हिंदी ग़ज़ल जिन विशेषताओं के आधार पर अपनी अलग पहचान सुनिश्चित करती है उनमें तमाम विसंगतियों अर्थात, मौजूदा समय में पूंजी एवं टेक्नोलॉजी के क्रूरतम गठजोड़ के नतीजे में निरंतर यांत्रिक होते और जीने के घटते जा रहे स्पेस के विरुद्ध, आत्मीयता के साथ घरेलू-परिवेश में जिए जा रहे, ‘इंसानी-रिश्तों’ के नये आस्वाद को भी प्रमुखता से रेखांकित किए जाने की ज़रूरत है।
यहां अलग से शायद यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि, हमारे घरेलू जीवन-परिवेश में “मां” की मौजूदगी और उससे हर छोटी-बड़ी चीज़ के रिश्ते इस हद तक बंधे हुए हैं कि मां को हटाकर ‘घर’ की कल्पना भी, हमारे लिए शायद संभव न हो। हिंदी-ग़ज़ल ने इस रिश्ते को भरपूर आंतरिकता में जिया है और इस जिए हुए को, कविता में इस तरह जगह दी है कि “मां” की शख़्सीयत पूरी विश्वसनीयता के साथ सांस लेती, चलती-फिरती और बोलती-बतियाती दिखाई पड़ती है। यह सिफ़त, ग़ज़ल-कविता की हद तक इस विधा की हिंदी में, अपनी कमाई हुई है।
घरेलू-परिवेश में “मां” को विषय रूप में लेते हुए सिर्फ़ हिंदी में ही शेर कहे जा रहे हैं, ऐसा नहीं है।
“मां” अन्य भाषा के शाइरों का भी प्रिय विषय रहा है, और है। बहुत कम शाइर होंगे जिन्होंने मां के हवाले से अशआर नहीं कहे होंगे। मां का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा चुम्बकीय है कि हर किसी को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है, लेकिन ऐसी भी मिसालें हैं जहां शाइरों ने अक्सर अपनी सारी ऊर्जा “मां” को महिमा मंडित करने में ही सर्फ़ की है, नतीजतन वहां “मां” का व्यक्तित्व जीवंत और विश्वसनीय रूप में नहीं आ सका है।
सच्चाई यह है कि “मां” सिर्फ़ मां ही नहीं, एक भरपूर और जीवंत स्त्री भी है। ऐसी स्त्री जो एक ही जन्म में कई कई जीवन जीने को अभिशप्त है। एक बेटी से मां बनने तक के सफ़र में उसे कितनी सामाजिक वर्जनाओं, प्रताड़नाओं और परीक्षाओं से गुज़रना पड़ता है, इसे एक स्त्री ही समझ सकती है। आधी आबादी की इस पीड़ा को महसूस करना और उसे काग़ज़ पर तहरीर करना, आमतौर पर हमारे ‘पुरुष प्रधान समाज’ में शायद ज़रूरी समझा ही नहीं गया। वाक़या है कि बहुत कम ऐसे शाइर हैं, जिन्होंने मां के दर्द को महसूस किया और उसे शिद्दत से काग़ज़ों पर रक़म किया। मां के सम्मान में कसीदे पढ़ना बहुत सरल है, लेकिन एक रोटी सेंकती मां की जली उ़गलियों का दर्द महसूस करके उसे शेर में विश्वसनीय और जीवंत अभिव्यक्ति तक ले जाना, इस पितृसत्तात्मक समाज में उतना सरल नहीं है। जब तक हम मां को देखने का अपना नज़रिया नहीं बदलेंगे और सिर्फ़ उसकी महिमा का बखान करते रहेंगे तब तक स्त्रियों की स्थिति में बदलाव संभव नहीं है। इसके लिए समाज के हर व्यक्ति को सामूहिक प्रयास करना होगा। वरना हर युग