प्रोफेसर मोहम्मद सज्जाद
यह कहानी एक मुस्लिम अपराधी की राजनीतिक शक्ति हासिल करने की है, जिसे अपने गांव तथा अपने धर्म के लोगों का पूरा समर्थन था (शायद इसलिए कि उन्होंने इसे मुसलमानों के गौरव के स्रोत के रूप में देखा)।
यह किसी भी क्षेत्र में हो सकता है, लेकिन इस कहानी में जिस प्रकार की आपराधिक गतिविधियां हुईं हैं, वह उत्तर बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े गाँव तुर्कऔलिया (पारू-सरैया थाना क्षेत्र) से संबंधित है।
यह कहानी आज इस आशा से कही जा रही है कि, आपराधिक पृष्ठभूमि और हाशिए के तबके के एक आदमी पर नज़र डाली जानी चाहिये, कि यह कहानी लोगों को आज के समाज के नैतिक पतन के बारे में सोचने के लिए प्रेरित करेगी, कि क्या किसी भी हालत में, एक वंचित वर्ग/समुदाय, खुद को सशक्त करने के लिये अपराध, अपराधी और धर्म का भी उपयोग करेगा, या कर सकता है?
अपराध की गंदी प्रवृत्ति ने इस गांवों के लोगों को, विभिन्न तरीकों से जकड़ लिया था, और है। गाँव के इतिहास में (सामूहिक स्मृति), किसी भी युवक ने लूटपाट या अपराध का सहारा नहीं लिया था, अर्थात, “जीविका के लिए” या व्यक्तिगत लाभ के लिए हिंसा पर भरोसा नहीं किया था। लेकिन 1995-96 के अाए पास, दो लोगों ने मोटरसाइकिल स्नैचिंग गिरोह के साथ संबंध बनाए। उनमें से एक गाँव छोड़कर भाग गया, लेकिन दूसरा गाँव में ही रह गया, और पहले से बड़ा अपराधी बन गया। गाँव के कुछ ज़िम्मेदार लोगों ने कथित तौर पर उन्हें “मुसलमानों की गरिमा” को बनाए रखने में अपना नैतिक समर्थन दिया। इस अपराधी की रूपरेखा को थोड़ा और विस्तार से देखना उचित होगा।
महफ़ूज़ (बदला हुआ नाम), जो 1971 में इस गांव में पैदा हुआ था (और 2013 में निधन हो गया), मामूली जोत वाले ग़रीब शेख़ मुस्लिम परिवार से था। यह ग़रीबी कुछ भी स्पष्ट नहीं करती है, क्योंकि, इसी पृष्ठभूमि के अन्य लड़के स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद ही आजीविका की तलाश में परदेस को निकलते हैं। महफ़ूज़ ने ऐसा नहीं किया था, क्योंकि उस ने कभी भी, नाममात्र की हिंदी और उर्दू साक्षरता से परे, शिक्षा प्राप्त करने की ज़हमत नहीं उठाई। 1990 के दशक के दौरान, वह अपने पिता के पास, कलकत्ता के नज़दीक, सीरामपुर नामक एक छोटे से शहर में, काम करने चला गया, ताकि वह परिवार की मामूली आय में कुछ इज़ाफ़ा कर सके। लेकिन जल्द ही, अपने पहले शिकार, एक विधवा, को कुछ हजार रुपये लूटने और मार देने के बाद वह अपने गांव लौट आया।इस लूट से प्रोत्साहित होकर, वह तब से, गाँव में “आपराधिक” जीवन जी रहा था!
