभियान चलाया, और सामाजिक सुधार को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ा। 1920 के दशक के बढ़ते सांप्रदायिक तनाव से नाराज होकर, 1931 में उनका कुछ झुकाव खाकसार की ओर हुआ। 15 जनवरी 1934 को हुए भूकंप आपदा में, ऐजाज़ी ने राहत कार्य में हिस्सा लिया।
*लीग के दो-राष्ट्र सिद्धांत का विरोध,1940-47*
23 मार्च 1940 को लाहौर अधिवेशन में मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए अलग राज्य की मांग करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया। ऐजाज़ी ने अपनी जमहूर मुस्लिम लीग शुरू करके इस धार्मिक द्वि-राष्ट्रीय राष्ट्रवाद के खिलाफ, अपनी राजनीति पर जोर दिया, जिसका भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान कांग्रेस में विलय हो गया। 1941 में वे व्यक्तिगत नागरिक अवज्ञा में शामिल हुए और सकरा के लोगों को लामबंद किया,जहां पुलिस को लाठीचार्ज का सहारा लेना पड़ा,जिससे ऐजाजी घायल हो गए। उनके बेटे की मृत्यु 24 जुलाई 1942 को हो गई थी, फिर भी इस व्यक्तिगत क्षति से निडर होकर वे भारत छोड़ो आंदोलन (अगस्त 1942) में सबसे आगे रहे। उसके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया, पुलिस ने उसके घर पर छापा मारा, हालाँकि उन्होंने अपना संघर्ष भूमिगत रूप से जारी रखा, अंततः गिरफ्तार कर सलाखों के पीछे डाल दिया गया। रिहा होने पर उन्होंने यूरोप में फासीवाद के बढ़ते खतरे के बारे में ग्रामीण लोगों को शिक्षित करने के लिए एक अभियान, “सांस्कृतिक सम्मेलन” चलाया।
“पाकिस्तान” के खिलाफ उनके लोकप्रिय आंदोलन को, मुस्लिम लीग के लोगों द्वारा व्यंग्यात्मक नारों, जिनमें किशोर कार्यकर्ता समूहों में उनके घर आते थे और “ऐजाज़ी! ग़दर-ए-क़ौम” कहते और उनके घर के दरवाजे पर थूकते थे। उन्होंने मुजफ्फरपुर शहर में कुछ लोगों की एक टीम बनाई, ताकि मुसलमानों को, लीग की राजनीति का शिकार न होने के लिए राजी करने के लिए घर-घर अभियान चलाया जा सके।
*उर्दू का मुद्दा उठाना*
1862 के बाद, बिहार में औपनिवेशिक राज्य की सहायता से नागरी आंदोलन के समर्थकों द्वारा तेजी से उर्दू का हाशिए पर आ जाना एक तय तथ्य बनता जा रहा था, और जहां 1880 में उर्दू ने लगभग लड़ाई हार चुकी थी। फिर भी, 20 वीं शताब्दी में भाषा और उसकी लिपि को बचाए रखने के कुछ प्रयास किए गए थे। 1918 में, ज़मीरुद्दीन (1862-1921) और महमूद शेरे ने अंजुमन तरक्की उर्दू, बिहार शाखा (1903, अलीगढ़ में स्थापित) की स्थापना ह्यूग लाइब्रेरी (पटना) में की थी। बाद में क़ाजी अब्दुल वदूद (1896-1984) ने इसे बांकीपुर में स्थानांतरित कर दिया और इसे लोकप्रिय और गतिशील आंदोलन बना दिया। अक्टूबर 1936 में, अब्दुल हक ने पटना के अंजुमन-ए-इस्लामिया हॉल में उर्दू सम्मेलन की अध्यक्षता की, जिसमें शफी दाउदी और मगफूर एजाज़ी जो अंजुमन तरक्की उर्दू की बिहार शाखा के उपाध्यक्ष बने,ने अन्य लोगों के साथ, विशेष रूप से भाग लिया।
