कमलानंद झा
प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
अलीगढ़ मुस्लिम सूनिवर्सिटी, अलीगढ़
मानव सभ्यता और महामारी के आपसी रिश्ते का इतिहास कितना पुराना है कहना कठिन है। पूर्व में महामारी का आतंक इतना भीषण और त्रासदपूर्ण था कि लोग इसे ईश्वरीय अभिशाप के रूप में देखते थे। अभी भी गाँवों में चेचक को ‘देवी’ की संज्ञा दी जाती है। महामारी की विनाशलीला को मनुष्य जाति ने बहुत करीब से देखा है और अपनी आँखों के सामने गाँव-दर-गाँव को उजड़ते हुए भी। श्मसान में लाशों को जलाने और दफ़नाने के लिए न जगह मिल पाती थी न ही इस कार्य के लिए लोग ही मिल पाते थे। महामारी के आगे मनुष्य की लाचारी और बेचारगी ने साहित्य को भी अपनी ओर आकर्षित किया। संपूर्ण विश्वसाहित्य में महामारी की त्रासदपूर्ण गाथा को केंद्रित कर एक से एक साहित्यिक रचनाएं हुई हैं, जिनमें कामू का ‘‘प्लेग’’ विश्व प्रसिद्ध उपन्यास के रूप में जाना जाता है। फ़ासीवादी उभार के बीच महामारी की मार और समाज की हृदयहीनता को समझने के प्रयास ने इस उपन्यास को श्रेष्ठतम उपन्यास का दर्जा दिलाया। कोलंबिया के प्रसिद्ध लेखक ग्राबिल गार्सिया मार्खेज के उपन्यास ‘‘लव इन द टाइम आॅफ़ कोलरा’’ में प्रेम और यातना की संघर्षकथा को अ˜ुत रूप से व्यक्त किया गया है। भारतीय भाषाओं में अहमद अली द्वारा अंग्रेजी में उपन्यास रूपी कैमरे में विलक्षण ढंग से कैद किया गया है। उर्दू में बहुत पहले राजेन्द्र सिंह बेदी ने ‘‘कोरेनटाइन’’ नाम से बेहतरीन कहानी लिखी। हिन्दी में तो मध्यकाल में ही तुलसीदास ने कवितावली में अपने समय के महामारी की कारूणिक अभिव्यक्ति प्रदान की है। आधुनिक काल में निराला के ‘‘कुल्ली भाट’’ और रेणुजी के ‘‘मैला आँचल’’ की पृष्ठभूमि महामारी ही है। इन रचनाओं से हम समझ सकते हैं कि रचनाकारों ने अपने दायित्व को समझते हुए महामारी से उत्पन्न आमजन की पीड़ाओं को समय-समय पर सर्जनात्मक अभिव्यक्ति दी है।
इन दिनों लगभग पूरा विश्व कोरोना महामारी से जूझ रहा है। पूर्व की महामारी से इसका विस्तार अधिक भयावह और तीव्रगामी है। इसने पूरी दुनिया को अपनी ज़द में ले लिया है और साथ ही मानव सभ्यता को अपने ‘लाइफ़स्टाइल’ पर पुनर्विचार करने केलिए वाध्य भी किया है। एक तरफ़ जहाँ कोरोना का संकट लोगों को अवसाद में घेर लेने के लिए आतुर है वहीं रचनाकार अपनी रचनाओं के माध्यम से लोगों को संकट की इस घड़ी में अपनी रचनाओं से हौसला-अफ़जाई कर रहे हैं। ये रचनाएँ धुप्प अंधेरे में लालटेन की रोशनी की तरह उम्मीद की किरणें बिखेर रही हैं। हताश, निराश और अवसाद में जी रही मानवजाति को सारी विपरीत परिस्थितियों में भी उनकी जीविका को बचा पाने की कोशिश के रूप में इन रचनाओं का मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