1990 और 2005 के बीच, लालू-राबड़ी के नेतृत्व वाली बिहार सरकार ने, ग्रामीण इलाकों में, आपराधिक व्यापार के एक विशेष रूप के उद्भव को देखा, अर्थात् वाहनों को छीनना और फिरौती के लिए लोगों का अपहरण। यह वह समय था जब सिवान के कुख्यात ठग मुहम्मद शहाबुद्दीन ने लालू-राबड़ी के सक्रिय राजनीतिक संरक्षण के तहत खुद को विधायक और फिर सांसद बनाया।इस प्रकार मुहम्मद शहाब-उद-दीन बिहार के कई गुमराह मुसलमानों के लिए एक उदाहरण या प्रेरणा स्रोत बन गया था (1)।
महफ़ूज़ भी एक बुद्धिमान, और अपराध में प्रशिक्षित व्यक्ति के रूप में पूर्वी चंपारण के चकिया नामक एक छोटे, बाजार- शहर में, एक उसी प्रकार का उत्साही “उद्यमी” बन गया।यह स्थान मोतीहारी-मुजफ्फरपुर राजमार्ग पर स्थित है, जो इस क्षेत्र की एक महत्वपूर्ण जीवन रेखा है। इलाक़े के जानकारों का कहना है कि उसके गिरोह ने हिरो होंडा बाइक से लदे एक पूरे ट्रक को लूट लिया और लूटे हुए माल को पड़ोसी इलाकों में बेच दिया।उस गिरोह का उत्साह और संसाधनों की प्रचुरता इस तथ्य से स्पष्ट है कि चुराए गए सामानों के दस्तावेजों को बनाना इसके लिए कोई समस्या नहीं थी, क्योंकि यह कथित तौर पर सरकारी अधिकारियों से आवश्यक सहयोग प्राप्त करने में सक्षम था। सभी सफल उद्यमियों की तरह, महफूज़ को जोखिम को कम करने और संतुलित करने की एक सहज क्षमता थी। मेहसी-चकिया (पूर्वी चंपारण) में पुलिस का पीछा करने से बचने के अलावा, उसने “सुरक्षित और उपयोगी” तरीके से लूटे गए सामान (अर्थात, मोटर साईकिल और अवैध हथियार) का निपटारा करने के लिए अपने आधार को अपने गांव में वापस लाने का फैसला किया।
ग्रामीणों के अनुसार, उसके पहले दो “ग्राहक” गांव के दो सरकारी स्कूल शिक्षक थे, जिन्हें गाँव के शरीफों जैसा माना जाता था। इन दोनों शरीफों में से एक तो भाग्यशाली साबित नहीं हुआ कि अग्रिम रूप से 15,000 रुपये का भुगतान करने के बाद, उसे पैसे वापस नहीं मिले और न ही उसे कोई दो पहिया मिले जो उसका दिल चाहता था। दूसरे शरीफ बंदा, अज़ीम-उद-दीन (बदला हुआ नाम) की किस्मत थोड़ी बेहतर थी क्योंकि उसे एक दुपहिया वाहन मिला जो दहेज के रूप में उसके दामाद के पास गया (2)।
इस सौदे ने गाँव-समुदाय का ध्यान आकर्षित किया। क्योंकि जो व्यक्ति बाइक प्राप्त करने में कामयाब रहा, वह एक प्रकार का रोल मॉडल था और वह सरकारी वेतन के अलावा निजी ट्यूशन पढ़ा करके अपनी आय को बढ़ाता था। उसकी छोटी-सी खुशहाली, साथ ही साथ उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा, जो अभी भी हरेक गाँव में गुरु या शिक्षक से जुड़ी हुई है, ने घर लौटने वाले अपराधी का ध्यान आकर्षित किया।
इस तरह, “प्रेरित” महफूज ने एक स्थानीय व्यवसाय स्थापित करने के लिए गांव में फिर से बसने का फैसला किया – फिरौती के लिए कारों को छीनना और लोगों का अपहरण करना। अपराध के इस व्यापार को चलाने के लिए उसने आसपास के, गाँव के, युवाओं की मदद भी ली, जो कि कम बुद्धिमान, लेकिन अनुभवी और समान विचार वाले थे। राजमार्ग पर, और मस्जिद से सटे उसका घर, उसके आपराधिक “व्यवसाय” के लिए एक वरदान साबित हुआ। क्योंकि यह उसके साथियों के लिए एक सुरक्षित स्थान था, और “व्यापार के उपकरण” के लिए – अवैध हथियार- के लिये उपयोगी जगह का काम करने लगा। यह व्यवस्था पूरी तरह से छिपी नहीं थी, जैसा कि इस तथ्य से जाहिर होता है कि पुलिस ने एक से अधिक बार उसके घर पर छापा मारा, और एक बाइक बरामद की जो बाइकर या मालिक को मारकर छीनी गई थी। (ऐसा कहा जाता है कि इस तरह के एक पुलिस छापे के दौरान, उसने बिस्तर के नीचे एक अवैध (AK-47) हथियार छिपाया था, जिस पर उसकी बहन प्रसूति पीड़ा से पीड़ित थी और इस तरह पुलिस को चकमा देने में सफल रही। हालांकि, पुलिस ने फिर उसकी बहन का अपमान किया, जिसके बाद उसने उससे नफरत की और मायके वापस न लौटने का फैसला किया। 2007 में, उसकी अल्पकालिक गिरफ्तारी को छोड़कर, केवल इन छोटी-मोटी परेशानियों को छोड़ दें, तो उसे प्रशासन से कोई खास नुकसान नहीं हुआ था।