में द्रौपदियों को जुए में दांव पर लगाया जाता रहेगा, सीताएं अग्नि परीक्षाओं से गुज़र कर भी धरती में धंसती रहेंगी, मीराओं को विषपान के लिए विवश किया जाता रहेगा और इंद्र के छल के लिए अहल्याएं शापित होती रहेंगी। ऐसे कितने ही प्रसंगों से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं और हम बेशर्मों की तरह मां के क़दमों में जन्नत का राग आलापते रहते हैं।
यह बाज़ारवाद का युग है। और बाज़ार का नियम है कि जो दिखता है वही बिकता है। साहित्य भी अब इसी थ्योरी को अपना चुका है। साहित्यकार अब उन्हीं विषयों को उठाते हैं जो बेस्ट सेलर की सूची में शामिल हो सकें। ऐसे में शाइर कहां पीछे रहने वाले थे। उन्होंने भी उन्हीं विषयों को ग़ज़लगोई के लिए चुना जो अवाम को इमोशनली ब्लैकमेल कर सकें। “मां” भी उनके लिए एक ऐसा ही कथ्य है। अर्थात “मां” उनके लिए सिर्फ़ एक ‘विषय’ है, ऐसा विषय जिसने शाइरों के कारोबार को ख़ूब चमकाया है, लेकिन ‘हर चमकदार शय हीरा नहीं होती’। इस बाबत हक़ीक़त जाननी हो, तो सड़कों पर भीख मांगती स्त्रियों या वृद्धाश्रम में पड़ी मांओं से पूछिए। वे बता देंगी कि दुनिया की निगाहों में वाक़ई वे अगर इतनी ही महान हैं, तो इस हाल में क्यों हैं? इसका जवाब बहुत सरल है। जब तक “पुरुषों का वर्चस्ववादी- संस्कार” समाज पर हावी रहेगा, तब तक एक मां (जो स्त्री भी है) की स्थिति, ऐसी ही बनी रहेगी।
उर्दू-ग़ज़ल के मशहूरो मारूफ़ शाइर जनाब मुन्नवर राना साहिब ने मां पर जितने अशआर कहे हैं उतने, उर्दू या हिंदी दोनों भाषाओं को मिला कर भी नहीं कहे गये हैं। उनका एक शेर है-
मुन्नवर मां के आगे यूं कभी खुलकर नहीं रोना
जहां बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती
बुनियाद (मां) है तो सर पर साया भी है। बुनियाद है तो इन्सान हर अज़ाब से महफ़ूज़ है। यह सब तो सही है। लेकिन घर का सारा बोझ उठा कर बुनियाद किस हाल में है, इसकी चिंता किसे है? वह बेचारी तो ख़मोश है। उसकी आवाज़ को हमेशा हमेशा के लिए दफ़्न कर दिया गया है। वह अपना दर्द कैसे कहे? पर्दादारी उसकी मज़बूरी है, रोना इस बात का है कि इसके बावजूद उसकी ख़ामोश सदाएं सुनने वाला कोई नहीं दिखता। दिखावे के लिए रोना और बात है। इस शेर का पूरा इस्ट्रकचर चीख़ चीख़ कर पुरुष की अहंवादी सोच को उजागर कर रहा है।
दूसरी ओर उसी अह्द के एक और ख़ुशफ़िक़्र शाइर महेश अश्क हैं जो यह कहते हैं कि-
मां ने ख़ुद को खपा दिया घर में
ख़्वाब उसके भी कुछ रहे होंगे
मुमकिन है इस शेर पर महेश जी को मुशायरे में कोई दाद न मिले। क्योंकि इस शेर में वो अनासिर मौजूद नहीं हैं जो आमतौर पर सामईन को भावनात्मक रूप से आंदोलित करते हैं, लेकिन यह शेर विमर्श की मांग ज़रूर करता है। तो आइए यह समझने की कोशिश करते हैं कि इस शेर में ऐसा क्या है?
