अनुवाद: नूरूज़्ज़माँ अरशद
(एस.टी.एस.स्कूल (मिंटो सर्किल), ए.एम.यू.,अलीगढ़
मोहम्मद शफी (बार एट लॉ) का जन्म एक गाँव,एकथा,मधुबनी में वर्ष 1888 में, एक जमींदार अभिजात वर्ग में हुआ था। उनके दादा खुदा बख्श एक तहसीलदार थे और वह गाँव के सम्मानित व्यक्तियों में से थे। अपनी पारंपरिक प्राथमिक शिक्षा के बाद, उनके पिता रहमान बख्श ने उनके भाइयों के साथ मोहम्मद शफी की स्कूली शिक्षा की व्यवस्था राज हाई स्कूल, दरभंगा में की, जहाँ से उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की।
दरभंगा राज के साथ भूमि विवाद के मामले में उनके पिता पटना के इमाम परिवार के संपर्क में आए। उनसे प्रेरित होकर,उन्होंने अपने बेटे शफी को कानून की पढ़ाई के लिए लंदन भेजने का फैसला किया।
अली इमाम परिवार की नैतिक और ज़रूरी शैक्षिक सहायता के साथ,वह यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स में जगह पा सके और 1907 में अपने इस मिशन पर लंदन के लिए रवाना हुए। उन्होंने शुरुआत में साइंस और बाद में लेदर टेक्नालॉजी का अध्ययन किया,और फिर अपने पिता और घर वालों की मर्जी के अनुसार, उन्होंने अंततः मिडिल टेंपल से बार-एट-लॉ किया और 1914 में केप ऑफ गुड होप के रास्ते भारत वापस लौटे।
लंदन से वापसी पर उन्होंने 1916 में,कलकत्ता और मुजफ्फरपुर में संक्षिप्त प्रवास के बाद,दरभंगा बार में शामिल हो गए। मूल रूप से उनका क़ानूनी पेशा और उनकी सामाजिक और सामुदायिक कल्याण गतिविधियों, सादगी, विनम्रता, ईमानदारी और सत्यनिष्ठा ने उन्हें अपने चारों ओर, जहाँ भी उन्हें इसकी आवश्यकता थी,सभी वर्गों के लोगों को नेतृत्व के लिए आकर्षित किया। इसके अलावा,वह जिला खिलाफत समिति के अध्यक्ष और अहरार पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष भी रहे। बाद में वह बिहार मुस्लिम लीग में,पार्टी के राज्य उपाध्यक्ष भी बने,जिसके अध्यक्ष पटना के सैयद अब्दुल अज़ीज़ (1885-1948) थे।
1930 के दशक की शुरुआत में, उन्हें बिहार के गवर्नर काउंसिल के लिए भी नामित किया गया, जहाँ उन्होंने उत्तर बिहार के रय्यत और रैयतों के मातेहत कामगारों की दयनीय स्थितियों पर भी प्रकाश डाला। उन्हें खान बहादुर की उपाधि की भी पेशकश की गई थी जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया था। वह डिप्टी-कलेक्टरों की नियुक्ति के लिए बने,आयुक्त बोर्ड के सदस्य भी थे। स्वतंत्रता आंदोलन और लोगों के कल्याण के लिए उनकी राजनीतिक यात्रा में,अन्य लोगों के अलावा,उनके करीबी सहयोगी और दोस्त,अब्दुल अज़ीज़ और बैरिस्टर मोहम्मद यूनुस थे।
1934 में, बिहार में आये भूकंप के समय उन्हें महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू से भी मिलने का अवसर मिला।
दरभंगा में, वह अपने पूरे परिवार के साथ लहेरियासराय के एक मोहल्ला, बेटा में तालाब के दक्षिणी किनारे पर,एक छोटे से किराए के घर में रहते थे।
दरभंगा जिला बोर्ड के उपाध्यक्ष के रूप में उन्होंने कई यादगार विकास कार्य किए,जैसे प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों को खुलवाना, जिले के दूरदराज इलाकों में चिकित्सा औषधालयों और छोटे पुल-पुलिया का निर्माण करवाना शामिल है। उनका सबसे अहम काम, जिसे याद किया जाता है, वह है उर्दू में स्थानीय माध्यमिक विद्यालय का खोलना।