इस बीच, एक नजदीकी गांव के एक राजपूत अपराधी (महफूज़ जिसका सहयोगी था) को पुलिस के विशेष कार्य बल (एसटीएफ) ने एक मुठभेड़ (2006) में मार दिया था। यह “मुठभेड़” हाईवे पर, गाँव के बीचो बीच, दिन के उजाले में हुआ। और आम लोगों को बड़ी राहत मिली। लेकिन साथ साथ, एक कुख्यात अपराधी की इस हाई प्रोफाइल मौत ने महफ़ूज़ की ख्याति में इज़ाफ़ा किया, जिसने एसटीएफ को अन्य अपराधी को फंसा कर मर वाने में मदद की थी। क्यों? क्योंकि अपराधी जनता में डर पैदा करके ही बचते हैं और यही करने में महफ़ूज़ कामयाब रहा था। इस घटना ने न केवल उस राजपूत अपराधी को खत्म करने की महफ़ूज़ की क्षमता को उजागर किया, बल्कि पुलिस के साथ उसकी मिलीभगत, एक मुखबिर के रूप में, सभी को ज्ञात हो गई। यह व्यापक रूप से माना जाता है कि महफूज अपने दोस्त के साथ एक बच्चे के अपहरण में शामिल था, जिसे बाद में पुलिस ने पकड़ लिया था और पूछताछ के दौरान उसने न केवल अपने साथी को दोषी ठहराया, बल्कि अपने राजपूत साथी को मर वा भी डाला। तभी से, उसने एक भयानक अपराधी की छवि का आनंद लेना शुरू किया। हालाँकि, इस घटना ने एक जटिल और असंतोषजनक सामाजिक रिश्ते को भी जन्म दिया क्योंकि पीड़ित परिवार इस “ग़द्दार” (महफ़ूज़) का दुश्मन बन गया।
स्थानीय निकायों (पंचायती राज संस्थाओं) और संविधान सभा के तीन स्तरों के चुनावों में, राजनीतिक उम्मीदवारों ने इस आपराधिक युवा को एक उपयोगी व्यक्ति के रूप में देखना शुरू किया। इसलिए, 2001 और 2006 के पंचायत चुनावों में, इस अपराधी को बहुत प्रसिद्धि मिली। राजनेताओं ने उन्हें “बूथ प्रबंधन” (मतलब वोट लूटने) के लिए नियुक्त करना शुरू कर दिया।
सरकार की कल्याणकारी योजनाएं, जैसे कि इंदिरा आवास योजना के तहत गरीबों को मकान देना या गरीबों को लाल कार्ड योजना के तहत गरीबों को बहुत सस्ता खाद्यान्न देना, आदि, केवल अनपढ़ गरीबों को लाभ दे सकते हैं जिस व्यक्ति के बारे में हम लिख रहे हैं, उसके माध्यम से योजना का हिस्सा गाँव के चुने हुए प्रतिनिधि और अफसरों तक पहुँचता। उदाहरण के लिए, इंदिरा आवास योजना प्रति व्यक्ति 45,000 रुपये देती थी। लेकिन सामान्य नियम यह है कि इस पैसे का दस से पंद्रह हजार रुपये प्रतिनिधी और दलाल (इस मामले में उल्लेखित गुंडे) की जेब में चला जाता है। राष्ट्रीय बैंकों के ग्रामीण शाखा के प्रबंधक भी शामिल होते हैं (इन बैंकों की शाखाएं 1980 के दशक की शुरुआत में खोली गई थीं), अन्यथा बैंक खाता खोलना अनपढ़ गरीबों, खासकर महिलाओं के लिए लगभग असंभव हो जाता है, क्योंकि घरों के ज्यादातर पुरुष दिल्ली, कलकत्ता, बैंगलोर, मुंबई, पंजाब, गुजरात आदि में दूर-दूर रहते हैं, टैक्सी ड्राइवर, इलेक्ट्रिशियन, राज मिस्त्री, आदि के रूप में काम करते हैं। इस तरह, यह मुखिया, अपराधी, दलाल और बैंक मैनेजर के बीच सांठगांठ की कहानी है।