हिंदुस्तान में कोरोना महामारी की प्रभाव क्षमता को सीमित करने के उद्देश्य से पूरे देश में लंबे समय के लिए लाॅकडाउन कर दिया गया। सारी गतिविधियाँ, आवाजाही ठप्प कर दी गई। स्कूल, काॅलेज, आॅफिस, दुकान सब बंद। सभी लोग घर में बंद। इस भीषण कोरोना – काल में उर्दू के जाने माने शायर मुश्ताक़ अहमद साहब ने लाॅकडाउन सिरीज़ के तहत ‘‘आईना हैरान है’’ शीर्षक से तीस से अधिक नज़्में लिखी हैं। इन नज़्मों की विशेषता यह है कि यह नज़्में कोरोना महामारी को सभी आयामों से देखने की पेशकश करती है। कोरोना की बेबसी और लाचारी से अधिक इस भीषण दौर से जूझने की मनुष्य की अदम्य आकांक्षा की अभिव्यक्ति संकलन को विशिष्टता प्रदान करती है। मुश्ताक़ साहब की चैकस-दृष्टि छोटी-छोटी घटनाओं के महत्व से वाक़िफ़ ही नहीं है बल्कि वे उसे अपनी कविताओं मंे दर्ज भी करते चलते हैं। इसी लाॅकडाउन की अवधि में एक बेहद तकलीफ़देह घटना घटी। ‘‘पालघर के शहीद संत बाबा की चिट्ठी’’ कविता में जिन दो महात्माओं को भीड़ ने सामूहिक रूप से हत्या कर दी, इस मार्मिक घटना को कवि काव्य का विषय बनाते हैं और उन संतों को शहीद का दर्जा देते हैं। साथ ही हिन्दुस्तान में मोब-लिंचिंग की बढ़ती प्रवृत्ति पर सरापा करते हैं। यह कविता शायर के समावेशी सामाजिक सरोकार को उद्घाटित करती है।
वर्तमान में इन नज़्मों की सार्थकता तो असंदिग्ध है ही भविष्य में इन नज़्मों को एक ऐतिहासिक यथार्थ के रूप में याद किया जाएगा। इस लाॅकडाउन के दरम्यान सबसे अधिक दुर्दशा मज़दूरों की हुई। विश्व इतिहास में बतौर शर्मनाक घटना के इसे दर्ज किया जाएगा। कहीं पुलिस से पिटते, कहीं रेल से कटते, कहीं बस से कुचलते इन लाखों मज़दूरों को बेबस बेसहारा छोड़ दिया गया। इस लाॅकडाउन ने उनके मुंह का निवाला छीन लिया। गाँव जाने के लिए कोई सवारी नहीं। वे अपनी छोटी सी दुनिया अपने कंधे पर लादे, परिवार के साथ पाँव पैदल निकल गए। इन मज़दूरों की पीड़ा कवि को अंदर तक बेध जाती है। वह खुद को शर्मिंदा महसूस करते हैं, ‘‘हम शर्मिंदा हैं’’ शीर्षक कविता में लिखते हैं-
मगर हम शर्मिदा हैं
तेरे हज़ारहा मील के सफ़र
तेरे पाँव के आबलों को देखकर
तेरे कंधों पर विलकती हुई
उदास मासूमियत को देखकर
हम शर्मिंदा हैं!
इन मज़दूरों पर कभी बेशर्मी से कीटनाशक दवाएं छीट दी गईं तो कभी इनकी बेचारगी का मज़ाक़ उड़ाया गया। पुलिस की लाठियाँ इन मज़दूरों पर ही नहीं पड़ी है, मानवीय सभ्यता पर लाठियों के दाग़ ने स्थाई जगह बना ली है-
तुम खाते रहे दरबदर लाठियाँ
तुम्हारी माँ बहनें
पीटती रही छातियाँ
तेरे चेहरे पहचाने नहीं जाते!
कवि व्यवस्था को प्रश्नांकित करने से भी नहीं चूकते। यह जानते हुए कि अभी का समय सत्ता की आलोचना करने का नहीं उसकी ‘हाँ’ मंे ‘हाँ’ मिलाने का है। बावजूद इसके मुश्ताक़ अहमद एक कवि होने के दायित्व से बचना नहीं चाहते। एक सरोकार संपन्न कवि इस भारी अव्यवस्था से मची अस्त- व्यस्तता से सवाल करते हैं, सवाल करते हैं और स्वयं शर्मिंद होते हैं-
लेकिन खबरें चल रही हैं
ट्वीट पर ट्वीट आ रहा है
कहीं कोई परेशानी नहीं है
यह और बात है
कि सड़ाकों पर चल रहे
हुजूम को मयस्सर पानी नहीं है!
