लेखक – अब्दुल ग़फ़्फ़ार
असलम साहब का स्वास्थ्य अब काफ़ी बेहतर था। तभी वो कई दिनों के बाद काम के लिए बाहर गए थे और अब जब वो वापस आए तो उन्होंने घर के सभी अफ़राद को अपने कमरे में आने के लिए कहा।
भाई जान, आप कैसे हैं? रुख़साना बेगम ने कमरे में दाख़िल होते ही पूछा।
रुख़साना बेगम उनकी इकलौती बहन थीं जो भरी जवानी में बेवा हो चुकी थीं। चूंकि असलम साहब की बीवी भी रेहलत फ़रमा चुकी थीं इसलिए रुख़साना बेगम मायके में रहते हुए अपनी एक बेटी और भाई के तीन बच्चों की परवरिश करते करते बूढ़ी हो रही थीं।
“हाँ, सब ठीक है, यहाँ आओ और मेरे पास बैठो …” असलम साहब ने अपने पास पड़ी फाइल उठाई और रुख़साना बेगम के लिए सोफ़े पर जगह बनाई।
“मैंने आप सभी को यहाँ बुलाया है एक महत्वपूर्ण मसले पर बात करने के लिए …”
जैसे ही रुख़साना बेगम बैठीं, असलम साहब ने अपनी बात शुरू की। रुख़साना की बेटी ज़रीना और साथ-साथ शहनूर और सामेह भी प्रश्नवाचक निगाहों से अपने अब्बू की ओर देख रहे थे …
“मेरी ज़िन्दगी का अब कोई ठिकाना नहीं है, इसलिए मेरे पास जो कुछ भी है उसे आप लोगों के बीच तक़सीम कर देना चाहता हूं, ताकि मेरे बाद प्रोपर्टी के लिए कोई विवाद न रहे।”
बात समाप्त होते ही, उन्होंने सभी के चेहरों पर सरसरी नज़र डाली।
“अल्लाह न करे भाई, आप कैसी बातें कर रहे हैं। अल्लाह आपको लंबी उम्र दे और आपकी छाया हम सब पर हमेशा के लिए बनी रहे।
” बेशक़ ज़िंदगी और मौत अल्लाह के हाथों में हैं, लेकिन अपनी औलाद से मिले अपमान के बाद, मुझे नहीं लगता कि मैं लंबे समय तक लोगों की तिरस्कारपूर्ण निगाहों का सामना कर पाऊंगा।
इसलिए मुझे ये सब करना पड़ रहा है। और मेरे जीते जी मेरे बेटे भी अपनी ज़िम्मेदारी को महसूस कर सकें … इसलिए भी ये ज़रूरी है।”
फिर रुख़साना बेगम ने असलम साहब के चेहरे पर एक चिंतित नज़र डाली और मन में सोचा कि उसके साथ पता नहीं क्या होने वाला है। कहीं भाई ने अपना वादा भुला तो नही दिया …रुख़साना बेगम ने उन दोनों के कुछ भी कहने से पहले ही मीठे स्वर में कहा।
” भाई जान, सब कुछ शहनूर और सामेह का है और मुझे पता है कि वे अपनी ज़िम्मेदारी बहुत अच्छे से निभाएंगे …”
“हाँ, मैं चाहता हूं कि वे दोनों मेरी ज़िन्दगी में अपने पैरों पर खड़े हों सकें … और मैं अपना वादा भी नही भूला हूं लेकिन अब बदलते हालात के मद्देनज़र ये शहनूर पर डिपेंड करेगा कि वो ज़रीना से निकाह करेगा या किसी और से। ज़माने के हिसाब से अब बच्चों पर रिश्ते थोपने का वक़्त नहीं रहा। ”
उन्होंने थके हुए लहजे में कहा और फ़ाइल उठाकर खोल दी।
“लेकिन अब्बू, यह सब करने की क्या जरूरत है? प्रोपर्टी सब आप ही के नाम पर रहे, उसके बावजूद भी तो हम अपने पैरों पर खड़े हो सकते हैं …”
” अब इतने बड़े व्यवसाय को संभालने के लिए मेरी पुरानी हड्डियों में ताक़त नही रही, इसलिए मैं आप सभी के ज़िम्मे ये कर रहा हूं ताकि आप इसे संभाल सकें …”
असलम साहब ने ये कहते हुए कागज़ात पर नज़र डाली और उन्हें अलग अलग करना शुरू कर दिया।
“मैंने पूरे कारोबार को आप दोनों भाइयों के बीच आधे-आधे हिस्से में बाँट दिया है और यहां की ज़मीनें भी आप दोनों के नाम कर दिया है। इन सबके के कागज़ात भी बनवा दिए हैं। इस घर को ज़मीन समेत आप की फूफी रुख़साना के नाम कर दिया है, ये उसका हक़ है और अलीगढ़ में जो बाक़ी जायदाद है वो मैंने ज़रीना के नाम कर दिया है …”
असलम ने रुख़साना बेगम को कागज़ात सौंपते हुए शहनूर और सामेह को भी चौंका दिया।
सामेह छोटा था लेकिन शहनूर ने सूफ़िया के अधिकार के नुक़सान पर चुप रहने के बजाय विरोध करना मुनासिब समझा और अपने वालिद की बात सुनने के बाद आपत्ति जताई।
“लेकिन – अबू – सूफ़िया !!! ”
आप ने सूफ़िया के बजाय उस संपत्ति का मालिक ज़रीना को क्यों बना दिया!!! जब अॉल रेडी इतना बड़ा मकान फूफी को दे ही रहे हैं तो फिर ज़रीना को अलग से क्यों!!!