इस स्थिति के उदय के लिए मिश्रित प्रतिक्रियाएं आई हैं। कुछ लोग हैरान थे कि उनका गांव पहले की तरह ग़रीब था, लेकिन अब शांत जगह नहीं रही थी, और अपराध का एक भयावह स्थान बन गया था, जबकि कई लोगों ने अजीब अजीब तरह के बहाने बनाने में राहत महसूस की। बड़े समूह को इस स्पष्टीकरण से राहत मिली कि “अब जमींदारों, राजपूतों, यादवों, मुखिया या अत्याचारी और राजनेता, हम मुसलमानों की उपेक्षा नहीं कर सकते, उन्हें हमारे साथ मोलभाव करना होगा और अपनी लूट या शक्ति शेयर करनी होगी। ये इस निष्कर्ष पर आए कि महफ़ूज़ जैसे साधन संपन्न व्यक्ति ने गाँव के मुसलमानों को एक राजनीतिक ताकत बना दिया था। अपनी नई लोकप्रियता के मद्देनजर, महफ़ूज़ ने भी अपने प्रशंसकों की उम्मीदों पर खरा उतरने का फैसला किया। उसने एक शक्तिशाली व्यक्ति की हत्या करने की योजना बनाई और (दिसंबर 2008 में उसकी हत्या की साजिश में सहायता की। यह शख्स मुखिया पद का आकांक्षी था। उसी अपराधी महफूज ने 2006 के पंचायत चुनावों के दौरान उसी पीड़ित के असफल चुनावी प्रयास के दौरान उसे महत्वपूर्ण चुनावी समर्थन प्रदान किया। बदले में, पीड़ित ने पुलिस को पैसे देकर रिश्वत देने में मदद की ताकि उसका पुलिस रिकॉर्ड साफ हो सके।
कई अपराधियों की तरह, महफूज ने भी अब महसूस किया कि अगर वह पंचायत का ताज हासिल करने में दूसरों की मदद करने के बजाय खुद ताज पहनता है तो वह उससे कहीं अधिक लाभ उठा सकता है। भूमिका के इस बदलाव के पीछे एक और कारण है, स्पष्ट रूप से, 2006 के बाद से अपराधियों पर पुलिस का शिकंजा, नीतीश कुमार सरकार के अधीन बढ़ने लगा था। (नीतीश कुमार ने जनता से, लालू-राबड़ी के “जंगल राज” के अंत और सरकार के बेहतर रूप यानी सुशासन का वादा किया था।)
एक हत्या की जांच के दौरान, इस संदिग्ध (महफ़ूज़) को गिरफ्तार किया गया था। इस रूप में जेल में थोड़े समय बिताने के बाद, उसने अपने लिए निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए काम करना शुरू किया। इस स्तर पर, हमें अपनी कहानी में गाँव के उन दो शिक्षकों का उल्लेख वापस लाना होगा । वही दो शिक्षक जो उसके पहले दो ग्राहक थे जब उसने लूटे गए मोटर साईकिल को अधिक कुशलता से बेचने के लिए अपनी जड़ों की ओर लौटने का फैसला किया था। इन शिक्षकों ने अपने प्रेरक कौशल के माध्यम से, ग्रामीणों को पंचायत के चुने हुए पद के लिए अपने हीरो महफ़ूज़ को उस की विशाल क्षमता का एहसास कराया। लोगों को शिक्षित करने के इस अभियान में, उन्होंने हिंदू-विरोधी, मुस्लिम-संप्रदायवाद की खुराक का काफी मात्रा में उपयोग किया। निस्संदेह, उसने अपने तथाकथित आदर्श को प्रेरित करने और अपने अहंकार को शांत करने के लिए अपनी शक्ति में सब कुछ किया।
इस बीच, अपने राजनीतिक अभियान के साथ आगे बढ़ते हुए, और 2011 के पंचायत चुनावों की प्रतीक्षा करते हुए, 2009 में, महफूज़ ने अपने गिरोह में, गाँव के 5-6 युवाओं की भर्ती की, जिनमें से अधिकांश 15 वर्ष से कम उम्र के थे। इन लड़कों को सौंपे गए महत्वपूर्ण कार्यों में से एक था, गाँव के सभी घरों में जाना और उन छोटे-मोटे झगड़े, संघर्षों और मुद्दों का पता लगाना, जिनमें यह “उभरता नेता” हस्तक्षेप कर सकता था। चूँकि इस गाँव के अधिकांश वयस्क पुरुष बाहर काम कर रहे हैं, गरीब अनपढ़ या गरीब शिक्षित महिलाएँ इस पर निर्भर हैं कि वे न केवल मामूली घरेलू विवादों का निपटारा करें, बल्कि कुछ मुद्दों को भी हल करें, जैसे स्थानीय स्तर पर ईलाज के लिए, सामुदायिक विकास प्रखंड और पुलिस स्टेशन, आदि, से कुछ काम करवनाे के लिए, बैंक खाते खोलने के लिए। इसके कुछ अन्य “लाभ” भी थे। उदाहरण के लिए, एक सस्ते किराना स्टोर (जिसे “डीलर” कहा जाता है) का मालिक गरीब महिलाओं को केरोसिन, चीनी, आदि की “सही मात्रा” देगा, केवल जब यह धमकाने वाला, जो गरीबों का मसीहा बन जाता है, ने हस्तक्षेप किया। या विवाह के बाद दहेज के विवादों को उसी तरह से सुलझाएगा। जाहिर है, इन सभी सेवाओं की कीमत भी अदा करनी होती थी। महिलाओं को यह पता था, लेकिन वे यह भी जानती थीं कि उनके पास बहुत सीमित विकल्प थे। यह व्यवस्था, एक आकर्षक व्यवसाय होने के अलावा, इसकी “लोकप्रियता”, “प्रभाव” या “करिश्मा” और दबदबा में वृद्धि हो रही थी ।