कोरोना जैसी भीषण महामारी का हिन्दुस्तान में आगमन उच्च वर्गों द्वारा आकाश मार्ग से हुआ लेकिन इसका क़हर टूटा मुख्य रूप से निम्नजनों पर। धीरे-धीरे महामारी देश में अपनी पहुंच बना रही थी लेकिन सरकार कभी अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप के स्वागत में व्यस्त थी तो कभी मध्य प्रदेश में सरकार बनाने की जोड़तोड़ में। इन कार्यों को निपटाने के बाद आनन- फ़ानन में लाॅकडाउन की घोषणा कर दी गइ। जिस तरह से सरकार कभी ताली-थाली बजाकर तो कभी रौशनी गुम कर, दिए जलाकर सड़कों पर मज़दूरों को खदेड़ कर आम जनता को नचाती रही और जनता बेचारी नाचती रही। इस भाव को कवि ने ‘‘कठपुतली’’ नाच के बिंब के माध्यम से विलक्षण ढंगसे प्रस्तुत किया है-
नाच, नाच, तू नाच
हर रंग मंे नाच
कि तेरी डोर
मेरे हाथों में है
नाच तु हर रंग में नाच
कि नाचना तेरा मुक़द्दर है
कविता जब थोड़ी आगे बढ़ती है तो अपना आशय स्पष्ट करती चलती है। आशय यह है कि तुम मुझे वही पुराना झोले वाला फ़क़ीर मत समझना। अब मैं तुम्हारे ‘मुकद्दर का सिकंदर’ हूँ। मैंने तुम्हारी नब्ज़ पकड़ ली है और इसी नब्ज़ के सहारे मैं मुम्हारा सिकंदर बना रहूँगा
वह दिन तो गए कब के
जब मेरे हाथों में थी झोली
हाँ सच है
तेरी बदौलत मैं बना हूँ जहाँगीर
मगर तेरे हाथों में नहीं अब मेरी तक़दीर
नाच, नाच, हर रंग में नाच
नाचना तेरा मुकद्दर है
अब कौन दूसरा सिकंदर है!
इस महामारी ने सभी धर्मों, वर्गों, जातियों को डरे-डरे, सहमे-सहमे घर के अंदर कैद कर दिया। पहली बार आम लोगों ने इस तरह के दर्द को बहुत करीब से महसूस किया है कि घर से निकले नहीं, कि गए काम से। लेकिन हिन्दुस्तान में एक ऐसी कौम भी है जो डरे-सहमे घर में बंद रहने का आदि है और उस कौम का नाम है मुसलमान। सांप्रदायिक दंगों में इस कौम की स्थिति अत्यंत दयनीय हो जाती है। हिन्दुस्तान में चुनाव जीतने के लिए सांप्रदायिकता एक आजमाया नुस्खा रहा है। भागलपुर, मुरादाबाद, गुजरात के नाम से भी काँपती है यह कौम। कवि ने अपनी कविता ‘‘मैं चुप हूँ’’ में इसी मार्मिक त्रासदी की ओर संकेत किया है-
मगर मुझे तो आदत सी हो गई है
कि यह मेरी पहली आजमाइश नहीं
मैंने देखा है चुपचाप मुरादाबाद को मुर्दाबाद होते
हाँ देखी है
गुजरात की वह सियाह रात
मेरी आँखों में बसा है
खेतों से निकलते हजारहा चेहरे
कल की तो बात है
धुआँ-धुआँ था
शाहे वक्त की नगरी का मंज़र
देश की ‘राजभक्त’ मीडिया ने कोरोना महामारी को भी एक खास धर्म से जोड़ने की कोशिश की। सारी अव्यवस्थाओं को आड़ देने के लिए महामारी को तबलीग़ी जमाअत के सर फोड़ने का आयोजन किया गया। लेकिन तुरंत ही इस तरह की धार्मिक कट्टरता के कारण सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियाँ दूसरी क़ौम में भी देखने को मिलने लगी तो मीडिया ने इस घटना से तौबा कर ली। जगन्नाथ रथ यात्रा ने तो उच्चतम न्यायालय को भी धार्मिक कट्टरता की पहचान करा दी। दूसरी तरफ़ इस दौरान ऐसे कई मंज़र भी सामने आए जब हिन्दू लाश को मुसलमानों ने कंधा दिया और अंतिम संस्कार किया। दरअसल असली हिन्दुस्तान यही है, जब विपत्ति पड़ती है तब सभी क़ौम एक दूसरे के लिए उठ खड़े होते हैं। मुश्ताक़ साहेब ने रेखांकित किया है कि कोरोना महामारी ने अपने तईं धर्म और जाति की कोई दीवार नहीं खड़ी की, सभी तरह के ‘लिबास’ वालों के साथ समान व्यवहार-
अब अख्बारों में मर रहे हैं
सिर्फ़ और सिर्फ़ इन्सान
अब लेबास किसी की पहचान नहीं
किसी के हाथों में किसी की जान नहीं!
