नूरूज़्ज़माँ अरशद
(एस.टी.एस.स्कूल (मिंटो सर्किल), ए.एम.यू.,अलीगढ़
इतिहास का छात्र होने के नाते,ऐतिहासिक चीजों को जानने और समझने की मेरी उत्सुकता हमेशा बनी रहती है और रहना भी चाहिए। काला पानी यानी सेल्यूलर जेल का नाम जब भी ज़ेहन में आता है,मन-मस्तिष्क में एक साथ कई चित्र उभरने लगते हैं। दुख के ! दर्द के ! विवशता के ! निराशा के ! लेकिन इन धुंधले चित्रों के उस पार, आशा के,संघर्ष के,देश की आज़ादी के भी कुछ चित्र हैं।
अब सवाल यह उठता है कि आखिर कहां है ये ? कैसा है ये? ऐसा क्या है इस काला पानी में ? इसका इतिहास क्या है ? भारत के स्वतंत्रता संग्राम में इसकी क्या भूमिका रही ? यहां इन्हीं सब सवालों के जवाब ढूंढने की कोशिश करेंगे। साथ ही अंडमान का अपना अनुभव भी साझा करूंगा।
*इतिहास*
कहां है यह काला पानी ? वह नरक–लोक, जिसे आज़ादी के दीवानों ने स्वर्ग–लोग में बदल दिया। कलकत्ता से 1225 किलोमीटर और चेन्नई से 1191 किलोमीटर दूर,बंगाल की खाड़ी में द्वीपों का एक समूह है। अंडमान निकोबार द्वीपसमूह। यह अब तक ज्ञात कूल 572 द्वीपों का समूह है, जिसमें केवल 37 द्वीपों पर ही लोग निवास करते हैं। पोर्ट ब्लेयर भी उन्ही द्वीपों में से एक है जहां सेल्यूलर जेल है। अब यह जेल नहीं एक प्रतीक है, अंग्रेजों के अत्याचार का, क्रूरता का, भारत की आज़ादी के दीवानों का,मातृभूमि पर मर मिटने वालों की वीर गाथाओं का।
इन द्वीपों का नाम क्यों पड़ा ‘काला पानी’ ? इसको लेकर अनेक मत हैं। किंतु आम राय यह है कि इन द्वीपों में प्रायः सालों भर बारिश होती है। काले–काले बादलों से आसमान घिरा रहता है , जिनके प्रतिबिम्ब के कारण समुद्र का जल भी काले रंग का लगता है। संभवतः इसीलिए इसे ‘काला पानी’ का नाम दिया गया।लेकिन बाद में यह कष्टमय स्थान का पर्याय बन गया।
ईस्ट इंडिया कंपनी के बढ़ते प्रभाव और सामरिक दृष्टि के कारण, लॉर्ड कार्नवालिस का ध्यान इस ओरआकर्षित हुआ। फलतः सागर–विज्ञान के विशेषज्ञ कप्तान आर्चीवाल्ड ब्लेयर को सन् 1788 में, कैदियों और मजदूरों से लदा एक जहाज लेकर, अंडमान को बसाने के लिए रवाना किया गया। लेकिन यहां की जलवायु अनुकूल नहीं होने की वजह से यह अभियान असफल हो गया। कालांतर में एक–दो और भी प्रयास किए गए,वह भी असफल ही रहा। इस प्रकार अभियान तो सफल न हो सका लेकिन अंडमान द्वीप समूह के सबसे महत्पूर्ण बंदरगाह का नाम ‘पोर्ट ब्लेयर’ जरूर हो गया। जो अब अंडमान निकोबार द्वीपसमूह की राजधानी है।
1857 के बाद एक बार फिर इस द्वीप में जानवरों,पशु–पक्षियों और अपराधियों को बसाने की योजना बनी। फलतः 1858 में एक जहाज कलकत्ता से इस ओर रवाना हुआ। जिसमें 800 भयंकर अपराधियों के साथ 1857 के स्वाधीनता–संग्राम में भाग लेने वाले योद्धा भी थे। कहा जाता है कि इसमें मिर्ज़ा ग़ालिब के दोस्त मौलाना फजलहक खैराबादी और मौलाना लियाकत अली भी थे। उनकी मौत भी यहीं हुई। वर्षों तक कैदियों को घास–फूस की झोपड़ियों और बाड़ों में रखा जाता था। बाद के दिनों में इंग्लैंड के ‘पेंटनविले जेल’ की तर्ज पर वर्ष 1892 में एक पक्की जेल बनाने की योजना बनी, जो 1906 में पूरी हुई। उस समय इसकी कुल लागत खर्च 5,17,352 थी। इस जेल का नाम रखा गया—सेल्यूलर जेल। जेल की संरचना इस प्रकार थी मानो किसी फूल के सात पंखुरी हों। जिसके बीचों–बीच एक वॉच टॉवर था,जिसमें बैठा अकेला संतरी सातों कतारों के कैदियों की चौकसी आसानी से कर सकता था। इस विशेष प्रकार से बनाई गई जेल से कैदियों का बाहर निकलना कठिन ही नहीं, एक तरह से असंभव था। इस जेल में कुल 698 अलग–अलग सेल थे, इसी लिए इसका नाम सेल्यूलर जेल पड़ा।
*स्वतंत्रता संग्राम में इसकी भूमिका*