लेकिन अप्रैल 2011 के पंचायत चुनाव के करीब आते ही चुनावों के प्रबंधन के लिए कुछ और कदम उठाने पड़े। इसके लिए गांव के मुसलमानों की पारस्परिक सामाजिक (जातियों की) विविधता पर ध्यान देना महत्वपूर्ण था। मुस्लिम लक्ष्यों के इस नए स्वघोषित प्रस्तावक के पक्ष में, राइन और धुनिया समुदाय के लोगों का समर्थन भी आवश्यक था। इन दोनों शिक्षकों की नज़र में, धार्मिक भावनाओं को जगाना ही सबसे प्रभावी तरीका था। गाँव की मस्जिद के लिए ज़मीन का मसला इसलिए सामने आया ताकि उसका इस्तेमाल वोटिंग मशीन के रूप में किया जा सके। इन दो धर्म और समाज सुधारकों ने पाया कि मस्जिद के लिए आवंटित भूमि का केवल आधा हिस्सा ही नमाज़ स्थल के रूप में इस्तेमाल किया गया था और आधी जमीन अभी भी वक्फ करने वाले केशपरिवार के कब्जे में थी। एक शानदार इमारत के निर्माण के लिए अल्लाह से संबंधित होना आवश्यक था, जो उनकी धार्मिक और राजनीतिक पहचान की घोषणा करता। कागजात की मदद से, वक्फ-ए-कार के उत्तराधिकारी ने दावा किया कि वक्फ-कार द्वारा दी गई जमीन की मात्रा पहले से ही मस्जिद के अधीन थी। लेकिन इस सब का कोई फायदा नहीं हुआ क्योंकि दोनों शिक्षकों ने अपने साहसिक छात्र (महफ़ूज़) को अवसर न चूकने और मुद्दे को पूरी तरह से, हर ग़लत तरीके से जीवित रखने के लिए सिखाया था। खबरों के अनुसार, 17 जनवरी से 19 जनवरी, 2011 तक (अपराधी के) घर पर तीन दिवसीय परामर्श बैठक आयोजित की गई थी, जिसकी दोनों महानुभावों (गुरूओं) ने “अध्यक्षता” की थी। जाहिर है, यह सलाह उस शख्स के कान में शहद की तरह थी, जिसने हिंसा और अराजकता में उत्कृष्ट प्रशिक्षण प्राप्त किया था। अपमान के आगामी तूफान में अप्रत्याशित रूकावट भी थी। गाँव का एक सीधा सादा निवासी, जिसकी निजी स्थिति बहुत मामूली थी, लेकिन जो गाँव के एक प्रमुख शेख परिवार से था, उसने दो शिक्षकों और इस डाकू के बीच के सांठगांठ को भांप लिया, और दर्दनाक सवाल उठाने लगा। इससे भी बुरी बात यह थी कि उस आदमी का संदेह लोगों की समझ में आने लगा था, जिससे षड्यंत्रकारियों में भारी बौखलाहट हो गई।
उक्त बैठक (जनवरी 17-19, 2011), के कुछ हफ्ते पहले, एक शुक्रवार को, मस्जिद के अंदर, जुमा की नमाज के बाद, उक्त विस्मृत व्यक्ति के साथ भयानक नोंक-झोंक हुई थी जो मस्जिद के रखरखाव और पुनर्निर्माण में इस्तेमाल होने वाली चंदे की रक़म से संबंधित था। उस बहस में, दो “शरीफ” शिक्षकों पर 25,000 रुपये से 30,000 रुपये का गबन करने का आरोप लगाया गया था। आरोपी द्वारा धन एकत्र किया गया था और उसने दावा किया कि उसने इसे शिक्षकों को सौंप दिया था, लेकिन दोनों शिक्षक इससे इनकार कर रहे थे। कई लोगों ने अनुमान लगाया कि शिक्षक चोरी के मोटरसाइकिल के बदले में शिक्षकों से मिले पैसे को वापस लेना चाहते थे, और उन्होंने ऐसा किया। जाहिर है, भंडा फटने से शिक्षक और अपराधी दोनों को बहुत चिंता हुई, जो गाँव का मुखिया बनने की कोशिश कर रहा था।
