हिन्दी अनुवाद नूरुज्जमा अरशद एस0टी0एस0 स्कूल (मिंटो सर्कल), ए०एम०यू० अलीगढ़
आज दरभंगा बिहार के जिलों में से एक है, और इसका मुख्यालय भी इसी नाम से ज्ञात शहर दरभंगा में स्थित है। 1857 तक यह तब के गठित तिरहुत सरकार का हिस्सा था।
इस लेख का उद्देश्य इस बात की जांच करना है कि उस स्थान (दरभंगा) का नाम कैसे पड़ा था।
दरभंगा जिले के गजेटियर में इस सम्बन्ध में कुछ प्रकाश डाला गया है। जिसमें यह कहा गया है- “इसका नाम मुख्य शहर के नाम पर खा गया है, और स्वदेशप्रेम जोर देकर कहती है कि दरभंगा दूरा बंगा (द्वार-बंगा?) या दर-ए-बंगाल से व्युत्पन्न है जिसका अर्थ ‘बंगाल का दरवाजा’ है। हालांकि यह व्युत्पत्ति के अनुसार असंभव और ऐतिहासिक दृष्टि से भी गलत है। क्योंकि बंगाल और बिहार के बीच विभाजन हमेशा पूर्व की तुलना में बहुत अधिक रहा है। इसकी प्रबल संभावना है कि यह नाम शहर के पारम्परिक संस्थापक एक मुस्लिम आक्रमणकारी ‘दरभंगी खां के नाम पर रखा गया हो, जिसके बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।
शहर के पारम्परिक संस्थापक दरभंगी खाँ कौन थे? इसकी स्थापना कब हुई थी? इस सम्बन्ध में हमारे पास साक्ष्यों का आभाव है। इस नाम का सबसे पहला उल्लेख 17वीं शताब्दी के एक मैथिली संस्कृत लेखक पंडित गंगानन्द झा (1615-1648) की पुस्तक ‘भृगदूत’ में मिलता है यहाँ तक कि विद्यापति ने सकुरल (आधुनिक सकरी, जो दरभंगा से 12 मील की दूरी पर है) न की दरभंगा का उल्लेख किया है।
भृंगदूत में सदर्भ इस प्रकार है:
(तस्याः पाथ परमविमलं सन्निपीयाभिरामा गारां कामायुद्ध दरभगा राजधानीमुपेयाः । भ्रतर्यस्याः सुरपतिपुरी मूर्द्धवमध्यासितानां सौध श्रेणी हसती ज्योतियां कैतव।)
यह कृति कालिदास के ‘मेघदूत की तर्ज पर है लेखक अपने संदेश को एक भाग (एक बड़ी काली मधुमक्खी) के माध्यम से एक दूर स्थान से अपनी पत्नी के घर सुरिसब भेजता है और उस मार्ग की ओर इंगित करता है जिसका पालन करना है। उस मार्ग से रंग बागमती नदी के किनारे तक पहुॅचता है जैसा कि श्लोक में ‘तस्या उस नदी की ओर इंगित करता है। वह इसे बागमती का शुद्ध पानी पीने और शहर की राजधानी दरभंगा की ओर बढ़ने की सलाह देता है, जो सुन्दर महलों से घिरा है और कामदेव के हथियार की तरह दिखता है। उसका कहना है कि कतार में महलों के ऊपर चमचमाती रौशनी मानों खुद को सवर्ग में होने का आभास करा रही हो।
आज भी दरभंगा शहर बागमती नदी के किनारे पर है, और कवि ने इस तथ्य का उल्लेख किया है कि यह ‘दरभगा’ था न कि दरभंगा। इसकी पहचान करने में किसी प्रकार के शंका की कोई आवश्यकता नहीं है। श्लोको में नाम की भिन्नता को स्वीकार किया जाना चाहिये।
कविता की पंक्ति से पता चलता है कि 17वीं शताब्दी में यह शहर महलों, फूलों से भरा और प्रकाश से जगमगाता एक बहुत ही समृद्ध शहर था। यह उन दिनों इसकी समृद्ध स्थिति को इंगित करता है। लेखक के कविता रचने से पहले उस फलते-फूलते शहर की स्थापना हुई होगी। संभवतः भृगदूत की रचना उस समय हुई होगी जब सरकार-ए-तिहुत
खण्डवाल वंश के सुंदर ठाकुर के हाथों में था यद्यपि यह अनुमान इस तथ्य आधारित है कि पंडित गंगानन्द झा का जीवन उस अवधि को समाहित करता है