इस शेर की संरचना कुछ ऐसी है कि महेश जी ने अपनी ओर से कुछ नहीं कहते हुए भी एक मध्यमवर्गीय परिवार में “मां” की स्थिति को पूरी तरह से खोल कर रख दिया है। शेर की यही ख़ूबसूरती भी है और ख़ासियत भी, जो कुछ नहीं कहते हुए भी बहुत कुछ कहने का माद्दा रखता है। यह शेर उसी श्रेणी का है।
शेर दो तरह के होते हैं। एक आरिज़ी और दूसरा दाइमी। पहली श्रेणी का शेर पानी के बुलबुले के समान होता है जिसका वजूद बहुत देर तक कायम नहीं रहता। दूसरी श्रेणी का शेर धीमी आंच की तरह होता है जिसके ताप को देर तक महसूस किया जा सकता है। महेश अश्क जी का उपर्युक्त शेर उसी धीमी आंच की तरह है जिसके ताप को पाठक बहुत देर तक महसूस करता है। यह शेर अपने पाठकों से कई तरह के जवाब तलब करता है? मसलन क्या एक मां को सपने देखने का कोई अधिकार नहीं? क्या परिवार की ख़ुशी के लिए एक मां को अपनी इच्छाओं, आकांक्षाओं की आहुति दे देनी चाहिए? क्या परिवार का यह दायित्व नहीं कि जिस प्रकार मां परिवार के हर सुख-दुख के साथ रोज़ जीती मरती है, उसी प्रकार परिवार भी मां की भावनाओं को समझे और उसकी क़द्र करे? क्या यह पुरुषों की अहंवादी सोच पर सवाल खड़े नहीं करता? इन्हीं कुछ सवालों को उछाल कर शाइर ख़ामोश हो जाता है। इसका रद्देअमल क्या होगा शाइर नहीं जानता। उसे जानने की ज़रूरत भी नहीं। बतौर शाइर उसने अपना काम कर दिया। यहां से पाठकों की जिम्मेदारी शुरू होती है। अब उन्हें यह तय करना है कि सोलहवीं सदी की तरह स्त्रियों को अंगूठे के नीचे रखना है या इक्कीसवीं सदी में उन्हें अपनी ज़िंदगी के सारे फैसले ख़ुद लेने का अधिकार देना है। सरकार उनकी सुरक्षा के लिए क़ानून बना सकती है। उन पर हो रहे अत्याचार के लिए दोषी को सज़ा दे सकती है, लेकिन यह इस समस्या का समाधान नहीं है, जब तक हर व्यक्ति इसके लिए स्वेच्छा से कृतसंकल्प न हो। जब तक ऐसा नहीं होता कन्या की भ्रूण हत्या, कामगार महिलाओं का यौन-शोषण, घरेलू हिंसा, दहेज के लिए बहुओं की हत्या, तलाक, बलात्कार, देह-व्यापार, बेटियों की ख़रीद-फ़रोख़्त, लव जेहाद, मॉब लिंचिंग जैसी ख़बरें अख़बारों में सुर्ख़ियां बटोरती रहेंगी।
किसी भी रूप में स्त्रियों का उसकी इच्छा के बग़ैर मानसिक या शारीरिक शोषण नहीं किया जाना चाहिए। यह अनुचित है। अगर ऐसा होता है तो इसके प्रतिरोध में हर ईमानदार रचनाकार की लेखनी को मुखर होना चाहिए।
मुनव्वर राना साहिब के शेर के बाद उर्दू ग़ज़ल के सबसे वर्सटाइल शाइर निदा फ़ाज़िली साहिब का यह शेर भी देख लिया जाना उचित होगा-
बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी मां याद आतीहै चौका बासन चिमटा फुंकनीजैसी मां