1929 में, उर्दू के नायकों ने एक रियायत प्राप्त की थी कि प्रायोगिक आधार पर सरकार द्वारा पटना के कमिश्नर डिवीजन में उर्दू लिपि के उपयोग की अनुमति दी जाएगी। 27 मई 1937 से,
उर्दू के लिए सम्मेलन (जलसा) पहले पटना में आयोजित किए गए, उसके बाद ग्रामीण बिहार में एक हजार से अधिक ऐसे लामबंदी अभियान चलाए गए। जून 1937 में, बिहार के पहले प्रधान (मुख्यमंत्री, अप्रैल-जुलाई 1937) मोहम्मद यूनुस (1884 1952) ने सरकारी कार्यालयों में उर्दू लिपि के उपयोग की अनुमति दी थी। उनके मंत्रालय ने _’मेल मिलाप’_ नामक एक द्विभाषी (उर्दू / हिंदी) पत्रिका भी निकाली, और उर्दू की सुरक्षा (तहफ्फुज) के लिए विधानसभा में एक विधेयक भी पारित किया। 28 अगस्त 1938 को पटना विश्वविद्यालय के व्हीलर सीनेट हॉल में राजेंद्र प्रसाद (नागरी प्रचारिणी सभा के तत्कालीन अध्यक्ष) और अब्दुल हक (बाबा-ए-उर्दू) के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए, जहां गांधी के “हिंदुस्तानी” ज़बान का प्रस्ताव रखा, और उर्दू-हिंदी के बढ़ते अंतर को कम करने के लिए उर्दू-नागरी लिपियों के इस्तेमाल पर सहमति बनी। 1940 में उर्दू साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए पटना विश्वविद्यालय में दायरा-ए-अदब (साहित्यिक मंडल) का गठन किया गया। 1941 में, पटना में फिर से “राजेंद्र-हक पैक्ट” पर जोर देने के लिए एक जन रैली बुलाई गई, जिसमें लोगों ने बड़े पैमाने पर भाग लिया। 6 से 8 जुलाई 1945 को मुजफ्फरपुर का तिरहुत उर्दू सम्मेलन, मुख्य रूप से बेताब सिद्दीकी और ऐजाज़ी द्वारा आयोजित किया गया। इतनी भारी प्रतिक्रिया से उत्साहित होकर अब्दुल हक ने तो
1946 में एक उर्दू विश्वविद्यालय तक की मांग कर दी।
उर्दू से उनके जुड़ाव के कारण, आज़ादी के बाद,यह बड़े उद्देश्यों की पूर्ति के लिए चलाया गया। आज़ादी के तुरंत बाद, उन्होंने कांग्रेस सरकार से विभाजन के बाद के पस्त मुसलमानों के लिए निम्नलिखित मांगो को सुनिश्चित करने का आग्रह किया: (i) मुसलमानों का कम प्रतिनिधित्व, विशेष रूप से पुलिस और सेना में, को देखा जाना चाहिए (ii) उर्दू को स्थानीय आबादी की भाषा के रूप में होना चाहिए और इसे प्रासंगिक विशेषाधिकार दिए जाने चाहिए, (ii) प्रत्येक जिले में एक शिक्षक प्रशिक्षण कॉलेज होना चाहिए, (iv) मौलवी को उर्दू मकतबों का निरीक्षण करने के लिए नियुक्त किया जाना चाहिए (जैसा कि यह औपनिवेशिक काल के दौरान था), (v) मुस्लिम शिक्षा के मुद्दे को देखने के लिए विशेष अधिकारी नियुक्त किया जाना चाहिए, (vi) लड़कों के साथ-साथ लड़कियों के लिए भी उर्दू प्राथमिक विद्यालय होना चाहिए, (vii) प्रत्येक हाई स्कूल और कॉलेज में उर्दू साहित्य के शिक्षक होने चाहिए, ( viii) स्कूल की पाठ्य पुस्तकों के उर्दू अनुवाद उपलब्ध कराए जाने चाहिए, (ix)
