शाहनवाज़ बदर क़ासमी
बिहार विधानसभा चुनाव ज्यों ज्यों निकट आ रहे हैं बिहार का सियासी मंज़रनामा भी बदलता जा रहा है। इस चुनाव में सबसे अधिक भ्रमित मुस्लिम मतदाता हैं क्योंकि 2015 के विधानसभा चुनाव में मुसलमानों ने एकजुट होकर महागठबंधन को जिताने का काम किया था लेकिन इस बार जदयू और आरजेडी के आपसी मतभेद के बाद बिहार का सियासी मन्ज़रनामा बदल चुका है और अभी तक यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि किस पार्टी का राजनीतिक भविष्य उज्जवल होने वाला है।
जो स्थिति यहाँ की है वही उधर की भी है, चुनाव से पूर्व मतभेद कोई नयी बात नहीं है लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि एनडीए का महत्वपूर्ण अंग माने जाने वाले रामविलास पासवान की पार्टी ने अपने तेवर दिखाना शुरू कर दिया है जो इस बात का संकेत है कि एनडीए में सब कुछ ठीक नहीं है और उन्हें भी हार की चिन्ता सताने लगी है। भले ही नीतीश कुमार ने एक सफल मुख्यमंत्री की पहचान बनाने में सफलता प्राप्त कर ली है लेकिन अपने विचारों और वायदों को लेकर वे केवल संदिग्ध ही नहीं बल्कि अविश्वसनीय भी हो गए हैं। भाजपा से मिलने के उपरान्त अनेक अवसरों पर उनकी नीतियों और निर्णयों से अनुमान लगाया जा सकता है कि वे मुख्यमंत्री बने रहने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। उनके लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी महत्वपूर्ण है। पार्टी का चुनावी घोषणा पत्र, एजेंडा और विचारधाराएं मायने नहीं रखती हैं। बिहार में इस समय दो विचारधाराओं के लोग हैं एक मोदी समर्थक और दूसरे सेक्युलर। इस चुनाव में इन्हीं दोनों के बीच ही हार जीत की लड़ाई है। विधानसभा चुनाव से पहले मौसमी दलों की लाइन लग चुकी है। प्रत्येक पार्टी अपनी जीत का दावा कर रही है। एनडीए, गठबंधन और अब तीसरे मोर्चे में कौन-कौन सी पार्टियां शामिल हैं यह बहुत महत्वपूर्ण है। जब तक इन राजनीतिक दलों के बीच गठबंधन स्पष्ट न हो जाये तब तक कुछ भी कहना जल्दबाज़ी होगी। बिहार में चार प्रमुख पार्टियों, राजद, जदयू और भाजपा व कांग्रेस के साथ कई महत्वपूर्ण नेता मिलकर तीसरे मोर्चे पर कड़ी मेहनत कर रहे हैं। इसमें कई क्षेत्रीय दलों को एक साथ लाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या यह विचार सफल हो सकेगा? क्योंकि बिहार का सियासी मन्ज़रनामा सभी के सामने है और सभी की निगाहें मुस्लिम और दलित मतदाताओं पर हैं। ऐसे में तीसरा मोर्चा जिसका नेतृत्व यशवंत सिन्हा कर रहे हैं जिसमें मांझी, अशफ़ाक़ रहमान, पप्पू यादव, मजलिस, एसडीपीआई समेत कई दलों को जोड़ने का प्रयास हो रहा है। तीसरा मोर्चा एक राजनीतिक नीति के अनुसार भी हो सकता है जिसका एकमात्र उद्देश्य सेक्युलर वोट को विभाजित करना है। अभी बिहार विधानसभा चुनाव का समय है। ऐसी परिस्थितियों में हम बिहार के मुसलमानों और आम मतदाताओं से कहना चाहेंगे कि समय से पहले निर्णय लेना समझदारी नहीं है, सही समय पर सही निर्णय लेना है। जिस पार्टी में भाजपा को हराने की क्षमता हो उन्हें जिताने का प्रयास करना है क्योंकि बिहार विधानसभा चुनाव देश के राजनीतिक भविष्य का निर्धारण करने जा रहा है इसलिए इस बार बिहार के लोगों की ज़िम्मेदारी और जवाबदेही बढ़ गई है कि उन्हें समझदारी से निर्णय लेना है और एक ऐसी सरकार बनानी होगी जिसे बिहार के विकास की चिन्ता हो और वास्तव में काम करने की क्षमता हो। समय से पहले हर बात लिखना और कहना उचित नहीं है।