डॉ मुज़फ्फर हुसैन ग़ज़ाली
अनुवाद शहला प्रवीण दिल्ली विश्वविद्यालय
बिहार, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, असम और अन्य राज्यों में भारी बारिश और बाढ़ का सामना कर रही है। NDMI के अनुसार, राष्ट्रव्यापी में एक करोड़ 43 लाख 50 हजार लोग बाढ़ से प्रभावित हुए हैं। जबकि मरने वालों की संख्या 1,100 का आंकड़ा पार कर चुकी है। घायल और बाढ़ में बह जाने वाले इसमें शामिल नहीं है। लाखों लोग आशियाना उजर जाने के कारण राहत केंपो में शरण ली है। करोड़ों रुपये की फसलें नष्ट हो गई हैं। बारिश और बाढ़ ने सबसे ज्यादा तबाही बिहार और आसाम में मचाई है। केवल बिहार में 77 लाख 18 हजार लोग बाढ़ से प्रभावित हुए हैं। कई पुल टूट गए और सड़कें बह गईं। सत्तर प्रतिशत क्षेत्र पानी में डूब गया। बारिश, बाढ़ के कारण डेंगू, मलेरिया, डायरिया जैसी बीमारियां बढ़ गई हैं। ऊपर से कोरोना वायरस का कहर बरपा रहा है।दूसरे शहरों से घर वापस आए श्रमिकों की समस्याएं अलग। लेकिन प्रांतीय सरकार का ध्यान इन मुद्दों के बजाय आगामी चुनावों पर है। बीजेपी-जेडीयू गठबंधन सुशांत की मदद से चुनाव जीतना चाहती है।
भारत कोरोना संक्रमण के 42 लाख मामलों के साथ ब्राजील को पार करने वाला दुनिया का दूसरा देश बन गया है। लॉकडाउन और अनलॉक के बावजूद, प्रतिदिन 90,000 से अधिक नए रोगियों की बढ़ोतरी हो रही है।अगर यह संख्या ऐसे ही बढ़ती रही तो वह दिन दूर नहीं जब भारत कोविड -19 से लड़ने में नाकाम रहने वाला दुनिया का पहला देश बन जाएगा।क्योंकि संकट के समय में, सरकार दिन-प्रतिदिन उदासीनता को नई ऊंचाइयों पर ले जा रही है। इस समय दुनिया भर की सरकार जनता को राहत पहुंचाने का निर्णय ले रही है। व्यवसाय को गति देना हो, रोजगार ना रहने पर वेतन का इंतजाम करना हो, गृहिणी ही मदद हो, या फिर छात्रों की पढ़ाई। हर स्तर पर इस तरह के निर्णय लिए जा रहे हैं। खतरनाक बीमारी के समय में लोगों को भयभीत नहीं हो। बल्कि, अपना जीवन गरिमापूर्ण तरीके से जिएं।लेकिन भारत में लोक कल्याण शायद सरकार की प्राथमिकताओं में है ही नहीं। इसलिए, लॉक डाउन के दौरान सड़क पर आए लाखों श्रमिकों को उनके भाग्य पर छोड़ दिया गया था। देश एक बड़ी मानवीय त्रासदी का गवाह बना, सरकार की उदासीनता का नतीजा था। मरीजों की बढ़ती संख्या पर अब सरकार पूरी तरह से चुप है।
देश पहले ही आर्थिक संकट से गुजर रहा था।कोरोना संक्रमण के प्रसार को रोकने के लिए अचानक देश बंदी ने अर्थव्यवस्था को और कमजोर कर दिया। हुकूमत के फरमानों का चाबुक परा तो वह बिस्तर मरग पर पहुंच गई। 2020 की पहली तिमाही में,संपूर्ण घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 23.9% नकारात्मक दर्ज किया गया था। पिछले 40 वर्षों में जीडीपी इतनी कम कभी नहीं रही। वर्तमान सरकार के पास अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए कोई विजन नहीं है। तभी उसने इसे एक्ट ऑफ गॉड कहा।केंद्र सरकार ने भी अब तक राज्यों को जीएसटी का भुगतान करने से मना कर दिया है। इस स्थिति पर देश के नेतृत्व को चिंतित होना चाहिए था और मीडिया को इस मुद्दे पर प्राइम टाइम में चर्चा करनी चाहिए थी। प्रधानमंत्री को देश को मंदी और टूटती अर्थव्यवस्था से बचाने के लिए अर्थशास्त्रियों की मदद लेनी चाहिए थी, लेकिन जब उन्हें मोरों को दाना चुगाते, आवारा कुत्तों को खाना खिलाते और बतख की तस्वीरें लेते देखा गया, तो मीडिया सुशांत सिंह राजपूत मामले को सुलझाने में व्यस्त है।
माना जा रहा था कि मन की बात में प्रधानमंत्री बेरोजगारी, मंदी, बाढ़ पीड़ितों की दुर्दशा चीन और कोविड-19 हमारी पर अवश्य बात करेंगे। वह पीड़ितों को सांत्वना देंगे, उनके घावों पर दया करेंगे और लोगों को प्रोत्साहित करेंगे। लेकिन अगस्त महीने में, उन्होंने मन की बात कार्यक्रम को बिल्कुल नए तरीके से प्रस्तुत किया। ठेठ मार्केटिंग वाले तरीके से सेल्समैन की तरह। इस बार उन्होंने बच्चों का सहारा लेकर खेल खिलौने की बात की। वरिष्ठ पत्रकार हर्ष देव ने इसे अंबानी द्वारा ब्रिटेन की सबसे बड़ी खिलौना कंपनी हमीलेज से एक खुदरा श्रृंखला की खरीद से जोड़ा। उन्होंने अपनी फेसबुक वॉल पर एक पोस्ट लिखकर यह जाहिर किया है।