इस शेर में एक शब्द है ‘फुंकनी’ (इनहेलर)। इस शब्द ने शेर में प्राण फूंक दिया है। वस्तुतः यह सिर्फ़ एक ‘फुंकनी’ नहीं बल्कि जीवन संजीवनी है। क्योंकि जब मां की सांसें उखड़ने लगती हैं तब यही ‘फुंकनी’ उसे प्राण-वायु मुहैया कराती है। संकट की घड़ी में यह मां के साथ न हो तो कुछ भी अप्रत्याशित घट सकता है। इस शेर में यह ‘फुंकनी’ एक संवेदनशील घटक की तरह मौजूद है,जो मां के अस्तित्व को बचाये रखती है। घर के बाक़ी लोगों के लिए तो मां सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी ही है। अर्थात चौका बासन करने के बावजूद वह (मां) परिवार के जीवन में खटास पैदा करने वाली है।
उर्दू के एक और मक़बूल और मुमताज शाइर बशीर बद्र साहिब का यह शेर भी देखें-
अपनी मां की तरह उदास उदास
बेटी शादी के बाद घर आयी
अपनी सादगी के बावजूद यह शेर मिडिल क्लास फैमिली की न केवल मां की बल्कि एक ब्याहता बेटी का मां की तरह उदास उदास घर लौटने की पूरी क़ैफ़ियत को बहुत ही ग़मनाक तरीके से बयां कर रहा है जो कई सवाल खड़े करता है। इसकी वज़ाहत ज़रूरी नहीं है। दानिशवर क़ारईन (पाठकों) ख़ुद समझ सकते हैं।
जिन शाइरों ने अस्सी के दशक में उर्दू और हिंदी दोनों भाषाओं में बहुत तेज़ी से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनायी हैं उनमें आलम ख़ुर्शीद सरे-फ़ेहरिस्त हैं। उनका एक शेर है-
वो प्यार जिसके लिए मां तरसती रहती है
उसी को शेर बना कर कमा रहा हूं मैं
कितना सच्चा शेर है यह। जो मां उम्र भर प्यार के लिए तरसती रही उसी को ज़ीना बना कर लोग शोहरतों की बुलंदियों पर जा बैठे हैं। लेकिन मां कितनी हतभागी है कि प्यार के दो बोल सुनने को उसके कान तरस रहे हैं। रोटी, कपड़ा, मकान दे देने भर से बच्चों की जिम्मेदारियां ख़त्म नहीं हो जातीं। सोचिए अगर ऐसा ही व्यवहार एक मां अपने बच्चों के साथ करती तो उनके दिलों पर क्या बीतती?
क्रमशः
शेर में कथ्य…. दूसरा किस्त
गतांक से आगे….
आईये अब हिंदी के मिज़ाज से मेल खाते चंद शेरों का जायज़ा लेते हैं :-
तेरहवींके दिन बेटोंके बीच बहस बस इतनी थी किसने कितने ख़र्च किए थे अम्माकी बीमारीमें
हरेराम समीप
गांव से चलकर मां का शहरों में आ जाना भर
बेटों के घर उत्सव कम, क्षेपक हो जाना है
कमलेश भट्ट कमल
थपकी, लोरी, रोटी,साहस,शीतल-सी छाया
नींद,सुकूं का एक ठिकाना मां का आंचल है
गरिमा सक्सेना
दूर तक कुछ नज़र नहीं आता
तेरी ख़ामोशियां पुकारे हैं
संगीता रायकवार
जानती ही नहीं ये नफ़रत को
प्यार की इक किताब मेरी मां
आराधना प्रसाद
तुलसी चौरा की वो तुलसी
तिल तिल कर हर पल गलती मां
भगवती प्रसाद द्विवेदी
सामने आग के दरिया का सफ़र लगता है
मां दुआ देती है जीने की तो डर लगता है
सलीम क़ैसर
एक भूखी मां ने बच्चा बेच डाला
यह ख़बर पढ़ते ही पाठक चीख़ उट्ठे
प्रेमकिरण
ख़ुश हर हाल में रहती है
मां के जैसा कोई फ़क़ीर नहीं
अजय ढींगरा अजय
जिसकी मां है वृद्धाश्रम में
वो सबसे हतभागी नर है
ब्रह्मजीत गौतम
घुट के मर जाएगी देवी जो बना दोगे तुम
मां भी इन्सान है इन्सान ही रहने दो उसे
