ब्रह्मलोक में देवर्षि नारद गम्भीर चिन्तन की मुद्रा में हैं। बार-बार सोचते-विचारते नारद भूलोक के बारे में कुछ स्वकथन आलाप रहे हैं। अरे! आजकल दुनिया में कोई महामारी फैली हुई है। ओह!! ऐसी छूत की बीमारी पहले कभी नहीं हुई। चिन्तन की ऊहापोह में ऋषिश्रेष्ठ, ब्रह्मा जी के ध्यानकक्ष में प्रविष्ट होते हैं। ब्रह्मा जी के ध्यानस्थ होने के बारे में नारद सोचते हैं- अरे! यह तो सृष्टि के सर्जक हैं। इनकी चिन्तन-शैली अवश्य जीवन-सापेक्ष है। विश्व में फैली महामारी और जनता के ध्वंस के सम्बन्ध में नारद ध्यानस्थ ब्रह्मदेव के मुख-मण्डल की ओर निर्निमेष भाव से टकटकी लगाए हैं। तभी ब्रह्मदेव का ध्यान सहसा खुल जाता है। ब्रह्मदेव को देखते ही नारद साष्टांग दण्डवत् करते हैं। यथायोग्य आसन पर नारद को बैठने का ब्रह्मदेव निर्देश देते हैं। तभी नारद जी बोल पड़ते हैं –
“ब्रह्मदेव! आप की सृष्टि में मानवता चीत्कार कर रही है, लोग किसी विषाणु के प्रकोप से भयाक्रान्त हैं। अनुदिन सैकड़ों की संख्या में मनुष्य काल कवलित हो रहे हैं। आप सृष्टि में हो रहे इस विषाणुरूपी असुर का संहार कीजिए।”
ब्रह्मदेव नारद की मनःस्थिति को भाँप कर उच्छ्वसित स्वर में कह उठते हैं-‘‘नारद! तुम तत्त्वज्ञ हो, जरा सोचो। प्राकृतिक शक्तियाँ सभी के लिए सम हैं। सविता का तेजोमय आलोक सम्पूर्ण सृष्टि के लिए गुणों का भण्डार है। अग्नि का धर्म-जलाना है। जल का धर्म-शीतलता-प्रदायक है। पृथिवी का धर्म-धारण करने से है, इसलिए इस का नाम ‘धरित्री‘ भी है। मनुष्य जो भी कर्म करता है, उसे उसका भोक्ता बनना ही है। आज विश्व का मानव उद्धत अहंकार से परिचालित है। ऐसे में वह न विज्ञान का उपासक है और न ही अध्यात्म का।‘‘
नारद-‘भगवन! आपने मेरा मार्ग-दर्शन कर मुझे धन्य किया है। क्या कर्म और क्रियाएँ एक ही हैं। या इनमें अन्तर है ?
ब्रह्मदेव स्थितप्रज्ञ होकर कह उठते हैं –
‘‘नारद! तुम्हारी प्रज्ञादायिनी मेधा तत्त्वदर्शिनी रही है। कर्म और क्रिया का पार्थक्य समझना तुम्हारे जैसे सुधी ब्रह्मर्षि का ही औदात्य है। मस्तिष्क से जो हम विचार-चिन्तन करते हैं, वह ‘कर्म‘ की ही श्रेणी है। कर्म अनन्त हैं, क्योंकि उनका स्वामी ‘मन‘ मननशील है। इसलिए हमारे चिन्तन की वृत्तियाँ ही हमें फल प्रदान कराती हैं। दूसरी ओर ‘क्रिया‘ की शक्ति सीमित हैं। वह कर्म के समकक्ष नहीं है। मनुष्य की चिन्तन-क्षमता ही उससे उचित कार्य और अनुचित कार्य कराती है। हमारे शरीर की शक्ति सीमित है, किन्तु मन की शक्ति अपरिमित है।‘‘
नारद-”भगवन्! मुझे बोध हुआ कि कर्म का कुफल और सुफल भोगना आवश्यक है। आपने मेरा ध्यान दार्शनिक सिद्धान्तों की सूक्ष्म ऋजुता से जोड़ा है। मुझे जीवधारियों में श्रेष्ठ मानव के विनष्ट होने की चिन्ता है। संसार में हो रहे उचित-अनुचित के बारे में आपने मुझे टिप्पणी करने का अधिकार प्रदान किया है। अतः विश्वभर में फैल रही मनुष्यघातिनी महामारी से मानवता को मुक्ति प्रदान कराने के लिए मैं आपसे निवेदन करता हूँ।‘‘
