भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए की राष्ट्रपति उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू (Draupadi Murmu) ने शुक्रवार को दिल्ली में नामांकन दाखिल किया। उनके सामने विपक्ष के उम्मीदवार के रूप में पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा हैं। यशवंत सिन्हा अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में वित्त मंत्री के रूप में अहम जिम्मेदारी संभाल चुके हैं। भाजपा से इस्तीफा देने के बाद वह ममता बनर्जी की पार्टी में शामिल हुए और टीएमसी के उपाध्यक्ष नियुक्त किए गए। यशवंत सिन्हा मोदी सरकार के खिलाफ मुखर रहे हैं और विभिन्न मुद्दों पर वे पीएम नरेंद्र मोदी एवं भाजपा को घेरते रहे हैं।
द इंडियन एक्सप्रेस में लिखे लेख में सुधींद्र कुलकर्णी कहते हैं कि हालिया समय में ऐसा लग रहा था कि उनके सार्वजनिक जीवन का सबसे सक्रिय दौर जा चुका है, लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। अब वह अपने जीवन का सबसे चुनौतीपूर्ण चुनाव लड़ने के लिए तैयार हैं। हो सकता है वह इस चुनाव में जीत दर्ज न कर पाएं, लेकिन सभी लड़ाइयां केवल पारंपरिक अर्थों में जीत के लिए नहीं लड़ी जानी चाहिए। अपने सिद्धांतों और विश्वासों के लिए लड़ने में एक अलग तरह की जीत है। यही कारण है कि संयुक्त विपक्ष के प्रतिनिधि के रूप में सिन्हा की उम्मीदवारी दो कारणों से महत्वपूर्ण हो जाती है।
पहला ये कि राष्ट्रपति चुनाव के लिए एंटी-बीजेपी पार्टियों ने एक साथ आकर उन सवालों का जवाब दिया है जो 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से तमाम भारतीय पूछते रहे हैं कि विपक्षी एकता कहां है? यह कहा सकता है कि सभी विपक्षी दलों की एकता बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। दूसरा यह कि इससे 2024 की बड़ी लड़ाई की तैयारी के लिए एक दिशा मिल सकती है।
पांच साल पहले, बीजेपी द्वारा “दलित राष्ट्रपति” बनाना बेहद निराशाजनक रहा। रामनाथ कोविंद ने एक बार भी लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और अन्य संस्थाओं की स्वतंत्रता पर सरकार के बार-बार हमलों पर नाराजगी जताने का साहस नहीं दिखाया। 2019 में उन्होंने राष्ट्रपति शासन को रद्द करने और भाजपा के देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री के रूप में शपथ दिलाने के लिए महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के मध्यरात्रि ‘तख्तापलट’ पर भी चुप रहे थे।
इसकी तुलना उन उदाहरणों से करें जब रामनाथ कोविंद के पूर्ववर्ती प्रणब मुखर्जी ने सार्वजनिक रूप से संविधान के मूल मूल्यों के उल्लंघन पर अपनी चिंता जाहिर की थी। रबर स्टांप प्रेजिडेंट हर ताकतवर प्रधानमंत्री को सूट करता है। एक आदिवासी (महिला) राष्ट्रपति के रूप में निर्वाचित होने से सत्तारूढ़ दल को भले चुनावी लाभ मिल सकता है। लेकिन ये वे उद्देश्य नहीं हैं जिनके लिए संविधान निर्माताओं ने यह पद बनाया।