उधर रुख़साना बेगम रिश्ते को हाथ से निकलते देखकर मायूस हो गईं लेकिन भाई के सामने कुछ कहने की हिम्मत न कर सकीं।
शहनूर को स्पष्ट शब्दों में चेतावनी देते हुए, असलम साहब ने कहा।
” जब उसने औलाद होने का हक़ अदा नही किया तो उस लड़की का मेरे घर या व्यवसाय में कोई हिस्सा भी नही होगा और जो कोई भी उसका पक्ष लेगा, उसके साथ भी मेरा कोई संबंध नहीं होगा। इसलिए उसे समर्थन देने से पहले एक हज़ार बार सोचें।”
फिर भी शहनूर ने कहना जारी रखा –
“अबू प्लाज़… बेशक़, आपका सूफ़िया के साथ कोई रिश्ता नहीं होना चाहिए, लेकिन आपको उसका हक़ ज़रूर देना चाहिए। ये अल्लाह पाक का हुक्म है, नही तो अल्लाह पाक के यहां आप की ज़बरदस्त पकड़ होगी। अगर आप उसे उसका हक़ नहीं देते हैं, तो मैं अपना पूरा हिस्सा सूफ़िया के नाम कर दूंगा।”
असलम साहब ने सख़्त लहजे में कहा -” आप सब यहां से जा सकते हैं ” और उठकर दरवाज़े के पास जाकर खड़े हो गए ताकि ये लोग निकलें और वो दरवाज़ा बंद करें।”
सभी ख़ामोशी के साथ बाहर निकल गए।
असलम साहब इस छोटे से शहर के सबसे बड़े व्यवसायी थे। इस शहर के अलावा तीन और शहरों में भी उनका सिमेंट का कारोबार था। दर असल सूफ़िया,,, शहनूर और सामेह के बीच की उनकी दुलारी बेटी थी जो नाज़ों से पली बढ़ी थी।
तीन साल पहले बीस लाख रुपये ख़र्च कर के असलम साहब ने सूफ़िया का एडमिशन एमबीबीएस में कराया था। महीने भर पहले की बात है कि वालिद साहब को बिना बताए सूफ़िया ने अबू-सूफ़ियान नाम के एक डाक्टर से निकाह कर लिया था। जैसे ही ये ख़बर मिली असलम साहब को दिल का दौरा पड़ गया। दस दिनों तक तो आईसीयू में रहे और फिर पूरे 21 दिनों बाद डिस्चार्ज होकर घर वापस लौटे।
उधर सूफ़िया अपने वालिद की हालत गंभीर सुनकर भी आने से क़ासिर थी और अपने किए पर शर्मिंदा भी लेकिन अब तो तीर कमान से निकल चुका था और ख़ून के रिश्ते ख़ाक़ में मिल चुके थे।
अगली सुबह फिर मैराथन बैठक चली, और बिलआख़िर ये तय पाया कि अलीगढ़ की ज़मीन ज़रीना के बजाय सूफ़िया के नाम करके उससे रिश्ता तोड़ लिया जाए और बदले में शहनूर ज़रीना से निकाह करले।
इस तरह एक दयानतदार भाई अपनी क़ुर्बानी देकर बहन के हक़ हुक़ूक़ का मुहाफ़िज़ बना और एक हारा हुआ बाप हालात के हाथों सरेंडर करने को मजबूर हुआ।