ज्योति मिश्र
गोद उसकी तरबियत का मकाम
सज़दे करती है ज़िंदगी भी यहां
फ़रीदा अंजुम
बेटी को उसका हक़ मिले सम्मान मिले
अब निर्भया कोई न बने वर्ष भर यहां
आरती कुमारी
मेरा जो सम्मान है
मां तेरी पहचान है- कृष्ण कुमार प्रजापति
कैसी ममता का आंचल है मां के सीने पर
जिसमें उसने पूरे घर की पीर चुरा ली है
अनिरुद्ध सिन्हा
झुलसती धूप में बच्चे का बोझ उठाए हुए
यह सिर्फ़ मां है जो पत्थर भी तोड़ सकती है
आफ़ताब आरिफ़
तुम तो कह सुन के पड़ रहे जा के
मां मगर सारी रात सोई नहीं
महेश अश्क
हर मां इस हिक़मत में माहिर है सागर जी
चूल्हे पर भी भूख उबाली जा सकती है
-सागर त्रिपाठी
सुब्ह को मां ने कहा था,चाय थोड़ी और दे
शाम तक चौकेमें बर्तन झनझनाते रह गये
महेश अश्क
काट रही है सब्ज़ी वो या काट रही है अपने दिन
सच्चाई तो चाकू जाने या जाने बेचारी मां
प्रेमकिरण
उपरिलिखित अशआर में, ‘मां’ के हवाले से शेरों में जितनी विविधता मौजूद है, वह यह दर्शाता है कि उत्तर आधुनिककाल के रचनाकारों ने मां के दैनंदिन जीवन के मर्म को बड़ी शिद्दत से महसूस किया है और अपनी सलाहियतों के अनुसार अपने अनुभव को शेरी पैकर में ढाला है, और इसके लिए ऐसे शब्दों के इस्तेमाल से भी गुरेज़ नहीं किया जिन्हें ग़ज़ल के लिए ग़ैर मानूस समझा जाता रहा है। मसलन रोटी, चूल्हा, भात, ईंधन, चाय, सब्ज़ी, तुलसी चौरा, थपकी इत्यादि। ऐसा नहीं है कि इस प्रकार के प्रयोग सिर्फ़ हिंदी ग़ज़लों में हो रहे हैं, बल्कि उर्दू की ग़ज़लों में भी यह देखा जा सकता है। मसलन पुलोवर, गुड़धानी, मट्ठा, घी, थपक-थपक, चौका, फुंकनी, चिमटा, बासन वगैरह। यह ज़रूरी भी है। इनके बग़ैर उत्तर आधुनिककाल की जटिलताओं को ग़ज़लों में संप्रेषित करना मुश्किल नहीं तो आसान भी नहीं है। यहां यह स्पष्ट कर दूं कि प्रयोग सिर्फ़ प्रयोग के लिए नहीं होना चाहिए। कथ्य के अनुरूप सार्थक और उपयोगी प्रयोगों को हर काल में सराहा गया है। यह तभी संभव होगा जब रचनाकार दृष्टि संपन्न हो और उसकी जड़ें अपनी मिट्टी में गहरे उतरी हुई हों। अक्सर होता यह है कि प्रयोग के चक्कर में कथ्य की विश्वसनीयता धुंधली हो जाती है, मुझे लगता है ऐसा नहीं होना चाहिए। सत्य को पूरी तरह संप्रेषित होने मौक़ा देना चाहिए। क्योंकि श्रोता-पाठक के पास ठहरता अंतत: यही है।
सत्य वह नहीं है जिसे हम नंगी आंखों से देखते हैं। वह अर्धसत्य है। सत्य उससे परे की चीज़ है, जिसे पकड़ने में अक्सर रचनाकार भूल कर बैठते हैं और देखे या भोगे गये यथार्थ को हू ब हू चित्रित कर देते हैं, नतीजतन शेर ख़बर बन कर रह जाती है। जबकि शेर में कथ्य को ज़िंदगी की तरह घटित होना चाहिए, तभी कोई शेर बतौर रचना, उपयोगी होगा। अंत में, मैं अपने इस शेर के साथ इस आलेख को विराम देता हूं-
शाइरी में तजरुबों की आंच लाजिम है किरन
शाइरी में ज़िंदगी का अक्स होना चाहिये