तभी ब्रह्मदेव अपने योग-बल से चमगादड़, चूहे, सर्प आदि के सूक्ष्म शरीरों में वाणी की आद्या-शक्ति संस्थापित कर देते हैं। उन सूक्ष्म शरीरों की आकृतियाँ सघन होने लगती हैं। तभी चमगादड़ की अधिष्ठात्री देवी आर्त्तनाद करने लगती है-
‘‘भगवन! पर्यावरण-शोधन के लिए आपने हमारी रचना की तथा सृष्टि के विकास में योगदान करने को कहा! ऐसा कभी-कहीं देखा-सुना गया है कि मनुष्य हमारे जूस और अस्थि-मज्जा से आनन्दित होवे। इस संसार में चीन देश में हमारा रस निकालकर मनुष्य अपना पेय बना रहा है। हमारे पास भी कोरोना वायरस के सूक्ष्म जीव हैं, जो संक्रामक महामारी के कारक हैं। जब हमारा विनाश हुआ, तो हमने कोरोना वायरस को वुहान शहर में फैला दिया। आज वहीं से यह महामारी का रूप ले चुका है। यह हम चमगादड़ों का शापित प्रतिशोध है।‘‘
ब्रह्मदेव सब समझ रहे हैं। तब नारद चमगादड़ सी सूक्ष्म आकृति से कहते हैं-‘‘देवि! जब वुहान (चीन) से तुमने प्रतिशोध लिया, तब यह महामारी दुनिया में क्यों फैल रही है ?‘‘
आकृति-देवी बोली – ऋषिवर! वैश्विक महामारी हमने नहीं फैलाई। यह पापी दुरात्माओं ने फैलाई। जैसे एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है, वैसे ही कुछ दुरात्माओं ने हमें आहार बनाया। तब हमने भी अपने वायरस की शक्ति से उन्हें आघातित किया। उन्हीं दुरात्माओं ने इसे वैश्विक महामारी बनाया है।‘‘
चमगादड़ की आकृति अन्तर्धान हुई। तभी सहसा सर्पों की सूक्ष्म आकृतियाँ अवतीर्ण हुईं और बोलीं-‘‘देवर्षि! आप सबके प्रति समता का सन्देश देते आए हैं। भगवान शंकर तक ने हमें अपनी गल-माला में स्थान दिया है। पर्यावरण-संरक्षण में हमने भी सब कुछ दाँव पर लगा दिया है। इसके बावजूद चीनी नागरिक हमें जिन्दा खा जाते हैं। क्या यह हमारी सर्प-प्रजाति के साथ अन्याय नहीं है।‘‘
नारद हतप्रभ हैं। तभी सहसा चूहों की आकृतियाँ सामने आ खड़ी हुई। बोलीं-‘‘देवर्षि! हमारा क्या दोष था। हम तो ब्रह्मदेव की आज्ञानुसार पर्यावरण के बचाव में काम करते रहे हैं। इसके बाद भी हमारी प्रजाति खतरे में है। चीन के लोग हमारा भक्षण कर रहे हैं।‘‘ यह सुनने के बाद नारद ठगे-से, सहमे-से, शंकित-से, अनमने-से, आँख बन्द कर लेते हैं। सूक्ष्य आकृतियाँ विलुप्त हो गई हैं। तब ब्रह्मदेव ने नारद से कहा-‘‘ऋषिश्रेष्ठ! तुम्हें तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर मिल गया। अब तुम्हीं बताओ विश्व में इस समय फैल रही कोरोना महामारी का कारण देव-संस्कृति है या दनुज-संस्कृति। मनुष्य अपने किए कर्मों की सजा खुद ही झेल रहा है।‘‘ स्वीकृतिसूचक शैली में नारद खुद ही सिर हिला रहे हैं। नारद अन्यमनस्क-भाव से सिहर उठते हैं। उनका सारा तत्त्व-ज्ञान सूक्ष्म आकृतियों के समक्ष तिरोहित हो गया है।ब्रह्मलोक में नारद की दिव्य प्रज्ञा इसलिए कुण्ठित हो रही है कि आज उन्हें मानव-सभ्यता की वीभत्स सच्चाई का पता लग गया है। अब उन्हें कोरोना वायरस के प्रकोप का कारण समझ में आ गया है। अपनी प्रज्ञावान् वाणी से नारद पुकार रहे हैं-‘‘प्राण ही सर्वश्रेष्ठ है।‘‘
डॉ. अंजना सिंह सेंगर
साहित्यकार
प्रबंधक- स्कूल एवं महाविद्यालय
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