जाहिर है, इस गंदे राजनीतिक खेल का मिथ्याकरण इस अपराधी की चुनावी संभावनाओं को उल्टा कर सकता था, और इसलिए इस व्यक्ति का तत्काल क़तल, जो अन्यथा हानिरहित था, आवश्यक था। इसलिए (19 जनवरी, 2011 को) वह मारा गया। लेकिन हत्या को गुप्त रखना भी महत्वपूर्ण था। प्रत्यक्षदर्शियों (अपराधी के परिवार में से कुछ सहित) ने बाद में गुप्त रूप से बताया कि जब वह आदमी शाम (मग़रिब) की नमाज के लिए मस्जिद में प्रवेश करने वाला था, तो अपराधी सहित दो लोग उसके पास पहुंचे। उसे दबोच लिया गया, जबरन किसी तरह का “घातक” या बेहोशी वाला इंजेक्शन लगाया गया, और अपराधी के घर के बाहरी वाले एक कमरे में ले जाया गया, जो मस्जिद के प्रवेश द्वार से मुश्किल से 8 फीट की दूरी पर था । सिर को लकड़ी की खिड़की से टकराया। वहाँ, उसके शरीर पर शराब डाली गई थी, और उस शांत, सर्दियों की कंपकंपी शाम (19 जनवरी, 2011) को, बेहोश आदमी को उसके घर ले जाया गया, जहाँ उसकी पत्नी को कहा गया था कि कच्ची अवैध शराब पीने के कारण वह होश खो बैठा, और यह खि उसे रात की अच्छी नींद के बाद ठीक हो जाएगा । अगली सुबह (20 जनवरी, 2011) उन्हें मृत पाया गया।
पूरे गाँव को उसकी मौत की खबर फैलाने की धमकी दी गई थी: कि उसकी मृत्यु हो गई थी। बा रसुख और “शरीफ” मास्टर इन साजिशकर्ताओं में से थे और वे आखिरकार इस क़तल के असली आपराधिक कारण को छुपाने में सफल रहे। उन्होंने दावा किया कि मृतक, सड़क पर बेहोशी की हालत में पड़ा था, जहाँ से वे उसे अच्छे नागरिकों की तरह उठाकर उसके घर ले आए थे। जब तक मौत का रहस्य गांव या देश के बाहर रहने वाले मृतक के रिश्तेदारों को पता चला, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। आखिरी मुस्कान अपराधी, महफूज़ (जो मानसिक रूप से बीमार हत्यारे के कुछ निशान थे) और गांव के उन तथाकथित शरीफों के होठों पर थे जो अपराधी के मददगार थे। यह भी कहा गया था कि इस मासूम की हत्या की साजिश में इन “रईसों” के शामिल होने का एक मुख्य कारण यह था कि वह शिक्षा में अपने परिवार की उपलब्धियों और अपने सफल पेशेवर जीवन से ईर्ष्या (जलन और हसद) करता था। उनके कारण, उनके परिवार को लंबे समय तक क्षेत्र का एक सम्मानित और प्रभावशाली परिवार माना जाता था और यह गांव के कुछ लोगों की नज़र में था। ग्रामीण जीवन की यह विशेषता इस प्रकार के एक अन्य अध्ययन में भी प्रस्तुत की गई है: “गरीबी, ईर्ष्या, जाति उत्पीड़न, यौन विभाजन, अंतहीन झगड़े और ग्रामीण जीवन की सामान्य मूर्खता ने सतह के नीचे एक आकर्षक गांव बना दिया है। और घर ढूंढ लिया है। बुद्धि का ठहराव और सभ्यता का क्षय इसके सबसे बुरे पहलू थे। ” (3)
बाद में, इस हत्या के उद्देश्य के बारे में सच्चाई की एक और परत उभरने लगी। उनके घरों की खिड़कियों से, कुछ महिलाओं ने वास्तव में उस आदमी को देखा था जो मग़रिब की नमाज़ के लिए मस्जिद में प्रवेश करने वाला था जब महफ़ूज़ और उसके साथियों ने उसे छीन लिया, तो वह पीछे से पहुंचा और अपना मुँह बंद कर लिया। , इस बदमाशी के कमरे में एक स्थानीय दवा की दुकान (शायद फोर्टविन कहा जाता है और अपहर्ताओं द्वारा अपने शिकार को बेहोश करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है) से उसकी गर्दन में इंजेक्शन लगाया गया था। उसे मस्जिद के प्रवेश द्वार से मुश्किल से 8-दस फीट की दूरी पर घसीटा गया, और फिर मार डाला गया। कुछ रिपोर्टों के अनुसार, उसकी योजना अगले चुनाव के लिए पैसे जुटाने के लिए फिरौती के लिए उसका अपहरण करने की थी। उसके लिए उन लोगों ने एक दक अपराधी को चंपारण से आयातित भी किया था। इस ‘आयातित’ अपराधी ने तुरकौलिया की एक महिला से शादी की थी। 4.