कितनी अजीब बात है कि गरीबों को एक दिन में दो बार भोजन नहीं मिल रहा है लेकिन प्रधानमंत्री मन की बात में पोषण और राष्ट्र का मजाक उड़ा रहे हैं। जैसा अन्न वैसा मन का ज्ञान दे रहे हैं। लोग रोजगार, व्यवसाय को लेकर चिंतित हैं, छात्र जेईई, नीट परीक्षा और अपनी शिक्षा को लेकर चिंतित हैं। लेकिन मोदी जी ने मन की बात में खेल खिलौने की बात की। उनके मन में जरूरी मुद्दों को छोड़कर सभी बातें करने का विचार आता है। खेल खिलौनों की बात करते समय उन्हें जरा भी यह विचार नहीं आया कि लॉकडाउन के कारण कितने बच्चों का बचपन समय से पहले समाप्त हो गया। कैलाश सत्यार्थी फाउंडेशन रिपोर्ट के अनुसार, कोरोना महामारी के कारण होने वाले आर्थिक संकट के कारण 21% परिवार अपने बच्चों के साथ काम करने के लिए मजबूर हैं। रिपोर्ट में लॉकडाउन के बाद बाल तस्करी में वृद्धि की भी चेतावनी दी गई है। अगर मोदी जी ने बच्चों के भविष्य से जुड़े इन वास्तविक मुद्दों के बारे में बात की होती, तो वे अपने मन की बात कहने में सफल होते, जिसमें वे चूक गए। देश चलाना किसी खेल को खेलने जैसा नहीं है। एक गेम हारने के बाद, आप फिर से जीतने की कोशिश कर सकते हैं। लेकिन देश के साथ खेलने का मतलब है लोगों को आहत करना।
इन तमाम मुश्किलों के बावजूद, सरकार सिक्का बंद करने से नहीं कतरा रही है। 2020 का वाक्यांश आत्मनिर्भर भारत है, जिस पर मोदी जी घोषणा करते रहते हैं। सवाल यह है कि देश मौजूदा हालात में कैसे आत्मनिर्भर बनेगा। जबकि रोजगार को मन रेगा तक ही सीमित कर दिया है।राहत पैकेज के नाम पर निजीकरण को आसान बनाने का प्रयास किया गया है।देश की संपत्ति एक के बाद एक कॉर्पोरेट को सौंपी जा रही है।नौकरियां कट रही हैं। रिक्त पदों को भरने के लिए सरकार के पास धन नहीं है। बैंकों का 23 लाख करोड़ रुपये का कर्ज डूबने की कगार पर है। उन पर एनपीए का बोझ है। बैंक का ऋण ना लौटाने वालों में बड़ी संख्या कॉर्पोरेट की है। सरकार उनके कर्जों को भी माफ कर देती है जबकि किसान कर्ज के कारण आत्महत्या कर रहे हैं।अगर यह जारी रहा, तो बैंकों को असफल होने से रोकना मुश्किल होगा।
चाहे बैंक हों या उद्योग, सरकार के पास इन्हें बचाने और बढ़ावा देने की कोई योजना नहीं है।सत्ताधारी दल लोगों को विचलित करके या धर्म, जाति, वर्ग के आधार पर आपस में लड़ा कर सत्ता में बने रहना पसंद करते हैं। वह किसी से भी पूछताछ करना पसंद नहीं करता, यहां तक कि संसद के सदस्य भी। तभी तो सरकारी एजेंसियां और मीडिया देश के बुनियादी मुद्दों पर अभिनेता सुशांत सिंह की मौत के रहस्य का खुलासा करना पसंद कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि सरकार, सहानुभूति मीडिया के माध्यम से, सुशांत के बहाने एक बार में कई लोगों को निशाना बनाने की कोशिश कर रही है।वह चाहती है कि बाढ़ पीड़ित अपनी दुर्दशा भूल जाएं।जनता का ध्यान कोरोना के रोगियों के महानगरीयता की ओर नहीं खींचा जाना चाहिए।वह सुशांत की मौत के रहस्य में उलझे रहे। इस बहाने भाजपा महाराष्ट्र सरकार को घेरना चाहती है।वह सुशांत के नाम की मदद से बिहार चुनाव में सफलता का सपना देख रही है। इस सुविचारित योजना के तहत देवेंद्र फड़नवीस को बिहार चुनाव में मैदान में उतारा गया। यह देखा जाना बाकी है कि क्या देश और बिहार के लोग अपनी समस्याओं के समाधान को महत्व देंगे या फिल्म अभिनेता की असामयिक मृत्यु पर भावनात्मक रूप से निर्णय लेंगे।
(लेख में व्यक्त राय लेखक के निजी विचारों पर आधारित हैं, किंदील का उन से सहमत होना आवश्यक नहीं है)