आज कीर्तिगान को पढ़ते हुए सच में महसूस हो रहा था जैसे गाहे बगाहे होने वाली घटनाएं जिनके बारे में अख़बार और न्यूज़ पर सुना करते थे, और मात्र घटनाएं ही मालूम पड़ती थी। जिसको एक के बाद दूसरी घटनाएं दबा दिया करती थी। या यूं कहिए जिस रास्ते से रोज़ गुज़र होता है, परन्तु कोई पूछ ले आप के घर के कितने घर छोड़ कर ‘‘रोटी बोटी कबाब’’ का बोर्ड़ लगा है, तो बता पाना बहुत मुश्किल होगा। हां उसी तरह यह वास्तविक घटनाओं पर कौन ग़ौर करता है।
नाविल, अफ़साना, ड्रामा या मूवी जिनका मक़सद Entertainment और सिर्फ़ Entertainment रह गया, इस दौर में समाज में पनपे एक सोच को न सिर्फ़ मिटाने बल्कि उस तक आने वाली रौशनी और हवा को बन्द करने की कोशिश की गयी है।
चन्दन पाण्डे की नाविल कीर्तिगान जिसमें कीर्तिगान को एक संस्था या मैगज़ीन बताया गया, जिसमें काम करने वाले लगभग सभी सदस्यों का ज़िक्र किया गया है। सनोज ऐसी शख्सियत का मालिक जिसे तन्हाई या यूं कहिये वक़्त ने ऐसा तोड़ दिया है जो अपनी परछायी से लड़ता हुआ अपनी तन्हाई को दूर करने की कोशिश करता नज़र आता है। परन्तु अपनी ख्वाहिशें के दायरों को बनाये रखता है।
सनोज की मानसिकता को इस तरह दिखाया गया है जैसे रावण पर चलाये गए हज़ारों बाढ़ हों। जिसने उसके सीने को चीर दिया हो और लाखों लोगों की मौजूदगी में धूँ धूँ करके जलने लगा हो।
कीर्तिगान को किसी एक तबके़ से जोड़ कर देखना न सिर्फ़ ग़लत होगा बल्कि नाइंसाफ़ी भी होगी। नाइंसाफ़ी उन लोगों के साथ जो कीर्तिगान का नाम सुनते ही छुई मूई की तरह मुरझा गए होंगे, किसी भी चीज़ के बारे में हम अपनी राय तभी क़ायम कर सकते हैं जब उसकी तह तक पहुंच जायें।
सनोज के बाॅस का रूप हू बहू वर्तमान में कम्पनियों में बैठे बास की तरह है जो हक़ीक़तन उन्हीं लोगों को पसन्द करते हैं जो उनके सामने पूंछ हिलाते फिरते हैं।
एक साथ काम करने वाले लोगों में किन बातों पर कैसे क्या मतभेद होता है ब-ख़ूबी बताया गया है।
सनोज को सुनंदा की शक्ल में (तबरेज़ की बेवा) (शाइस्ता) का चेहरा नज़र आता है चन्दन पाँडे ने सो रहे समाज में एक आवाज़ बुलन्द की है जो मज़लूमों का दर्द है हाशिये पर चले गए लोगों का दर्द जो दर्द है उन भारतीयों का जिनका जिस्म भी भारत की मिट्टी में पनपा है और फला फूला है। जिसका दिल यहीं के लिए धड़कता है। सच में भिगाकर कोड़ा बरसाया है, उन पर जो लोग राजनीतिक और सामाजिक और आर्थिक फ़ायदों के लिए मज़लूमों पर ज़ुल्म करते हैं उनके ख़ून की होली खेलते हैं उनकी चीख़ती आवाज़ों पर डिस्को करते हैं मासूम जन्ता को वरग़लाते हैं।
इस नाविल में जो भाषा का इस्तेमाल हुआ है वह पूरब की आम बोल चाल की ज़बान है। जैसे कि चापाकल, उचारना, पहँसूल, पाकघर इत्यादि देहाति शब्दों का प्रयोग बड़ी ही ख़ूबसूरती से किया गया है।
एक पत्रकार का जीवन तीन मुख्य जगहों से जुझता हुआ मालूम पड़ता है पहला तो उसका आबाई वतन जो पूरब से है, और जिसका ज़िक्र नाविल में शुरू से आखि़र तक मिलता है। दूसरा दिल्ली का माहौल वहां की खुली फ़िज़ा और बेबाक सोच जिसको सुनंदा कहीं कहीं बयां करती हैं। तीसरा राजस्थान। जिसके छोटे छोट गाँव बरसों से हरा भरा रहा उसे बंजर बनाने की लोगों की नापाक कोशिश एक पत्रकार को सोचने पर मजबूर करती है। राजस्थान के एक होटल में जब सुनंदा और सनोज कुछ खा रहे थे खीर की ओर इशारा कर सनोज कहते हैं यह बिल्कुल वैसा है जैसा तबरेज़वा के सर से बहता हुआ पस। तलवार से अधिक धार वाले हथियार से वार किया गया था। आंखों पर काली पट्टी बांधे उन लोगों पर जिन्हों ने माॅ व्लचिंग शब्द का पुनर जनम किया है और अख़बारों और मैगज़ीन में दाँत चियारे आते हैं। भीड़ हत्याओं पर नज़र हर किसी की पड़ती है। इस पर आवाज़ उठाना या कहना लोग क़ानूनी काम समझते हैं पुलिस अदालत, नेता गढ़ ही के अंतर्गत ऐसी समस्याओं की ज़िम्मेदारी समझी जाती है।
परन्तु एक समाज में अहम भूमिका एक व्यक्ति एक इंसान की होनी चाहिए, व्यक्तिगत रूप में अगर हर व्यक्ति अपनी ज़िम्मेदारी निभाये और अपने समाज में भाई चारे और सहानुभूति का पैग़ाम पहुंचाये तो हमारी सर ज़मीन कभी माॅबलीचिंग की लाली से रंगी न जाएगी।
उक़बा हमीद
* M. Ed. from University of Lucknow
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