हिंदी अनुवाद: नूरुज्ज़मा अरशद
अनुवादक नोट: आज, हमारे आस पास, नफरत का जो माहौल है, उसकी एक वजह, घृणित इतिहास लेखन भी है। और इसकी शुरूआत औपनिवेशिक काल से होती है। शायद इसकी शुरुआत, इलियट और डाउसन की 8 भागों में प्रकाशित (1849) पुस्तकों से होती है।
इस सम्बंध में, प्रो. इक़तदार आलम ख़ान ने अपने एक लेख (1991), ‘अलीगढ़ आंदोलन और इतिहास लेखन’ में, मौलवी ज़काउल्लाह (1832–1910) के हवाले से लिखा है कि– _तारीख़–ए –हिंदुस्तान_ के प्रस्तावना में ज़काउल्लाह ने यूरोपियन इतिहासकारों की, इस्लाम और हिंदुस्तान के प्रति नफ़रत की घोड़ निंदा की है। इस संबंध में वह खास तौर पर एलियट की _हिस्ट्री ऑफ इंडिया_ के संबंध में कहते है कि मध्यकालीन इतिहास पर, चुने हुए फारसी किताबों का प्रकाशन,एक खास मक़सद के तहत किया गया। इस प्रकार, भारतीय इतिहास लेखन में, जान बूझ कर सांप्रदायिक घृणा का ज़हर घोलने की कोशिश की गई। शायद, वह (मौलवी ज़काउल्लाह), पहले इतिहासकार थे जिन्होंने एलियट की खुले तौर पर आलोचना की।
हालांकि, ऐसा नहीं है कि, भारतीय बुद्धिजीवियों को इसका एहसास नहीं था, देर से ही सही, इस घृणित इतिहास लेखन का प्रतिरोध शुरू हुआ, लेकिन, बहुत से कारणों से, उसमें कामयाबी कुछ हद तक ही मिल सकी। इतिहास लेखन के माध्यम से सांप्रदायिक सौहार्द बनाना समय की मांग है।
इस सम्बंध में, शाफे किदवई की रूटलेज प्रकाशन से हाल ही में प्रकाशित पुस्तक– _सर सैयद अहमद खान: रीजन, रिलीजन एंड नेशन_ की समीक्षा में, प्रो. मोहम्मद सज्जाद लिखते हैं–”शाफे किदवई ने _अलीगढ़ इंस्टीट्यूट गजट_ (AIG) में सर सैयद के लेखन का उल्लेख किया है, जो इतिहास की पाठ्यपुस्तकों के खिलाफ, एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस (1889 सत्र में) के उस दावे के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी देती है, जिसका मवाद, हिंदू-मुस्लिम के बीच घृणा को भड़काने का काम करती है। इस सत्र ने, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम के लिए निर्धारित, जॉर्ज डब्लू. कॉक्स द्वारा लिखित पुस्तक– _हिस्ट्री ऑफ द इस्टैब्लिशमेंट ऑफ ब्रिटिश रूल इन इंडिया_ (1884) के विशिष्ट तीन पृष्ठों,को हटाने का प्रस्ताव पारित किया। जो अंततः 1892 में, व्हीलर की _टेल्स फ्रॉम इंडियन हिस्ट्री_ से बदल दिया गया।
जैसा की औपनिवेशिक काल की इतिहास की पाठ्यपुस्तकों ने, दो समुदायों (हिन्दू–मुस्लिम) के बीच घृणा फैलाने का काम किया। शिबली नोमानी (1857-1914) ने, एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस में एक ऐसे इतिहास की पाठ्यपुस्तकों के निर्माण की परियोजना को लाने का प्रस्ताव रखा था, जो औपनिवेशिक प्रेरित सांप्रदायिकता को कम कर, उस ज़हर का मारक प्रदान कर सके। ज़काउल्लाह ने, अपने ‘तारिख़-ए-हिन्दुस्तान’ (1915) के पहले खंड के ‘परिचय’ में इलियट और डाउसन की पुस्तक (1849) में सांप्रदायिक तत्वों की ओर इशारा किया है। हालांकि, एजुकेशनल कांफ्रेंस की यह योजना उपेक्षित ही रही, और अंततः 1932 में, सैयद सुलेमान नदवी (1884-1953) ने, इस विषय की ओर ध्यान