जिसमें पुरुषोत्तम ठाकुर, सुंदर ठाकुर और महिषा ठाकुर ने सरकार-ए-तिरहुत पर शासन किया था, वह सुंदर ठाकुर के समय युवाओं के प्रमुख थे। हमें भृंगदूत की रचना का सही समय मालूम नहीं है।
उस समय खण्डवाल वंश के प्रमुखों का केन्द्र दरभंगा नहीं बल्कि ‘भौर थी। हालांकि उस क्षेत्र का एक निवासी अधिकारी हमेशा दरभंगा में तैनात रहता था और खण्डवाल शासकों ने उनके साथ धनिष्ठ सम्बन्ध बनाए रखा था। दरभंगा शहर के पास उनके अपने शिविर थे जो कि वर्तमान मोहल्ला महेशपट्टी, शुभंकरपुर, पुरुषोत्तमपुर, सुन्दरपुर आदि की ओर इंगित करता है। अतः शहर को मुस्लिम संप्रभु के निवासी सुबेदार के संरक्षण में बनाया गया होगा बाद में खण्डवाल वंश के महाराजा माधो सिंह ने खण्डवालों के केन्द्र को स्थायी रूप से दरभंगा स्थानान्तरित कर दिया था।
दरभंगा नाम की उत्पत्ति के बारे में एक प्रशंसनीय सिद्धांत यह प्रतीत होता है कि जब ओइनवार वंश (Oinwra Dynasty) के महाराजा शिव सिंह ने इब्राहिम शाह के साथ एक निर्णायक लड़ाई (1406 या 1416) अपनी राजधानी ‘गजरथपुर के पास लड़ी थी और उसकी सेना को पूरी तरह से पराजित और कुचल दिया गया था। इस स्थान को शिव सिंह की सेना (दल) के टूटने (भगा) लिए दरभंगा’ नाम दिया गया था। आम बोल चाल में शब्द ‘दल’ दादा या दाता बन गया और दादाभंगा से दरभंगा हो गया।
यह भी हो सकता है कि इस युद्ध के पश्चात् इब्राहिम शाह ने अपने सेनापति को ‘दरभंगी खाँ’१ की उपाधि दी हो। ‘शिवधरा जहां यह लड़ाई लड़ी गई थी, गजरथपुर (अब शिवसिंहपुरा कहा जाता है) से केवल 2 मील दूर और बागमती नदी के पूर्व में है अभी भी एक सड़क हाजीपुर से दरभंगा, मुजफ्फरपुर के रास्ते पूर्णिया (अब अररिया) जिले के फारबिसगंज तक जाती है। संभवतः इब्राहिम शाह की सेनाएँ शिवसिंहपुर में अपने विरोधी शिव सिंह से मिलने के लिए
उस मार्ग गुजर रही थीं। जैसा कि डा0 उपेन्द्र ठाकुर ने अपनी पुस्तक ‘मिथिला का इतिहास’ (पू0 318) में लिखा है- “युद्ध का मैदान देखते ही देखते सैनिकों, घोड़ों, हाथियों आदि के सर के विशाल ढेर में परिवर्तित होने के कारण अभिशप्त हो गया। शिव सिंह ने कड़ा विरोध किया किन्तु भाग्य ने अंत में उसका साथ छोड़ दिया। उनके अचानक पतन से एक शानदार युग का अंत हो गया। गजरथपुर के साम्राज्य ने एक जर्जर, सूनापन और उदासी का तमाशा देखा”।
कबरधाट’ यह नाम इस तथ्य की ओर इशारा करती है कि लड़ाई में मारे गए मुस्लिम सैनिकों को वहाँ दफनाया गया था। मारे गए हिन्दू सैनिकों के शरीर भी सम्भवतः दफनाए नहीं गए समय के साथ, हड्डियों के ढेर बन गए और बाद में मिट्टी में मिश्रित हो गये वर्तमान में उस स्थान की पहचान ‘हरही के रूप हुई है। अब दोनों कबरघाट और हरही दरभंगा शहर के मुहल्ले हैं।
मुझे लगता है कि यह सिद्धांत ऐतिहासिक और भौगोलिक दोनों दृष्टिकोण से उचित और विचारने योग्य है।
नोट- मूल लेख अंग्रेजी में कुमार गंगानन्द सिंह द्वारा A Note on the Origin of the name ‘Darbhanga’, के नाम से The Journal of the Bihar Research Society, Vol. 48, 1962 में प्रकाशित हुआ था।