चूंकि यह पूरा खेल समय से पहले ही उजागर हो गया था। इसलिए उन्हें योजना को छोड़ना पड़ा और उस आदमी को मारना पड़ा। चश्मदीद गवाहों (महिलाओं और 90 साल की उम्र के करीब आने वाले एक पतले बूढ़े व्यक्ति) को भयानक धमकियाँ मिलीं।
हत्या के इस ‘राजनीतिक’ खेल में महफ़ूज़ के सहयोगियों में एक पड़ोसी शामिल था जो कलकत्ता में आइसक्रीम बेचता था। उसका नाम जमील था। (नाम बदल दिया गया है और यह आदमी चंपारण से बुलाए गए अपराधी का करीबी रिश्तेदार था।)
उस व्यक्ति ने कलकत्ता छोड़ने और गाँव आने का फैसला किया था और अपने पड़ोसी के साथ पंचायत की लूट में शामिल होने का मंसूबा बनाया था, जो जीविका और रूतबा के लिए पंचायत का मुखिया बनना चाहता था। कलकत्ता के उर्दू अख़बारों को पढ़ कर, खुद को राजनीतिक विविश्लेषक और शिक्षित मानने के बाद, जमील ने ग्रामीणों को सिखाना शुरू किया कि 12 मार्च, 1993 को बॉम्बे में दाऊद इब्राहिम द्वारा किए गए बम विस्फोट ने पीड़ित मुस्लिम अल्पसंख्यक को सुरक्षित महसूस कराया था, खासकर 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद। इसलिए, दाऊद को, उस के अनुसार, मुसलमानों का मसीहा माना जाना चाहिए। वह अपने गांव में उसी विचार के लोगों से आग्रह कर रहे थे कि ओसामा बिन लादेन को दुनिया भर के मुसलमानों के खिलाफ अमेरिकी आक्रामकता के सामने इस्लामिक उम्माह का रक्षक माना जाए। जो लोग इससे सहमत नहीं थे, उन्हें बौद्धिक रूप से गलत या झूठे मुसलमान कहा जा रहा था। वह झगड़ालू, ऐसे ग्रामीणों का मज़ाक बनाता। यह आइसक्रीम विक्रेता, जो एक शराबी और जुआरी भी हुआ करता था, अपने प्रभुत्व को स्थापित करने के लिए झगड़ा करने और ग्रामीणों को डराने के लिए कुख्यात था। उनकी गतिविधियाँ एक लंपट की तरह थीं, लेकिन इन आदतों को जारी रखते हुए, उसने खुद की एक धार्मिक छवि बनाई। उसने अपनी ठोड़ी पर एक लहराती दाढ़ी बढ़ाई (शारीरिक कारणों से उसके गालों पर कोई दाढ़ी नहीं बढ़ी) और रोज प्रार्थना (नमाज़ पढने) करने लगा। हालांकि, सामान्य ग्रामीण उसे एक महान सेवक नहीं मानते हैं। इस प्रकार, जमील का यह “ह्रदय परिवर्तन” विवेक के परिवर्तन के बिना, दिखावटी धर्मनिष्ठता की गंदी राजनीति थी। यह हमें एक ऐसी घटना की याद दिलाता है जिसके बारे में पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा सरकार के तत्कालीन मंत्री अनीस-उर-रहमान ने 29 जनवरी 2002 को “गणशक्ति” में लिखा था, जिसका शीर्षक था “लादिनिर रोज़ा”: कैसे पश्चिम बंगाल में एक मुस्लिम गांव के लोगों ने उपवास किया, और ओसामा बिन लादेन के संरक्षण के लिए अमेरिका की उसकी पीछा से संरक्षित रहने की प्रार्थना की; जब रमजान का पवित्र महीना अभी भी दूर था। प्रमुख राजनीतिक टिप्पणीकार पार्था चटर्जी ने भी मुसलमानों की ऐसी सामाजिक कार्रवाई पर एक लंबा लेख लिखा, जो सामान्य मुसलमानों पर “गर्म दिमाग और तर्कहीन लोगों” के गहन प्रभाव को उजागर करता है। (5)
बहुत समय पहले, उसी पंचायत के तहत पास के गांव की एक लड़की को उसी गुंडे ने अपने परिवार की सहमति से मार डाला था और उसका शव रेवा में गंडक नदी में बहा दिया गया था। उसका “अपराध” यह था कि भूमिहारों की उच्च जाति की लड़की को निचली जाति के लड़के से प्यार था। “ऑनर किलिंग” के बदले में, इस अपराधी को अप्रैल 2011 के पंचायत चुनावों में एक शानदार जीत का वादा किया गया था।
