कवीता मर गई कल सांझ ढले
समझ नही पायी मैं
उन नेत्रों में मेरे लिए छिपी
अनकही को
या फिर समझ कर नासमझी की परत चढ़ा ली अधरों पर
उस नासमझी पर
लिखी गई
कविता मर गई कल सांझ ढले
कल सांझ का सूरज
उस प्रकार नही डूबा
जिस प्रकार प्रतिदिन
वह डूबता है और
अतृप्त लालिमा रह जाती है आस लगाए,
कल सांझ के सूरज ने
लालिमा के साथ आशा भी समेट ली
अंधकार पर लिखी गई
कविता मर गई कल सांझ ढले
कल रात्रि के तीसरे प्रहर जब
तुम्हारी स्मृतियों की रातरानी महकी
मुझे आभास हुआ तुम आए हो
सूना पड़ा आंगन रोता ही रहा अनकहे दुख से..
उस क्षण पर लिखी गई …
कविता मर गई कल सांझ ढले
यूं तो सांझ ढले कई कविताएं मरती हैं
पर जिस कविता ने कल
अंतिम श्वास ली वह
कविप्रियाओं के असीमित शोक में डूबी
अंतिम कविता थी।।