इसी लाॅकडाउन में ईद आई और आकर चली भी गई। इस बैरौनक ईद को कवि ने बड़ी तकलीफ़ से याद किया है। इस महामारी ने ईद की सारी रौनक और सारे उमंग को अपनी मज़बूत गिरफ़्त में ले लिया। कवि अपनी कविता ‘‘लाॅक डाउन की ईद’’ में भविष्य में इस तरह से ईद को याद करना नहीं चाहते-
ईद आती थी और ताक्यामत आएगी
मगर ऐ खुदा,
फिर कभी न ऐसी ईद आए
उदासियाँ मुकद्दर हो
और ईद आए
ईद आई है मगर
ईद की याद हमें बहुत तड़पाएगी
हमें तमाम उम्र रूलाएगी!
कोरोना ने मनुष्य के अहंकार को भी आईना दिखाया है। ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में’ कहने वाले ही महामारी की मुट्ठी में चले गए। आदमजात को इस महामारी ने उसकी सीमा भी बता दिया है। प्रकृति को अपनी ‘रखैल’ मानने वाले स्वार्थ में अंधे मनुष्य को इस विकास संबंधी अवधारणा पर पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित भी किया है इस महामारी ने। कवि ने अपनी शीर्षक कविता ‘‘आईना हैरान है’’ में मनुष्य की अदम्य लिप्सा और सब कुछ को जीत लेने के दावे को इस महामारी ने किस तरह अंगूठा दिखाया को काव्यात्मक
अभिव्यक्ति दी है-
कि हमें दावा था बहुत
अपने इल्म व हुनर का
हमपल्ला समझ रहे थे
खुद को उस अज़ीम तर का
हम रात को दिन बनाने चले थे
चाँद पर बस्ती बसाने चले थे
पाकर रूतबा अशरफुल मखलूक़ात का
भूल बैठे थे सबक कायनात का!
वैज्ञानिकों ने इस बात की तस्दीक़ की है कि कायनात के सबक़ को सायास भूल जाने के कारण ही इस तरह की आपदाएँ और विपत्ति आती रहती हैं। लेकिन मनुष्य अपने गुरूर में इन संकेतों को समझ नहीं पाता या सायास नहीं समझना चाहता।
इस महामारी ने तो स्त्री, पुरूष सभी को अपनी ज़द में ले लिया है, लेकिन इस लाॅक डाउन में औरतों की तबाही की इंतहा हो गई। औरतों की तबाहियों और पीड़ाओं की ना जाने कितनी तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हुई। भूख से तड़पते बच्चे और पाँव के छाले लिए बच्चे को एक माँ नहीं बर्दाशत कर सकती। लेकिन इस राष्ट्रव्यापी बंदी ने माँओं को भी अपने दिल पर पत्थर रखने पर विवश कर दिया। ‘‘आईना हैरान है’’ में ‘‘औरत’’ के विविध रूपों से कवि साक्षात्कार कराते नज़र आते हैं। यह कविता औरत की शक्ति और सामथ्र्य को विलक्षण ढंग से उद्घाटित करती है। कवि कहते हैं-
बे जिस्म रूह की जान है तू
उदास चेहरों की मुस्कान है तू
तेरी अज़मत पे रश्क करता है उफ़क
तेरे क़दमों में है जन्नत, माँ है तू
कवि ने कहा है कि औरत होने के मायने सिर्फ़ बच्चा पैदा करना नहीं है बल्कि औरत की असली भूमिका इससे इतर है-
तू महज़ हयातयाती अफ़ज़ाइश नहीं है
तू रौनके बज़्म की नुमाईश नहीं है
तू वजहे गर्दिशे अफ़लाक है
तू सुरागे़ ज़ीस्ते लौलाक है
इस कविता को पढ़ते हुए कैफ़ी आज़मी की कविता ‘‘उठ मेरी जान, मेरे साथ ही चलना है तुझे’’ की याद स्वभाविक है। औरत की दशा, दुर्दशा, बंदिशें और इस सब से जूझने की उसके अपार सामथ्र्य को कैफ़ी साहब की क़लम ही इतनी खूबसूरती से अभिव्यक्त कर सकती है। इस कविता की विशेषता यह है कि इसमें उन्होंने औरतों को इन सारी बंदिशों को रौंद डालने का आहवान किया है जो उन्हें पुरूषों का गुलाम बनाए रखने पर आमादा है। पितृसत्ता की सारी जं़जीरों को छिन्न-भिन्न कर देने की सिफ़ारिश इस कविता को विशिष्ट बनाती है-
तोड़ ये अज़्म-शिकन दगदगा-ए-पंद भी तोड़
तेरी ख़ातिर है जो ज़ंजीर वो सौगंद भी तोड़
तौक़ ये भी ज़मर्रद का गुल-बंद भी तोड़
तोड़ पैमाना-ए-मर्दान-ए-खि़रद-मंद भी तोड़
बन के तूफ़ान छलकना है उबलना है तुझे
उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे!
