आतिफ सुहैल सिद्दीकी
जानवरों की कुर्बानी इस्लाम के महत्त्वपूर्ण धार्मिक अनुष्ठानों में से एक है। अज्ञानता के कारण एक वर्ग कुर्बानी को जीव हत्या की संज्ञा देता है जो कि पूरी तरह से अनुचित है। कुरान में सभी प्राणियों के जीवन को सुरक्षा प्रदान करने के सम्बन्ध में स्पष्ट सन्देश दिया गया है- “और वे लोग जो अल्लाह के अतिरिक्त किसी अन्य की उपासना नहीं करते औऱ वे किसी जीव की हत्या नहीं करते सिवाय (उस उचित कारण के) जिसका उन्हें अधिकार दिया गया हो” (कुरान 25 : 68)। इस आयत से यह स्पष्ट हो गया है कि जीव की अकारण हत्या का निषेध क़ुरान में वर्णित है, और जो भी अकारण किसी जीव की हत्या करे वह पापी है, जीव हत्या को इस्लाम में सब से बड़ा पाप कहा गया है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो गया है कि कुर्बानी जीव हत्या नहीं अपितु वह अधिकार है जो ईश्वर अर्थात मनुष्यों और अन्य सभी जीवों के सृष्ट द्वारा मनुष्य को अन्य जीवों पर दिया गया है। चूँकि जीवन ईश्वर की देन है और उसे ही इस जीवन को वापिस लेने का अधिकार है तो ईश्वर किसी भी जीव का जीवन वापिस लेने के लिए अपने किसी भी नियम के लिए मनुष्य की इच्छा को मानने के लिए बाध्य नहीं है। अर्थात यदि कुछ मनुष्यों को अपनी सीमित बुद्धिनुसार किसी जीव के जीवन को समाप्त करने की कोई प्रक्रिया पसंद नहीं है तो क्या ईश्वर उनकी इच्छा को मानने के लिए बाध्य होगा? ईश्वर किसी भी जीव के जीवन को किसी भी नियम और प्रक्रिया के द्वारा समाप्त करने के लिए स्वतंत्र है और किसी मनुष्य की पसंद और ना पसंद के प्रति उत्तरदायी नहीं है तथा किसी भी प्रक्रिया और नियम को मानना ही ईश्वर की भक्ति है। मुनष्य द्वारा ईश्वर के आदेश का पालन करना ही मनुष्य का परम धर्म और कृतव्य है। यह भी स्पष्ट है कि जीव हत्या और कुर्बानी में अंतर ईश्वर के नियम की आज्ञा और अवज्ञा में निहित है। वही जीव जिस को कुर्बानी के लिए ईश्वर द्वारा चयनित कर लिया गया है उसी जीव को ईश्वर के अतिरिक्त किसी और के नाम पर बलि को इस्लाम में हराम करार दे दिया गया है, अर्थात वह जीव जो ईश्वर के लिए कुर्बान किया जा सकता है उसे किसी अन्य के लिए कुर्बान करना ही जीव हत्या है। इसका कारण यही है की ईश्वर ही जीवन दाता है और उसे ही जीवन वापिस लेने का अधिकार है। ईश्वर का स्पष्ट आदेश है कि “उस को न खाओ जिस पर अल्लाह का नाम नहीं लिया गया, (ऐसा करना) एक बड़ी अवज्ञा है और वास्तव में शैतान (मनुष्यों में से ही चुने हुए) अपने मित्रों के मन में शंका उत्त्पन्न करता है ताकि वे तुम से बहस करें और यदि तुम उनकी बात मान लो तो तुम अल्लाह के अतिरिक्त अन्य पूज्य बनाने वालों में से होंगे” (क़ुरान 6 : १२१)। इस आयत ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जीवन लेने का अधिकार केवल जीवन देने वाले को ही है, जो लोग ईश्वर अर्थात जीवन दाता के अतिरिक्त अपने पूज्यों पर जानवरों की बलि चढ़ाते हैं वह दर असल जीव हत्या में लिप्त हैं। चूँकि किसी भी जीव को जीवन ईश्वर द्वारा दिया गया है तो उस जीव को ईश्वर के आदेशानुसार केवल ईश्वर के नाम पर ही