काफिलों की धूल में भी बहती हुं
कभी तन्हा कभी भीड में मै रहती हूं
से मीलों तक काफिलों में बहती हुं
सख्त हवाओं के थपेड़े रोज़ सेहती हुं
हवाओं के दोश पर कभी उसके बरअकस
तेज़ रौशनी और धूप को संजोती हुं
समंदर या कि दरिया हूं
बर्फ के पहाड़ या नदियां हूं
कभी बेहती कभी खामोश रहती हुं
कभी पिघलती हुं
जंगलों के बीच से गुजरती हुं
धुवां सा बनकर उठती हुं
बरसात और सैलाब से गुज़रती हुं
घटा के ज़ोर पर रह कर
आग के थपेड़े रोज़ सहती हुं
जिंदगी हुं आगे बढ़ने के
हर रोज मुस्कुराकर दर्द नए सहती हुं।
*वेस्ट पटेल नगर, नाई दिल्ली