वापस लाने का सुझाव दिया। जिसमें, मध्यकालीन भारत और उसके क्षेत्रीय राज्यों के, सांस्कृतिक और बौद्धिक इतिहास को लिखने का प्रस्ताव दिया गया था। मोहम्मद हबीब (1895-1971), हारून खान शेरवानी (1891-1980) और कुछ अन्य इतिहासकार, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए, समिति में शामिल थे। उनके प्रकाशनों ने, इतिहास-लेखन के माध्यम से, उपनिवेशवाद से प्रेरित सांप्रदायिक ज़हर के प्रतिरक्षी की पेशकश की। यह प्रतिरक्षी मारक, दारुल मुसन्नेफिन शिबली एकेडमी (आज़मगढ़) से संबंधित नालंदा (बिहार) के दिस्ना गांव के सैयद सबाहुद्दीन अब्दुर्रहमान (1911-1987) के उर्दू भाषा के ऐतिहासिक लेखन में भी जारी रहा। उन्होंने रज़्म (राजनीतिक युद्धों और दरबारी इतिहास) के बजाय एक बज़्म (बौद्धिक एवं सांस्कृतिक इतिहास) श्रृंखला पर मंथन किया। कुंवर मोहम्मद अशरफ़ (1903-1962) के लेखन कार्यों के बाद, रहमान का लेखन, आम लोगों के (न कि शासक के लिए) इतिहास के लिए समर्पित हैं”।
दूसरी तरफ, सैयद सबाहुद्दीन अब्दुर्रहान ने अपनी पुस्तक _हिंदुस्तान के अहदे वुस्ता में मुसलमान हुक्मरानों की मज़हबी र वादारी_ (भारतीय मध्यकालीन शासकों की धार्मिक सहिष्णुता,1975) में लिखते है–”इतिहास का सामग्री कच्चा होता है,वह दिलों को तोड़ने और जोड़ने, दोनों के लिए प्रयोग किया जा सकता है। किसी मुल्क के किसी काल को, सिर्फ ख़ून–ख़राबों और ख़ौफ़नाक कहानीयों से भर दिया जाए तो ज़िहिर है इसका इतिहास, क़साई की दुकान लगने लगेगी। दूसरी तरफ, उसी काल में बहुत कुछ ऐसी सामग्री भी मिलेगी जो प्रेम व सद्भाव की कहानी, दिल भावन व मनमोहक कहानी भी मिलेगी, जिसको यदि लिखा जाए तो उसी युग का इतिहास दिलों को तोड़ने के बजाए जोड़ने वाला बन जाए। इतिहासकार का क़लम भी अजीब है, शोला भी शबनम भी, कांटा भी फूल भी, ज़हर भी दवा भी”।
इस अनुवाद का भी यही मकसद है कि अंग्रेजों द्वारा भारतीय इतिहास लेखन में छेड़ छाड़ को बेनकाब किया जाए।
प्रस्तुत अनुवाद सैयद सबाहुद्दीन अब्दुर्रहमान की पुस्तक– _हिंदुस्तान के अहद–ए –वुस्ता की एक झलक_ (मध्यकालीन भारत का एक दृश्य,1958) के लिए एक संक्षिप्त, लेकिन व्यापक प्रस्तावना, निवर्तमान विदेश मंत्री एवं बिहार के भूतपूर्व शिक्षा मंत्री, डॉ० सैयद महमूद (1889-1971) ने लिखा है।
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सैयद सबाहुद्दीन अब्दुर्रहमान, दारुल मुसन्नेफीन शिबली एकेडमी (आज़मगढ़) के एक प्रमुख स्तंभ हैं। भारतीय इतिहास पर उनका विस्तृत अध्ययन है, ये किताब उन्ही की लिखी है, जो दारुल मुसन्नेफीन शिबली एकेडमी की ओर से प्रकाशित हो रही है। इस पुस्तक में हिंदुस्तान के बडे़ बड़े हिंदू मुस्लिम इतिहासकारों की प्रसिद्ध पुस्तकों से बहुत सी ऐसी ऐसी बातें उद्धिरत की गई है जिससे भारतीय सामाजिक और सांस्कृतिक विरासत का पता चलता है, जो बहुत ही लाभकारी है।