मिडिल क्लास स्कूल परीक्षाओं में फारसी एक वैकल्पिक भाषा होनी चाहिए, (x) सभी स्कूल परीक्षाओं के प्रश्न पत्रों के उर्दू अनुवाद उपलब्ध कराए जाने चाहिए, (xi) सभी सरकारी कार्यालयों और न्यायिक अदालतों को अपने रिकॉर्ड उर्दू भाषा में भी सुरक्षित रखना चाहिए, और उर्दू पत्रों/आवेदनों के उत्तर उर्दू में भेजे जाने चाहिए (xii) सरकारी कार्यालयों, सड़कों, रेलवे आदि के साइन बोर्ड/नेम प्लेट नागरी और अंग्रेजी के अलावा उर्दू में भी होने चाहिए।
उपरोक्त मांगों को लोकप्रिय बनाने के लिए उन्होंने ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर पैम्फलेट का वितरण किया, और जन अभियान चलाया, जिसमें उन्होंने इस तथ्य पर खेद व्यक्त किया कि मुफ्त अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का प्रावधान नहीं है, और मांग की कि वहाँ एक विशेष जनगणना आयोजित की जाए और बिहार के संबंधित गांवों में उर्दू स्कूल खोला जाना चाहिए। यह अभियान “बिहार मुस्लिमक शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक उत्थान” के लिए एक संगठन के माध्यम से जारी रखा गया था। इस संगठन ने जोर देकर कहा कि जहां कहीं भी 40 छात्र उर्दू को मातृभाषा के रूप में रखते हैं, वहां सरकार द्वारा उर्दू शिक्षण का आवश्यक प्रावधान किया जाना चाहिए। 1950 और 1960 के दशक की शुरुआत में उन्होंने उर्दू के लिए इस आंदोलन को जारी रखा। ऐसी मांगों को रखने के लिए, 4 जुलाई 1961 को पटना में, उन्होंने केंद्र सरकार के भाषाई अल्पसंख्यक आयुक्त से भी मुलाकात की। इस उद्देश्य के लिए उन्होंने लोगों से संबंधित जिला शिक्षा अधिकारियों (डीईओ), और जिला शिक्षा अधीक्षकों (डीएसई) को पत्र लिखने की भी अपील की, और उन्होंने इस उद्देश्य के लिए लोगों से आग्रह किया कि वह उन आवेदनों की एक प्रति संगठन के रिकॉर्ड के लिए भी भेजी जानी चाहिए। ऐसा कहा जाता है कि मुख्य रूप से उनके प्रयासों के कारण ही, बिहार सरकार द्वारा मुजफ्फरपुर के तत्कालीन जिले में मुस्लिम बहुल विभिन्न गांवों में कम से कम 15 उर्दू स्कूल (मुजफ्फरपुर शहर के सरैयागंज के मखदुमिया उर्दू मिडिल स्कूल सहित) खोले गए थे,जिसमें वैशाली, सीतामढ़ी और शिवहर भी शामिल थे।
इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उन्होंने पहले 3-4 दिसंबर 1960 को मुजफ्फरपुर में और फिर 4-5 जून 1966 को सीवान (सारण) में जन सभा का आयोजन किया, जहां उन्होंने एक घोषणा की, कि आगामी विधानसभा चुनाव (1967) में उर्दू का मुद्दा एक चुनावी मुद्दा होगा। एस.एम. अय्यूब (1910-64) ने 1962 के चुनाव में कांग्रेस सरकार (1961-63) के तत्कालीन मुख्यमंत्री बिनोदानंद झा (1900-1971) के खिलाफ चुनाव लड़ने की धमकी देकर इसे पहले ही चुनावी मुद्दा बना चुके थे।
ऐजाज़ी के कड़ी मेहनत की बाबत बिहार विश्वविद्यालय के विभिन्न कॉलेजों में उर्दू साहित्य में बीए (ऑनर्स) और एमए पाठ्यक्रम शुरू करने में सफल हो सके, और वे बिहार विश्वविद्यालय के पटना मुख्यालय को मुजफ्फरपुर में स्थानांतरित करने के लिए आंदोलन के संयोजक भी रहे, जिसमें हिन्दी के साथ समानता की मांग की गई थी। वे उर्दू कोटे पर विश्वविद्यालय के सीनेट में मनोनीत सदस्य होने में भी सफल रहे।
