कांग्रेसियों को प्रशांत किशोर का आभारी होना चाहिए कि उसने पार्टी से बाहर रहते हुए यह कहा। अगर पार्टी में आकर यह सब कहता तो क्या होता? जी 23 वाकई जी 23 प्लस हो जाता। और शायद एकाध और चिट्ठी सोनिया गांधी को लिख दी जाती कि प्रधानमंत्री मोदी की ताकत को स्वीकार करो। उन्हें कम करके आंकना बंद करो। या शायद यह भी लिखा जा सकता था कि उनका नेतृत्व स्वीकार करो! मगर शायद प्रशांत किशोर ने पार्टी में शामिल होना स्वीकार नहीं किया। वरना उसे कांग्रेस में लाने के लिए जिस तरह उच्च स्तरीय तैयारियां दिख रहीं थी उससे तो लगता था जैसे कोई ट्रंप का इक्का रहा हो। जिसका कोई काट किसी के पास न हो। वह आया और जैसा कि नेपोलियन के बारे में कहा जाता है छा गया।
पता नहीं कि यह किस कि सलाह थी कि प्रशांत किशोर को पार्टी में लाओ। हो सकता है कोई भाजपा से प्रभावित हो जिसने कहा हो कि बाजी हमेशा बाहरी व्यक्ति ही आकर पलटता है। भाजपा के पक्ष में तो यह बात सही है कि उसके लिए हमेशा ही बाहर से आकर किसी ने रास्ता हमवार किया है। 1967 में लोहिया ने, 1977 में जेपी ने, 1989 में वीपी सिंह ने और 2014 में अन्ना हजारे ने। मगर क्या कांग्रेस के पक्ष में यह संभव था? पता नहीं। मगर कांग्रेस में यह बात किसी को अपील कर गई होगी कि अगर ऐसा है तो एक आदमी हम भी ले आते हैं। कांग्रेसियों को ऐसे निराले आइडिए खूब पंसद आते हैं। आज जिस ईवीएम पर यह सवाल उठा रहे हैं। उसे ये ही लाए थे। नोटा जो सबसे ज्यादा इन्हीं के खिलाफ उपयोग हुआ है और आज जिसे सब एक निरर्थक और एवंई चीज मानते हैं, कांग्रेसियों ने ही बड़े लोकतांत्रिक सिद्दांत की तरह पेश किया था। आरटीआई जिसने खुद यूपीए सरकार की नाक में दम कर दिया था और उसके नाम पर कई लोग बड़े एक्टिविस्ट और पुरुस्कार विजेता बन गए थे का आज कोई नामलेवा भी नहीं है, कांग्रेस का ही आदर्शवाद था। बहुत सारे उदाहरण है कि कांग्रेसी कैसे हवा में उड़ते तीर के सामने अपना सीना लाकर घायल हो जाते हैं। तो इस बार भी वे प्रशांत किशोर को खुद पर दो चार चोट खाने के लिए अपना बनाने को बेताब थे। मगर वह कोई हवा का झौंका ही आया कि यह तीर खुद से ही दूर होकर निकल गया। वरना कांग्रेसी तो अपनी सीना छलनी कराने को तैयार बैठे थे।
वह जो पुरानी कहावत है कि कांग्रेस को दुश्मन की जरूरत नहीं है। वह स्वयं इतनी समर्थ है कि खुद ही अपने आपको पर्याप्त नुकसान पहुंचा सकती है, यहां बहुत सही लगती है। प्रशांत किशोर को शामिल करने के लिए क्या नहीं हुआ था? कांग्रेस अध्यक्ष के लेवल पर कई मीटिंगें हो गईं थी। महासचिवों और वरिष्ठ नेताओं के स्तर पर इस बात पर चर्चा हुई कि उन्हें क्या दिया जाए। और प्रशांत किशोर की राहुल और प्रियंका से इस बारे में मुलाकात हो गई थी। लग रहा था कोई तूफान आने वाला है। जो आते ही सत्तारुढ़ भाजपा को उड़ा ले जाएगा। मगर तूफान तो आया लेकिन इधर ही मुड़ गया। कांग्रेसियों को बता गया कि अभी कई साल तक भाजपा जाने वाली नहीं है। और राहुल की जो सबसे बड़ी गलती है वह यह कि वे मोदी की ताकत को स्वीकार नहीं कर रहे। मतलब राहुल को मोदी का नेतृत्व मान लेना चाहिए।
कितना बुध्दिमान व्यक्ति है यह प्रशांत किशोर। बांस को ही खत्म कर रहा था। कहां से बजेगी बांसुरी! राहुल ही अगर मोदी को मान जाएं तो कहानी खत्म। कौन देगा फिर मोदी को चुनौति? बाकी विपक्ष जो है वह खुद को मुख्य विपक्ष कहने में तो सबसे आगे रहता है मगर सड़क पर कहीं नहीं दिखता। सड़क पर तो आज लखीमपुर से लेकर ललितपुर बुंदेलखंड तक प्रियंका गांधी और राहुल ही दिखते हैं। या इससे पहले चाहे मजदूरों का पलायन हो, किसान की बात हो, हाथरस हो या भट्ठा परसोल हो राहुल ही लड़ते हुए पुलिस के धक्के खाते, गिरते, उठते और संघर्ष करते दिखते रहे।
