डॉक्टर सफ़दर इमाम क़ादरी
नॉवेल निगारी को कायनात की स्टडी का ज़रिया माना गया है । चंद मिसालों को छोड़ दीजिये तो ज़्यादा नॉवेल, नॉवेल निगारों ने अपनी पुख़्ता उम्र में लिखे हैं । ये माना जाता है कि उम्र की एक मंज़िल पार कर लेने से और लिखने वाला तहरीर की मश्क़ और तजुर्बात व मुशाहिदात की ताक़त से लैस होकर सामने आता है, मगर तीस बरस की उम्र में क़ुर्रतुल-ऐन-हैदर ने ‘आग का दरिया’ लिख दिया इसे क्या कहा जाये ।
सलमान अब्दुस्समद ने (सोशल मीडिया) पर जैसे ही ये बताया कि उन्होंने एक नॉवेल लिखा है तो हैरत के साथ मैं उनकी उम्र और काम का जायज़ा लेने लगा । आज तालीम की गिरावट आम बात है, इसमें पच्चीस बरस का नौजवान सलीक़े से पच्चीस लफ़्ज़ लिखना नहीं चाहता, मैंने उनसे नॉवेल की सॉफ़्ट कॉपी मंगवायी और उन्ही की उम्र के शागिर्दों के सामने बाजमाअत क़िरत की महफ़िल सजायी । ग़ौर किया तो महसूस हुआ कि सलमान अब्दुस्समद ने इस नॉवेल से पहले तनक़ीद, सहाफ़त और मज़हबियात के मौज़ूआत परर अपनी तहरीरों में अपने हाथ आज़माये लिये थे । उम्र के ऐतबार से नह भले नौ-मश्क़ थे मगर सफह-ए-क़िरतास पर रौशनायी बिखेरने का उन्हें अच्छा ख़ासा तजुर्बा हो चुका था । मगर नॉवेल निगारी ? मुसन्निफ़ ने तो ठीक से अपनी आँखें ही नहीं खोली थीं तो वह लिखेगा क्या ? मुझे याद आया कि कन्नड़ मुसन्निफ़ बी आर अनंत मूर्ति ने बातचीत के दौरान बताया था कि तमाम उम्र अपने नॉवेल के मवाद के लिये अपने गाँव से दस किलोमीटर से ज़्यादा दूर नहीं जाना पड़ा । उस दिन दुनिया की स्टडी का नया क़ायदा समझ में आया । दुनिया के चारों तरफ़ झाँकना ज़रूरी नहीं, मगर शर्त आप जो कुछ जानते हैं, कितनी गहरायी और वाबस्तगी से समझते हैं ।
इस दौरान नॉवेल “लफ़्ज़ों का लहू” पक्की रौशनायी में सामने आया और बाज़ार में उसकी कॉपियाँ ख़त्म हो गयीं । दूसरे एडिशन की बारी आ गयी । बड़े नक़्क़ादों और मशहूर नॉवेल निगारों ने सलमान अब्दुस्समद के नॉवेल पर पक्की रौशनायी में कुछ कहने से गुरेज़ किया । ये नफ़्सियाती मसअला दरपेश रहा होगा कि इतनी छोटी उम्र के बच्चे को ग़ौर व फ़िक्र का मौज़ू क्योंकर बनाया जाये ? सच्ची बात ये है क नॉवेल की अदबी शिनाख़्त में सलमान अब्दुस्समद की उम्र हाएल हो गयी । पच्चास-साठ बरस के किसी मुसन्निफ़ ने ये तहरीर पेश की होती ते मुझे यक़ीन है कि ये नफ़्सियाती नफ़ी व तख़फ़ीफ़ का अमल नहीं होता ।
ज़ुबान कहीं कहीं ख़ाम है तो क्या अब्दुस्समद, शमूइल अहमद, रहमान अब्बास और मुशर्रफ़ आलम ज़ौक़ी के यहाँ ऐसी मिसालें पेश नहीं की जा सकतीं ? प्लॉट में कई बार बिखराव के आसार नज़र आते हैं तो वह सिर्फ़ सलमान अब्दुस्समद की नातजुर्बेकारी है या उनके बुज़ुर्ग व हमअस्र नॉवेल निगारों ने उस्लोबी ऐतबार से जो नापुख़्ता और ढले-ढाले नमूने पेश किये हैं, हक़ीक़त में उन्हीं ‘लफ़्ज़ों का लहू’ का साया पड़ गया है ।
ये बात मुझे हरगिज़ नहीं कहनी चाहिये कि सलमान अब्दुस्समद ने गोदान, आग का दरिया या अदा नस्लें जैसी कोई चीज़ पेश कर दी है, मगर एक बात सच्ची है चंद हफ़्तों की तख़लीक़ी उम्र में बड़े नॉवेल निगारों के अंदाज़ से बयान का ढप सीखना सलमान अब्दुस्समद ने शुरू कर दिया है । मश्क़ और मुजाहिदे से वह एक-एक ईंट रखते हुए अपनी इनफ़िरादी हैसियत देर-सवेर मनवा लेंगे । उनमें तसनीफ़ व तालीफ़ के लिये जो तवज्जो और तख़लीक़ी ज़िद है, कल उसी से वह शजरे सायादार बनेंगे और ऐसा ज़रूर कुछ कर जायेंगे जिनके सबब हम उन्हें याद रखेंगे ।
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