अनुवाद: शहला प्रवीण, दिल्ली विश्वविद्यालय
कुरान के सूरह यूसुफ में, हज़रत यूसुफ (अ.स.) का किस्सा सुनाया गया है।उनके सौतेले भाईयों की बदसलूकी की वजह से वह समय आया जब हज़रत यूसुफ़ के पिता हज़रत याक़ूब ने अपने दो प्यारे बेटों को खो दिया।इस दुर्घटना के समय, हज़रत याक़ूब (अ.स.) के ज़बान से दुआइया कलमा (प्रार्थना के शब्द) निकले:
انما أشکو بثی و حزنی إلی اللہ
(12:86)
यानी मैं अपनी परेशानियों और दुखों की शिकायत सिर्फ अल्लाह से करता हूं।पैगंबर की जुबान से निकले ये शब्द (अल्लाह की रहमत और दुआएं) एक महत्वपूर्ण तथ्य को बयान करते हैं।इससे पता चलता है कि जब एक विश्वासी(मोमीन) दुःख से पीड़ित होता है तो वह एक सामान्य इंसान की तरह आहें भरने और रोने में व्यस्त नहीं होता है।इसके बजाय, उसका विश्वास दुख प्रार्थना (दुआ) में अपना ढाल लेता है।वह अल्लाह से जूड़ जाता है और उससे भीख माँगता है: कि वह उसके खोए को तलाश दे वह उसकी कमी को पूरा कर दे।
जब कोई व्यक्ति दुःख और अभाव का अनुभव करता है, तो उस पर प्रतिक्रिया करने के दो तरीके हैं।एक इंसान को देखना है और दूसरा भगवान को देखना है – जो किसी दुर्घटना के समय इंसान को देखते हैं, वह केवल यह करते हैं कि इंसान के खिलाफ फरियाद में लग जाएं। मगर जिस व्यक्ति का यह हाल हो कि वह इस प्रकार के तजुर्बे के बाद ख़ुदा को याद करने लगे। वह छीनने वाले के बजाय देने वाले पर ध्यान केंद्रित करेगा।उसका मन निराशा के बजाय आशा का आशियाना बन जाएगा।
प्रार्थना एक शक्ति है।महत्वपूर्ण समय में प्रार्थना आस्तिक (मोमिनों) का सबसे बड़ा सहारा है।प्रार्थना इस विश्वास का स्रोत है कि इस दुनिया में कोई भी अंतिम नहीं है, लेकिन कुछ भी खोने में फिर से नया पाने का राज़ है।
हर व्यक्ति के जीवन में ऐसे क्षण आते हैं जब वह असहाय महसूस करता है।ऐसे क्षणों में भगवान से प्रार्थना करने से आदमी के दिलों को शांति मिलती है।प्रार्थना किसी व्यक्ति के लिए संकट प्रबंधन (crisis management) का सबसे अच्छा स्रोत है।
(किताब ए मारिफत से अंश)