अपराध के इस इतिहास को देखते हुए, पुलिस ने हमारी कहानी के इस चरित्र को 3 मार्च, 2011 को पूछताछ के लिए गिरफ्तार किया। इसके बाद, एक ठंडी रात में भी, पुलिस को ग्रामीणों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। विरोध करने वालों में दो “प्रसिद्ध” शिक्षक ही थे। वास्तव में, इन दो में से एक गुरु, जो युवा और मजबूत था, ने गाँव के हर घर का दरवाजा खटखटाया और अनिच्छुक युवाओं और पुरुषों को भी धमकी दी कि अगर वे घर से बाहर नहीं निकले और पुलिस स्टेशन के बाहर विरोध प्रदर्शन नहीं करेंगे तो नतीजे बहुत बुरे होंगे। अपने नए-नवेले नायक (महफ़ूज़) के लिए जो भीड़ थी, उसमें सभी प्रकार के लोग शामिल थे, यहाँ तक कि वे भी जो उम्र या बीमारी के कारण क्षीण और कमजोर थे। वह पुलिस पर चिल्ला रहा था कि एक मुस्लिम को, नेता के रूप में उभरने से, रोका जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि पुलिस के खिलाफ ऐसा कोई विरोध तब नहीं हुआ जब पुलिस ने उसी अपराधी के घर पर छापा मारा (या उसे थाने में बंद कर दिया या उसे सलाखों के पीछे डाल दिया) और उसके पास से वह मोटरसाइकिल बरामद हुई जो बाइक मालिक को मार दिया गया और लूट लिया गया था। जाहिर है, कारण यह था कि दोनों शिक्षकों के अपने ही गांव के निवासी की हत्या में साजिशकर्ता के रूप में उजागर होने का कोई जोखिम तब नहीं था।
29 जनवरी 2011 को मारे गए मुस्लिम परिवार के रिश्तेदारों की पुलिस की ओर मुड़ने और मुस्लिम उम्मीदवार की राजनीतिक संभावनाओं को नुकसान पहुंचाने के लिए, निंदा की गई। इस प्रकार, मारे गए मुसलमान के उत्तराधिकारी को सबसे अधिक नुकसान उठाना पड़ा। संभवतः इन “रईसों” की नज़र में, अपने राजनीतिक उत्थान में एक मुस्लिम अपराधी की मदद करना आवश्यक था, भले ही उन्होंने अपने ही गाँव में किसी मुसलमान को ही नहीं छोड़ा हो और मार डाला हो। अर्थात्, अपराधों की कोई व्यक्तिगत या धार्मिक पहचान नहीं है। मस्जिद की जमीन वापस पाने के इन “सराहनीय” प्रयासों के बावजूद और एक या दूसरे तरीके से इतनी सारी हत्याओं को सही ठहराए जाने के बावजूद, “शरीफ़” गुरू जन और ग्रामीण इस अपराधी के समर्थन में मजबूती से खड़े रहे। और उत्साह के साथ इसके लिए खुलकर मतदान डाले। इस चुनाव अभियान में, गाँव की मस्जिद के इमाम भी शामिल थे। (उम्मीदवार वास्तव में उसकी पत्नी थी क्योंकि यह पंचायत महिलाओं के लिए आरक्षित थी।) ये पंचायत चुनाव 27 अप्रैल, 2011 को हुए थे। आखिर एक निर्दोष व्यक्ति का जीवन कितना ग़ैर अहम होता है अगर वह हत्या, स्थानीय राजनीति की सीढ़ी चढ़ने में किसी मुस्लिम नेता-अपराधी की मदद कर रहा है? संक्षेप में, इस अपराधी को “मुसलमानों की गरिमा” बनाए रखने के लिए, हर कीमत पर ऐसा सामाजिक समर्थन दिया गया था।
जमीनी स्तर पर लोकतंत्र और स्थानीय लोगों को सत्ता सौंपना और राजनीतिक प्रक्रिया में हाशिए पर पड़ी धार्मिक अल्पसंख्यक की सत्ता आकांक्षाऐं अजीब कीमतें वसूल करती हैं। विशेष रूप से बिहार जैसे राज्य में! लेकिन यह भयावह प्रवृत्ति इस विशेष गाँव तक सीमित नहीं है।
नोट: यह लेख प्रो। मुहम्मद सज्जाद की पुस्तक, “उपनिवेशवाद और अलगाववाद का विरोध: मुजफ्फरपूर के मुसलमान (1857 से वर्तमान तक)” का एक अंश है, जिसे राष्ट्रीय उर्दू परिषद, दिल्ली द्वारा 2018 में प्रकाशित किया गया है।