कैफ़ी साहब की यह कविता स्त्रियों को पुरूषों की अनुगामिनी नहीं सहगामिनी होने का ऐलान करती है।
‘‘आईना हैरान है’’ कविता का मूल भाव महामारी की भयावहता, त्रासदी और मनुष्य जाति की असहायता को दर्शाने के साथ हिन्दुस्तान की साझी संस्कृति और साझी विरासत को अधिक से अधिक मज़बूत करने का है। अधिकांश कविताओं में हिंदू और मुस्लिम संस्कृति की गौरवशाली परम्परओं को रेखांकित किया गया है। कवि की राय में भारत की आत्मा ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ में बसती है। हिन्दुस्तान की अभूतपूर्व और बहुरंगी ‘आभा’ मंे सभी धर्मों, जातियों, नस्लों और वर्गों का बहुमूल्य योगदान है। इस दृष्टि से ‘‘इल्तजा’’ कविता पर ग़ौर फ़रमाने की ज़रूरत है-
यह तौरात व ज़बूर, यह इन्जील व कुरआन
यह गीता का ग्रंथ, यह वेद व पुराण…..
यह ‘तानसेन’ का मलहार, ‘रविशंकर’ की धुन
यह ‘हीरालाल’ की थाप, -बिरजू’ की थिड़कन
यह ‘चैरसिया’ की बांसुरी, ‘बिस्मिल्लाह’ की शहनाई
यह ‘मीर’ व ‘ग़ालिब’ की ग़ज़ले
यह ‘पंत’ व ‘निराला’ की नज़्में
कवि मुश्ताक़ साहब की निगाह छोटे से छोटे कामगारों की तरफ़ भी जाती है। वह अत्यंत रागात्मकता के साथ उनकी चिंताओं को साझाा करते हैं। उन्हें गाँव का वह कुम्हार भी याद आता है जो अपनी ‘उंगलियों की जुंबिश से’ पनघट पर पानी भरती स्त्रियों के लिए रंग-बिरंगे घड़े बनाते थे और दीपावली के लिए दिए भी। लेकिन इन दिनों उसके चाक बंद हैं, उसकी निराश आँखें सूखी मिट्टी को सिर्फ़ ताकती भर हैं। कविता में वह पाठकों को कुम्हार की उदास चाक की दुःख भरी सैर कराते हैं-
पनघट पर घड़ों की खनक
दिलों में सौ-सौ सुर बाँधते थे
दिवली की वह डिबिया
ज़ेहन-व-दिल पे अंधेरे को रौशन करती थी…….
मगर आज वह कूज़ागर
टकटकी लगाए
अपने खामोश चाक को देख रहा है
सूखी मिट्टी का दर्द झेल रहा है
के अब उसको
गीली मिट्टी का इंतज़ार है
शाश्वत साहित्य लेखन के आकांक्षी और उस साहित्य के पैरोकारों को संभव है लाॅकडाउन अवधि की ये कविताएँ रास न आए और वह इन कविताओं को तात्कालिक कविता के खाते में डाल दें। लेकिन यह कविताएँ अपने समय से संवाद करती हैं। काल निरपेक्ष शाश्वत कविताओं की महत्ता काव्यात्मक दृष्टि से उच्च कोटि की हो सकती है, किंतु जिस कविता में अपने समय को आंकने, थाहने और सूँघने की सामथ्र्य न हो वह कविता काव्यविलास के लिए तो हो सकती है किंतु मनुष्यता की पुकार और मानव आकांक्षा को व्यक्त करने में सक्षम नहीं होती। ‘‘आईना हैरान है’’ में संकलित कविताएँ एक भयानक त्रासदी को जानने-समझने की चिंता से लैस एक सुंदर, स्वस्थ और सामंजस्यपूर्ण समाज के सपने संजोती कविताएँ हैं। ये कविताएँ इस महामारी के अवसाद से समाज को निकालने की पुरज़ोर कोशिश है।‘‘ऐतराफ़-ए-जुनूँ’’ में मुश्ताक़ साहब लिखते हैंः-
आओ एक नया नुस्खा-ए-हयात बनाएँ
मासूमियत के जुगनू से
मुसल्लत रात का आसेब मिटाएँ!