संक्षेप में, उन्होंने उर्दू को सरकारी नौकरी से जोड़ने की राजनीति में खुद को शामिल कर लिया।
*ए.एम.यू के अल्पसंख्यक चरित्र के लिए लड़ाई, 1965*
1965 में, उन्होंने ए.एम.यू के अल्पसंख्यक चरित्र के लिए जिले में एक आंदोलन का नेतृत्व किया, और मई 1965 में तत्कालीन केंद्रीय शिक्षा मंत्री एम.सी. छागला के खिलाफ बड़े पैमाने पर प्रदर्शन शुरू किया, और ऐजाज़ी ने लोगों से 16 जुलाई 1965 को ‘अलीगढ़ [मुस्लिम विश्वविद्यालय] दिवस’ के रूप में मनाने का आग्रह किया”।
*आजादी के बाद कांग्रेस ने उन्हें अलग-थलग कर दिया*
नवंबर 1961 में उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी थी और स्वतंत्र पार्टी में शामिल हो गए,वह पार्टी के एक दुर्जेय उम्मीदवार के रूप में मुजफ्फरपुर से 1962 का लोकसभा चुनाव लड़ा था। ऐसा कहा जाता है कि मुजफ्फरपुर जिले में आम तौर पर बढ़ते कांग्रेस विरोधी मूड (समाजवादियों के उदय के कारण) को देखते हुए [दिसंबर 1957 में, सीतामढ़ी लोकसभा से,आचार्य जे.बी. कृपलानी (1888-1982) जीते थे, कांग्रेस प्रत्याशी चौथे स्थान पर आए थे, और बाद में विधानसभा उपचुनाव में, मुजफ्फरपुर में एक पीएसपी उम्मीदवार ने कांग्रेस उम्मीदवार को हराकर जीत हासिल की थी, अशोक मेहता (1911-84), ने दिसंबर 1957 में मुजफ्फरपुर लोकसभा उपचुनाव से कांग्रेस को हराया था] इस बाबत इंदिरा गांधी को मुजफ्फरपुर में कांग्रेस के लिए विशेष अभियान चलाना पड़ा, अपने भाषणों में उन्होंने सांप्रदायिक आधार पर वोटों का ध्रुवीकरण करने का प्रयास किया। नतीजतन, ऐजाज़ी हार गए,भले ही उन्होंने 58 हजार वोट हासिल किए।
ऐजाजी का व्यक्तित्व बहुआयामी था। एक हद तक एक प्रतिष्ठित उर्दू कवि होने के अलावा, वह मुजफ्फरपुर नगरपालिका (1952-58) के अध्यक्ष भी थे, और ट्रेड यूनियनों के बिजली आपूर्ति कर्मचारियों, मोतीपुर चीनी मिल,आर्थर बटलर रेल वैगन वर्कशॉप, रिक्शा चालक संघ का भी नेतृत्व किया। साथ ही उन्होंने उत्तर बिहार रेलवे कर्मचारी संघ की स्थापना की थी, जिसके वे अध्यक्ष थे। 1948-51 तक जमीयत-उल-उलेमा की मुजफ्फरपुर शाखा में सेवा देने के अलावा, मुजफ्फरपुर स्पोर्ट्स एसोसिएशन के सचिव भी थे।
इस प्रकार,ऐजाज़ी का स्वतंत्रता आंदोलन में,और स्वतंत्रता के बाद के भी, उर्दू को सरकारी रोजगार से जोड़ने के लिए मजबूत जमीनी अभियान चलाने में, और न केवल ‘अल्पसंख्यक विशिष्ट’ से इतर बल्कि ट्रेड यूनियनवाद के साथ उनकी भागीदारी,और भारत के बहुलवादी लोकतंत्र को मजबूत करने की दिशा में कुछ महत्वपूर्ण योगदान हैं।
[यह लेख प्रो. मोहम्मद सज्जाद की पुस्तक _’Remembering Muslim Makers of Modern Bihar’_ (2019) के एक अंश का हिंदी अनुवाद है]