भाजपा यही चाहती है कि विपक्ष बिना राहुल के हो। अगर कांग्रेस सहित हो तो जी 23 वाली कांग्रेस के साथ। जो मोदी जी ताकत को ठीक से पहचानती है। उनकी प्रशंसा करती है। राहुल नहीं जो मोदी को कदम कदम पर चुनौति देता हो। इसीलिए इस बार प्रशांत किशोर से कहलवाया गया कि राहुल बेवजह मोदी से लड़ रहे हैं। हो सकता है वे मोदी को हरा दें। मगर इससे भाजपा कहीं नहीं जाने वाली। भाजपा कई दशक तक बनी रहने वाली है। गोवा में दिया यह बयान बेसिकली राहुल की हिम्मत तोड़ने के लिए और कांग्रेसियों को उकसाने के लिए है। राहुल पर इसलिए हमला कि आज भी अगर कांग्रेस और भाजपा में कोई अंतर पैदा कर रहा है तो वे राहुल गांधी ही हैं। यह राहुल का ही साहस था जिन्होंने त्रिपुरा के हमलों पर इतना खुल कर बयान देकर दुनिया में भारत का मान बढ़ाया। पूरे विश्व में जहां भी अल्पसंख्यकों पर हमले होते हैं वहां की सरकारें इसके खिलाफ कारर्वाई करती हैं। आवाज उठाती हैं। अभी बांग्लादेश में वहां की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने, उससे पहले अमेरिका में ब्लेकों के खिलाफ हमले पर वहां के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने आवाज उठाई। मगर यहां सरकार खामोश रही तो विपक्ष ने आवाज उठाई। विपक्ष मतलब राहुल गांधी।
लेकिन यही बात बाकी विपक्षी दलों को पसंद नहीं है। वे आवाज भी नहीं उठाएंगे लेकिन अगर राहुल बोलेंगे तो कहेंगे कि कांग्रेस और भाजपा एक ही है। अखिलेश यादव यूपी में यही कहने लगे हैं। शनिवार को उन्होंने कहा कि हम समाजवादियों का मानना है कि जो कांग्रेस है वही भाजपा है और जो भाजपा है वही कांग्रेस है। दोनों एक ही हैं। यह वही बयान है जो रोज मायवती जी देती हैं। मायावती जी वैसे तो कहीं जाती नहीं हैं। बोलती नहीं हैं। मगर कभी कभी जब मजबूरी में उत्तरप्रदेश की योगी सरकार के बारे में कुछ बोलना पड़ता है तो साथ में कांग्रेस को भी मिला लेती हैं कि कांग्रेस ने भी यही किया। अब वे राहुल या प्रियंका की तरह प्रेस के सामने तो आती नहीं हैं कि कोई उनसे पूछ ले कि कब किया था? 32 साल पहले? यूपी में कांग्रेस की आखिरी सरकार 1989 में थी। नारायणदत्त तिवारी की। उनके बाद मुलायम सिंह यादव बने। पहली बार मुख्यमंत्री। मंडल और कमंडल की राजनीति शुरू हो गई थी। सबको साथ लेकर चलने वाली राजनीति का अवसान और धर्म एवं जाति की राजनीति की शुरूआत। यूपी में इसी राजनीति ने मुलायम, मायावती और भाजपा को मौका दिया। पिछले 32 साल से यही तीनों जिनमें अखिलेश भी शामिल हैं सत्ता में रहे। 32 साल जिनमें दो नई जनरेशन आ गईं। गंगा यमुना में बहुत पानी बह गया। मगर गलती आज भी कोई छुपाना है तो दोष कांग्रेस पर। अखिलेश को तो पता भी नहीं होगा कि यूपी में कांग्रेस ने किस तरह जमींदारी प्रथा का उन्मूलन किया था और भाजपा जो उस समय जनसंघ थी इसका विरोध किया था। सामंतवाद पर यह सबसे बड़ा प्रहार था जिससे कृषक और पशुपालक जातियों को बेगारी से मुक्ति मिली थी। बंधुआ मजदूर जो सभी दलित और पिछड़ी जातियों के थे मुक्त हुए थे। और उनका आर्थिक एवं सामाजिक सशक्तिकरण शुरू हुआ था।
कांग्रेस को जब समाजवादी भाजपा के साथ जोड़ते हैं तो दरअसल वे भाजपा के यथास्थितिवाद को ही मजबूत कर रहे होते हैं। कांग्रेस जिसमें कई कमियां हैं। और जिसने मौका मिलने पर भी सामंतवाद, सांप्रदायिकता पर निर्णायक प्रहार नहीं किया और उनके लिए कई गलियां छोड़ते चले गए आज अपनी इसी खामी का नतीजा भुगत रहे हैं।
ममता बनर्जी ने हालांकि मजे लेने के लिए कहा। मगर उनकी इस बात में कुछ तो सच्चाई है कि मोदी कांग्रेस की वजह से ही मजबूत हुए हैं। मगर एक बड़ी सच्चाई यह भी है कि इसी कांग्रेस में आज राहुल गांधी हैं जो सीधे सांप्रदायिकता और दलित विरोधी ताकतों को चुनौति दे रहे हैं। दो पूंजीपतियों अंबानी अडानी का नाम लेकर उनके कारनामों को सबके सामने ला रहे हैं। उन्हीं राहुल पर भाजपा, उनकी सरकार, मीडिया के बाद प्रशांत किशोर और दूसरे विपक्षी दलों से हमले करवाए जा रहे हैं।
मौका दिवाली का है, नहीं तो हम महाभारत का उदाहरण देते कि अकेले अभिमन्यु को कैसे घेरा जा रहा है! और अगर पाठकों को दिवाली का ही चाहिए तो हम लिख देते हैं कि अंत में “विरथ रघुवीरा” को ही विजय मिली थी।