इस किताब को पढ़ कर अंदाजा होगा कि मुसलमान, उत्तर भारत में व्यापारी के रूप में आए और उन्होंने देश में अपने आचरण और चरित्र का गहरा असर डाला है, इसीलिए उत्तर भारत के राजाओं ने उनको सामाजिक–धार्मिक छूट दी, और उनके रहन–सहन, लेन–देन, तौर–तरीकों, मामलात की सफाई, अच्छे आचरण का अनुसरण और सच्चाई के असर से, यहां ले लोगों की एक बड़ी तादाद मुसलमान हो गई, जो दिन प्रतिदिन बढ़ती ही रही। कई जगहों पर मस्जिदें बनाई गई और एक ईश्वर की आराधना की आवाजें (तात्पर्य, अजान से है), दिन में पांच बार, हवाओं में गूंजने लगी। ये मुसलमान अपने अपने राजाओं के बड़े से बड़े कार्यों का निर्वहन करते रहे, और हिंदू शासकों ने भी उन पर भरोसा किया और सहानुभूति दिखाई। जो लोग अपने क़लम के ज़ोर से, इस बात को सिद्ध करने में लगे हैं कि, उत्तरी भारत में इस्लाम, महमूद ग़ज़नवी और औरंगजेब जैसे शासकों के तलवार के बल पर फैला है। वह दक्षिणी भारत में इस्लाम के फैलने की क्या वजह बतलाएंगे? और न केवल दक्षिणी भारत में बल्कि मलाया, चीन, इंडो–चाइना और इंडोनेशिया में कभी कोई इस्लामी फौज नही पहुंची, वहां, आखिर इस्लाम कैसे फैला, और उन देशों में इस्लामिक संस्कृति कैसे परवान चढ़ी। उत्तरी भारत में मुसलमान पहले तलवारों के साए में ज़रूर आए, और उनके मार काट और खून ख़राबों से हिंदुओं के दिलों में, उनके प्रति जो भावनाएँ पैदा हुई, वह उनके दिमागों में भी गहराई से बैठ गई। लेकिन यदि दक्षिणी भारत में मोहम्मद बिन कासिम आ गया होता, तो शायद हिंदुओं के जज़्बात और होते। सिंध में वह केवल साढ़े तीन साल रहा, लेकिन इस अवधि में, हिंदुओं और बौद्धों के साथ उनका बर्ताव ऐसा रहा, कि एक मुद्दत तक लोग उनकी मूर्ति बना कर उसको पूजते रहें। यदि तुर्कों और पठानों की जगह यहां अरब आए होते, तो इस मुल्क का नक्शा दूसरा होता। फिर भी तुर्क और पठान शासकों ने, तीन, सवा तीन सौ सालों से भी अधिक समय में भारत के अंदर बहुत सी सेवाएं दीं। यद्यपि उनमें कैकोबाद जैसा भोग विलासी शासक भी हुआ है, और एक दो सख़्त बादशाह भी हुए। लेकिन कुल मिलाकर, तुर्कों की सेवाओं को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है।
शुरू में बाहर से आने वालों और मुल्क के बाशिंदों में अजनबीपन और परायापन ज़रूर रहा, लेकिन धीरे धीरे ये मिटता चला गया। समय के साथ, देशी–विदेशी का फ़र्क भी बहुत कम रह गया और एक दूसरे के रस्मो रिवाज, समझ बुझ के तरीकों और भाषा का भी असर पड़ता गया। बसंत, शिवरात्री, दीपावली, जन्माष्टमी और होली के मेलों में मुसलमान खूब शामिल होने लगे। मुसलमान खूब धूम धाम से बसंत का पर्व मनाते और खाने पीने पर खूब खर्च करते थे। शिवरात्री में गाने वालियों को सजा धजा कर राजा के दरबार में लाया जाता था और लाने वाले को इनाम भी मिलता था। हिंदू–मुस्लिम सरदार आपस में मिलजुल कर होली खेलते। मोहर्रम में हिंदू पैक बनते [मन्नत से पैदा हुए बच्चे को, मोहर्रम के दिन क़ासिद (डाकिया) का ड्रेस पहनाया जाता था, इसी को पैक बनना कहा जाता है] और उसमें धूम धाम से भाग लेते थे। हिंदू मर्द, बहुतायत में दरगाह जाते और हिंदू औरतें, वहां जाकर मन्नतें मांगती। एक दूसरे के मेलों ठेलों में आने जाने और भाग लेने का नतीजा ये हुआ की, आज की तरह हिंदू–मुस्लिम साम्प्रदायिक तनाव कभी नहीं हुआ, बल्कि, आपसी सौहार्द बना रहा। मुस्लिम शासकों के छह सौ साल के लंबे अरसे के हुकूमत में साम्प्रदायिक तनाव सिर्फ दो बार हुआ। और ये दोनो फर्रुख सियर के समय में अहमदाबाद और कश्मीर में हुआ। दोनो जगहों पर जिनका भी अपराध साबित हुआ, उसको सजा मिली। स्थापत्य कला और संगीत में तो एक दूसरे का असर इस प्रकार हुआ कि आज उसको फ़र्क कर पाना बहुत मुश्किल होगा। कपड़ों और खान पान में एक दूसरे का असर हर जगह मौजूद है।