सोम नाथ अग्रवाल ने अपनी किताब ‘हीरोज ऑफ सेलुलर जेल’ में लिखा है–इस जेल में 1909 से 1937 के बीच,ज्यादातर बंगाल और दूसरे प्रांतों से,अंग्रेजों के दमन के खिलाफ बिगुल बजाने वाले भारत के स्वतंत्रता सेनानीयों को,यहां क़ैदी के रूप में लाया गया था। अंडमान जेल में बंद सावरकर बंधु,नानी गोपाल मुखर्जी,भाई परमानंद, पृथ्वी सिंह आज़ाद,बाबा भान सिंह,अनंत सिंह,इन्दु भूषण,शचीन्द्रनाथ सान्याल आदि को कौन नहीं जानता। भाई परमानंद ने अपनी किताब ‘आपबीती: काले पानी की कारावास कहानी’ में इस सम्बंध में विस्तार से लिखा है। कर्नल बिडन के समय में केरल के मालाबार तट में एक बड़ा विद्रोह हुआ जिसे मोपला विद्रोह (1921) के नाम से जाना जाता है। जिसमें 1400 मोपला मुसलमानों को काला पानी की सजा हुई थी। रंपा विद्रोह,आंध्र प्रदेश (1922–24), गदर पार्टी, पंजाब (1913),हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन,उत्तरप्रदेश (1923), नासिक षडयंत्र केस,महाराष्ट्र (1909) आदि के अभियुक्त प्रमुख हैं। राजनैतिक बंदियों का अंतिम काफिला चिटगांव षडयंत्र केस के रूप आया, जिसमें कुल 366 बंदियों में से 332 सिर्फ बंगाल से थे।
विनायक दामोदर सावरकर ने अपनी किताब ‘स्टोरी ऑफ माय ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ’ में लिखा है– इन राजनैतिक बंदियों को जेल का क्रूर जेलर डेविड बैरी तरह तरह की यातनाएं दिया करता था। डेविड बैरी इतना अत्याचारी था कि वह खुद को ‘धरती का खुदा’ समझता था। कैदियों को अधपका चावल या अध–सिकीं कच्ची रोटियां खाने को मिलती, वह भी पेटभर नहीं। यहां नारियल की जटाएं कूटना,कोल्हू पर बैल के स्थान पर जुतना जैसी यातनाएं आम थी। ” हाड़ खावे। मांस खावे। चमड़ा दिए डुगडुगी बजावे।” अर्थात वे हमारी हड्डियां चबाएंगे। मांस खायेंगे और हमारी खाल से डुगडुगी बना कर बजाएंगे। अंग्रेजों के प्रति प्रकट किए गए ये कांतिकारी उल्हासकर के उद्गार शचीन्द्रनाथ सान्याल अक्सर दुहराया करते थे। यह राजनैतिक स्वतंत्रता सेनानी ही थे जिन्होंने सर्वप्रथम डेविड बैरी के अत्याचार के खिलाफ विद्रोह किया। भूख हड़ताल किया। अपनी मांगें पूरी करवाई।
1937 में, 200 कैदियों का भूख हाड़ताल तो पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। 36 दिनों की लंबी भूख हड़ताल के बाद 28 अगस्त 1937 को गांधी जी की अपील पर, जिसमें उन्होंने कहा था–‘पूरा देश आपसे आग्रह करता है कि भूख हड़ताल खत्म कर दें’। अंततः यह हड़ताल खत्म हुई। इसके साथ ही अगले साल जनवरी 1938 में, काला पानी हमेशा के लिए बंद कर दिया गया। 1942 में जापानियों ने यहां कब्जा कर लिया। देश की आज़ादी से पहले, दिसंबर 1943 को सुभाष चंद्र बोस ने अंडमान जेल में आज़ादी का झंडा फहराया।
*अंडमान का मेरा अनुभव*
जनवरी 2020 को मैं अपने साथियों के साथ अंडमान की यात्रा पर था। वहां पहुंच कर एक होटल में कुछ देर आराम करने के बाद, निकल पड़ा घूमने। हर जगह बस पानी ही पानी, जहां तक आपकी नज़र जा सकती है,पानी के अलावा कुछ भी नहीं दिखेगा। यक़ीन मानिए,वहां के प्राकृतिक दृश्य आपको मंत्र मुग्ध कर देगीं। जिनको हाइड्रोफोबिया (पानी से डर लगना) की शिकायत है उनके लिए यह स्थान उपयुक्त नहीं। खैर,मन में कुलबुलाहट थी सेल्यूलर जेल देखने की। वहां पहुंच कर जेल का अवलोकन किया, जेल को देख कर मन में कुछ आशाओं और कुछ दुख के तस्वीर थे,कुछ अपनी भी तस्वीरें लीं और जेल म्यूज़ियम देखा। म्यूज़ियम में, यातनाओं के के चित्र देखे, लगभग 5 किलोग्राम का एक ताला भी देखा जिस पर लिखा था ‘मेड इन अलीगढ़’ देख कर खुशी हुई, क्योंकि मैं भी अलीगढ़ से गया था। यहां शाम को ‘लाइट एंड साउंड शो’ के माध्यम से काला पानी का इतिहास भी बताया जाता है, जिसकी टिकट बुकिंग पहले से करनी होती है। हालांकि अब यह व्यक्ति विशेष तक ही केंद्रित है।
अगले दिन रॉस आइलैंड (अब,नेता जी सुभाष चंद्र बोस द्वीप), नील आइलैंड (अब,शहीद द्वीप) फिर हैवलॉक आइलैंड (अब,स्वराज्य द्वीप) गया। इसी तरह एक जेट्टी (घाट) से दूसरे जेट्टी जाते हुए कब अंडमान का सफर खत्म हो गया,पता ही नहीं चला। एक सप्ताह रुकने के बाद, इन्हीं खट्टी मीठी यादों के साथ वापसी हो गई। देखिए अब संयोग कब बनता है।