कुर्बान किया जा सकता है, ईश्वर के अतिरिक्त कोई भी जीवन नहीं दे सकता अतः किसी अन्य के नाम पर जीव की बलि ही जीव हत्या है। ईश्वर मनुष्य द्वारा उसकी सच्चे मन से की गई आराधना और ईश्वर के प्रति उसकी श्रद्धा को ही स्वीकार करता है उसे कुर्बान किये गए जानवर के मांस और रक्त से कोई लेना देना नहीं है वह मनुष्य का पेट भरने के लिए ईश्वर द्वारा मनुष्य को ही भेंट कर दिया जाता है, लेकिन शर्त यही है कि वह जीव ईश्वर द्वारा ईश्वर के बनाए नियम के अनुसार ही ईश्वर का नाम ले कर उसके प्रति सच्ची श्रध्दा से कुर्बान किया गया हो। “न उसका मांस और न उसका रक्त अल्लाह तक पहुँचता है उस तक केवल तुम्हारी भक्ति पहुँचती है,” (क़ुरान 22 : 37 ) । यहाँ मांस भक्षण के नैतिक या अनैतिक होने के मुद्दे पर बात नहीं हो रही है, वैसे मनुष्यों में मांस भक्षण प्राकृतिक और वैज्ञानिक है। मनुष्य के सर्वहारी होने के सम्बन्ध में मनुष्य की आँतों और दांतों की संरचना के अतिरिक्त एक बड़ा तर्क यह भी है कि मनुष्य के अतिरिक्त कोई भी जीव जो शाकाहारी होता है वह कभी मांसाहार नहीं करता और मांसाहारी कभी शाकाहार नहीं करता, अतः मनुष्य का सर्वहारी होना प्राकृतिक है। अतः क़ुरबानी की प्रक्रिया ईश्वरीय नियम है जिस में कई बिंदु निहित हैं, प्रथम बिंदु यह है कि मनुष्य ईश्वर के आदेश का पालन करे और उसके आदेश का पालन कर के अपनी भक्ति सिद्ध करे, इस्लामी अवधारणा के अनुसार मनुष्य को इस धरती पर ईश्वर के आदेशों का पालन करने के लिए उत्पन्न किया गया है, और सच्चाई भी यही है कि कोई भी गुलाम अपने आका के आदेशों का पालन कर के ही अपने आका का स्नेह और आका के द्वारा पारितोषिक प्राप्त कर सकता है। दूसरा बिंदु यह है कि ईश्वर जीवन लेने के लिए किसी भी नियम और प्रक्रिया को बनाने के लिए स्वतंत्र है, मनुष्य की इच्छा और अनिच्छा ईश्वर को किसी भी अन्य नियम और प्रक्रिया के लिए बाध्य नहीं कर सकती। तीसरा बिंदु यह है कि मनुष्य अपनी सीमित बुद्धि से ईश्वरीय नियमों का आकलन करने की मूर्खता करता है। असीमित बुद्धि और असीमित शक्ति वाले ईश्वर के नियमों और प्रक्रियाओं को मनुष्य अपनी सिमित बुद्धि से समझने में असफल है, अतः मनुष्य की भक्ति की परीक्षा यही है कि वह ईश्वर के बनाए नियमों को स्वीकार कर के उनका पालन करे। इसका एक छोटा सा उदाहरण प्रस्तुत कर देता हूँ। जब किसी न्यायलय द्वारा किसी अपराधी को मृत्युदंड दिया जाता है तो उसे जीव हत्या नहीं कहा जाता, उसका कारण केवल यह है कि मानवीय बुद्धि ने उसकी हत्या को स्वीकार करते हुए मान्यता दे दी है, मृत्युदंड पाए मनुष्य को जीव हत्या की श्रेणी में नहीं रखा जाता है। मानवीय बुद्धि ने यह स्वीकार कर लिए है कि यह जीव हत्या नहीं है। जब कि ईश्वर जो कि सर्वशक्तिमान है और जीवन दाता है मनुष्य अपनी सीमित बुद्धि से ईश्वर के द्वारा पैदा किये गए जीव के जीवन को समाप्त करने की एक प्रक्रिया अर्थात क़ुरबानी को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है, इस अज्ञानता में उसकी सीमित बुद्धि का ही दोष है जब कि ईश्वरीय नियम सदैव प्राकृतिक थे और सदा रहेंगे।