पैग़म्बर मोहम्मद की एक हदीस (नबी की परंपरा) बताई जाती है कि आपने कहा की हिंदुस्तान की तरफ से मुझे ठंडी हवाएं आती हैं, जिसका अर्थ ये हुआ की हिंदुतान एक सभ्य देश है। हज़रत अली का भी एक कौल (बात) बताया जाता है कि हिंदुस्तान शिक्षा का केन्द्र है। ऐसा कहा जाता है कि हज़रत उमर ने अरब व्यापारियों से हिंदुस्तान का हाल चाल मालूम किया और जब उनको पता चला की हिंदुस्तान में रहने वाले लोग एक ईश्वर में आस्था रखते हैं तो उन्होंने हिंदुस्तान पर हमला करने के लिए मनाही कर दी। मुसलमानों के विश्वास के अनुसार, हज़रत आदम जन्नत से सबसे पहले हिंदुस्तान में ही आएं, और ये भी मशहूर है कि हिंदुस्तान की मिट्टी से ही हज़रत आदम बनाए गए। ये बातें कहां तक सच है इस पे बहस की यहां गुंजाइश नहीं है। लेकिन इन बातों से कम से कम यह तो पता चलता है कि शुरू से ही मुसलमानों को हिंदुस्तान से गहरा लगाव था और यह बराबर कायम रहा। अमीर खुसरो ने अपनी मसनवी ‘नू सेपहर’ में हिंदुस्तान की तारीफ के पुल बांधे हैं। हिंदुस्तान के सौंदर्य, फल फूल, यहां की आबो हवा, यहां तक कि यहां की हर चीज़ को, साक्ष्यों के साथ, पूरी दुनिया से बेहतर बताया है। बेदिल (फारसी के कवि), ने तो पुरुषोत्तम राम चन्द्र की तारीफ में तो पद्य शैली में एक पूरी किताब ही लिख डाली। हिंदू धार्मिक किताबों का फारसी अनुवाद बड़े चाव से होता रहा है।
कुछ इतिहासकार मुस्लिम शासकों को झूठ मूठ का बुरा कहने के आदि हो चुके हैं। उदाहरण स्वरूप, हिंदू ज़मींदारों पर अलाउद्दीन ख़िलजी के अत्याचार की कहानी बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत की जाती है। लेकिन इतिहासकार, उस की पृष्ठभूमि को, जैसा कि मोरलैंड ने लिखा है, नजर अंदाज कर जाते हैं। अलाउद्दीन ने, सिर्फ उन बड़े बड़े जमींदारों का शोषण किया, जो छोटे किसानों पर जुल्म करते थे, और उस समय सभी बड़े जमींदार हिंदू ही थे, इसलिए, वही इसका शिकार हुए। लेकिन दूसरी तरफ अलाउद्दीन बड़े बड़े मुस्लिम सरदारों को भी सख़्त से सख़्त सज़ाएं देने में देर नहीं करता था।
आज बाजार कंट्रोल (शासन) कामयाबी से नहीं चल रहा है, और सरकार को इस नाकामी को स्वीकार करन परता है। लेकिन ये देख कर हैरत होती है कि अलाउद्दीन ने बाज़ार कंट्रोल शासन बहुत अच्छे से चलाया। मुहम्मद तुग़लक़ ने जो सुधार किए, उसके फायदेमंद या अच्छे होने में आज किसी को संदेह हो सकता है, लेकिन वह समय से बहुत पहले था। इसलिए, इसमें उसको सफलता नहीं मिली। तुर्क शासकों का एक बड़ा कार्य ये है कि उन्होंने, हिंदुस्तान को मंगोल के हमलों से बचाया लिया। वरना, जो हश्र बग़दाद और ख्वारजीम शाही सल्तनत का हुआ, उससे बुरा हाल हिंदुस्तान का होता। उन्होंने अपनी सूझ बूझ और सैनिक शक्ति के बल पर, मंगोल आक्रमणकरियों का रुख हिंदुस्तान से हटा कर दूसरी तरफ मोड़ दिया। जिससे, एशिया की दूसरी सल्तनतें तो तबाह व बर्बाद हो गईं, लेकिन हिंदुस्तान उस खुन ख़राबों से सुरक्षित रहा।