उनके चारों ओर स्थानीय समर्पित मित्रों, प्रख्यात बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक आकाशगंगा थी। उन्होंने उनके नेतृत्व में साक्षरता और समुदाय की आत्म चेतना के प्रति जन जागरूकता के लिए कड़ी मेहनत की। फलस्वरूप 5 फरवरी 1933 को ‘मुस्लिम हाई इंग्लिश स्कूल’, दरभंगा की स्थापना हुई, जिसके संस्थापक सचिव मोहम्मद शफी थे। उनकी मृत्यु के बाद, उनका नाम ज्ञापन के संकेत के रूप में जोड़ा गया है, जिसे अब ‘शफी मुस्लिम हाई स्कूल’, दरभंगा के नाम से जाना जाता है। दरभंगा के महाराजा ने मोहम्मद शफी को दरभंगा मेडिकल स्कूल (अब, डी.एम.सी.एच) के संस्थापक सदस्यों में से एक सदस्य के रूप में नामित किया था।
उनके मन में उस समय के उलेमाओं का बहुत सम्मान था और वे मदरसा हमीदिया,दरभंगा के उपाध्यक्ष थे। मशहूर इस्लामी स्कालर और फ़लसफ़ी मौलाना आज़ाद सुभानी को कभी-कभी उनके साथ महीनों तक साथ में देखा जाता था और अपने प्रवास के दौरान जनाब शफी साहब अपने फन में माहिर उल्माओं और बुद्धिजीवियों से परिचर्चा और उच्च स्तर के विचारों की अभिव्यक्ति के लिए, बैठकों की व्यवस्था भी करते थे।
मुस्लिम लीग में होने के बावजूद देश के विभाजन पर उनका एक अलग दृष्टिकोण था। उन्होंने भारत में रहना पसंद किया और मुस्लिम लीग छोड़ दी। वह 1948 में बड़ी संख्या में अपने समर्थकों के साथ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए।
1952 में, वह कांग्रेस पार्टी के चुनाव चिह्न पर बेनीपट्टी निर्वाचन क्षेत्र (अब बिस्फी, मधुबनी) से बिहार विधान सभा के लिए चुने गए। डॉ. श्री कृष्ण सिन्हा (1887-1961) उनकी सादगी, ईमानदारी, क्षमता और समर्पण से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने शफी साहब को 1952 में, अपने मंत्रिपरिषद में शामिल किया और उन्हें लोक निर्माण विभाग (P.W.D) और लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग का मंत्री (P.H.E.D.) बनाया। डॉ. सैयद महमूद (1889-1971) भी उनके करीबी थे।
उन्होंने 11 फरवरी 1955 को,13 सर्कुलर रोड, पटना में अंतिम सांस ली। उनके पार्थिव शरीर को उनके पैतृक गांव एकथा के पारंपरिक कब्रिस्तान में दफनाने के लिए,स्पेशल ट्रेन से पूरे राजकिय सरकारी सम्मान के साथ ले जाया गया। उनके नमाज़-ए-ज़नाजा का आयोजन पटना,दरभंगा के साथ उनके पैतृक गांव एकथा में किया गया।
उनकी मृत्यु के समय उनके पास केवल कुछ सौ रुपये थे,उनके पास कुछ पैतृक ग्रामीण भूमि के अलावा, न कोई बैंक खाता,न कार और ना ही कोई संपत्ति थी। ज़हीर नौशाद, एम. सुल्तान नदवी, डॉ. फ़िरोज़ अकरम, डॉ. मन्नान तर्ज़ी और अलावा अन्य लोगों ने उन पर लेख और कविताएँ लिखी हैं। शफी मुस्लिम हाई स्कूल (दरभंगा), एकथा में शफी उर्दू लाइब्रेरी, और उनके गांव के पास स्टेट हाईवे पर एक गेट, और अल-शफी एजुकेशनल एंड वेलफेयर सोसाइटी उनकी अहम यादगारों में से हैं।
[यह लेख प्रो. मोहम्मद सज्जाद की पुस्तक ‘Remembering Muslim Makers of Modern Bihar’ (2019) के एक अंश का हिंदी अनुवाद है]