पाठकों को इसी तरह की बहुत सी लाभदायक राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक बातों का अध्ययन इस पुस्तक में करने को मिलेगा। इस किताब को तर्तीब देकर, सैयद सबाहुद्दीन अब्दुर्रहमान ने, समय की मांग को पूरा किया है और मध्यकालीन सांस्कृतिक इतिहास का मवाद, बहुत हद तक स्पष्टीकरण और विवरण के साथ जमा कर दिया है। मुझे उम्मीद है कि यह पुस्तक भारत के मध्यकालीन इतिहास लिखने वाले के किए बहुत लाभदायक सिद्ध होगी, और देश में यह पुस्तक बहुत ही दिलचस्पी से पढ़ी जायेगी। बेहतर होता यदि इस लाभकारी पुस्तक का अनुवाद हिन्दी में होता, इसके दूसरे एडिशन में इसकी भाषा को और भी सरल और सुगम बनाने की कोशिश की जाए तो बेहतर होगा।
मुग़लों के सांस्कृतिक मेल जोल का इतिहास, शायद, इस पुस्तक का दूसरा खंड होगा। मुगलों ने तो भारत को वास्तव में स्वर्ग की तरह बना दिया, और उन्होंने दो अलग अलग लोगों को सांस्कृतिक और सामाजिक तौर पर इस हद तक एक कर दिया की उनमें बहुत कम फ़र्क बाकी रह गया है। मुसलमानो ने, हिंदुओं के नैतिक मूल्यों और चरित्र को कमजोर नहीं किया, जैसा कि बाहर से आए शासकों का चलन हुआ करता था। उन्होंने हिंदुओं के मान सम्मान को कभी ठेस नही पहुंचाई, बल्कि, उनके साथ अपनापन और दोस्ती का हाथ बढ़ा कर उनको तरक्की दी। यदि उन्होंने, ऐसा किया होता हो आज हिंदू ,अंग्रेजों से इस इतनी तत्प्रता से सल्तनत छीन लेने की योग्य, अपने में न पाते। मुसलमानो ने अपने शासन काल में पूरी कोशिश की कि, हिंदुस्तान में हीनता या गुलामी का एहसास पैदा न होने पाए। अकबर जब शहजादा सलीम की बारात लेकर जयपुर गया और जब दुल्हन का डोला बाहर निकला तो राजा भगवान दास ने था जोड़ कर कहा कि–
मार चेरी तोहार घर की बांदी
हम बांद गुलाम रहे ।
ये सुन कर अकबर तुरंत खड़ा हो गया, और राजा भगवान दास को गले लगा कर कहा कि नहीं ऐसा नहीं है, बल्कि इस तरह है–
तोहार चेरी मार घर की रानी
तुम साहेब–ए–सरदार रहे।
यह कहकर दुल्हन के डोले में खुद कांधा लगा दिया, फिर क्या था, तमाम शहज़ादे और सरदारों ने भी ऐसा ही किया, और कुछ दूर डोला उठा कर ले गए। मुसलमानों ने उर्दू जैसी धुली हुई, रसीली और मीठी ज़बान और ताजमहल जैसी सुंदर और पवित्र इमारत अपनी यादगार छोड़ी है, जिससे उनके साफ दिल होने, उनकी पवित्रता और उनके प्रेम और मोहब्बत का पता चलता है, लेकिन अफसोस–
हमें ले दे के सारी दास्तां में याद है इतना,
कि औरंगजेब हिंदुकुश था, जा़लिम था, सितमगर था।
अंत में, फिर एक बार सैयद सबाहुद्दीन अब्दुर्रहमान को इस लाभकारी और ज्ञानवर्धक पुस्तक लिखने के लिए मुबारकबाद देता हूं। यदि इसी प्रकार का इतिहास लिख कर देश के सामने लाया जाता रहा, तो हमारी बहुत सी मानसिक और राजनीतिक बीमारियों का पूर्ण ईलाज हो जायेगा।
सैयद महमूद
22 मई 1958