डॉ मुहम्मद काज़िम
सन 1998 मेँ जब मैं प्रकाशन विभाग से उर्दू में निकलने वाली मैगज़ीन “आज कल” में सब एडिटर था शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी साहब का मज़मून आया।
उनके भाई महबूबुर्रहमान जब मेरे संपादक थे। संपादक जी बोले कि येह मज़मून पढ़ कर अपनी राय दो। मैंने वह मजमून पढ़ा तो कुछ चीज़ें तब समझ में नहीं आई। फिर उनसे जब पहली बार मिला तो मैंने वह बातें उनके सामने रखीं। उन्हौने जिस तरह से समझाया उस से हमें लगा कि हमें सिर्फ सवाल नहीं पूछना चाहिए बल्कि हमें और ज़यादह पढ़ना चाहिए। वैसे तो उन्हौने ढेरों किताबें लिखीं ,मगर जो हर किसी को पढ़नी चाहिए
उनमें एक है ‘ अफ़साने की हिमायत में ‘ और एक है ‘ सवार और दूसरी कहानियां ‘ दोनों कहानी संग्रह हैं। मीर तक़ी मीर पर चार वॉल्यूम में लिखी उनकी आलोचना” शेर- ए -शोर अंगेज़ ” , जिस पर उन्हें सरस्वती सम्मान मिला था। ग़ालिब पर उन्हौने तफहीम ए ग़ालिब लिखी।मगर उनका जो सब से बड़ा काम मुझे लगता है वह है दास्ताँ का रिवाइवल दास्ताँ पर लिखी उनकी किताब ‘ साहिरी ,शायरी साहब ए क़ुरआनी ‘ और दास्तान ए अमीर हमजा पांच वॉल्यूम में है.इस में से एक वॉल्यूम तो इसी साल आई है। शबख़ूँ के नाम से वह एक रिसाला निकलते थे। शेरी मजमूआ के नाम से उनका एक कविता संग्रह है। तो कई चाँद थे सर ए आसमां नाम से उपन्यास भी है। लुग़त ए रोज़मर्रा के नाम से उर्दू की एक डिक्शनरी भी है। शायरी नापने के मीटर को अरूज़ कहते हैं उसके यह उस्ताद थे। उस पर ‘अरूज़ आहंग और बयां ‘ नाम से इनकी एक किताब भी है। लेकिन दास्ताँ पर जो उन्हौने काम किया वह और किसी ने नहीं किया। दस्तानों पर पहले भी काम हुए हैं कलीमुद्दीन अहमद ने भी किया है लेकिन लिखने के साथ उन्हौने अपने भतीजे महमूद फ़ारूक़ी को दास्ताँ सुनाने केलिए प्रेरित भी किया। उन्हौने ही बताया की दास्ताँ कैसे लिखी जाती है वह कोन से टूल्स होते हैं जिनसे से कहानी दास्ताँ में बदल जाती है। उसे कैसे सुनाते हैं ,उसके सुनने वाले कैसे होते हैं। इसके लिए उन्हौने दास्ताँ ए अमीर हमजा के 46 वॉल्यूम जाने कहाँ कहाँ से खोज कर पढ़े जो की अब कहीं मिलते भी नहीं। फिर उसी पर उन्हौने पांच वॉल्यूम में ‘ साहिरी शायरी और साहब ए क़ुरआनी ‘ और ‘ दास्ताँ ए अमीर हमजा ‘ लिखी जिसने दास्तानगोई का ट्रेंड सेट किया।
खास बात यह की वह जितना लिखते उस से सौ गुना ज़यादह पढ़ते और सोचते। कुछ लोग अपने आपको बहुत बड़ा फिलॉस्फर दिखने केलिए ठहर -ठहर कर बोलते हैं लेकिन अंदर कुछ होता नहीं है। इसके उलट फ़ारूक़ी साहब बहुत जल्दी जल्दी और बड़ी रवानी से बोलते थे। उनका वाक्य बहुत सोचा समझा होता था। कलासिकल लिट्रेचर पर जितनी उनकी नज़र थी उतनी ही मॉड्रन लिट्रेचर पर भी थी। आज के अफसाना निगारों पर भी उन्हौने लिखा है। स्टूडेंट्स जब उहने अपनी रचनाएँ भेजते तो उन्हें जवाबी पोस्टकार्ड ज़रूर भेजते। 2001 में जब मेरी पहली किताब आयी तो उन्हौने उसे पढ़ कर ज़रूरी मश्विरे भी दिए।
वह लेखकों की तरीके से तरबियत करते थे। बल्कि यूँ कहें कि उन्हौने लेखकों की कई नस्लें तैयार की हैं. वैस्ट में मॉर्डनिज़म पहले आ गया था मगर उर्दू लिट्रेचर में फ़ारूक़ी साहब ही लाये। वह कहते थे कि साहित्य को विशुद्ध साहित्य होना चाहिए ना की नारे बाज़ी। ठीक है कि उसमें कुछ चीज़ें डायरेक्ट आ जाएँ लेकिन कोशिश एब्स्ट्रैक्ट की करनी चाहिए उनका मन्ना था कि आप अगर एब्स्ट्रैक्ट में कहते हैं तो बहुत से लोग खुद को उसमेँ पाते हैं। उर्दू में उनके इस एब्स्ट्रैक्ट के ट्रेंड को बहुतों ने फॉलो किया जैसे लखनऊ में नय्यर मसूद हैं। फिक्शन राईटर सलाम बिन रज़्ज़ाक़ ,हुसैनुल हक़ और सिद्दीक़ आलम अदि हैं।
फ़ारूक़ी साहब के जाने के साथ एक ज़माना भी चला गया है ,इनकी किताबों में यह तस्वीर तो दिखती ही है कि उनका छोड़ा हुआ काम आगे बढ़ाया जा सकता है लेकिन अभी कोई नज़र नहीं आ रहा जो यह गैप दूर कर सके। जो उनके जैसा मल्टी डाइमेंशनल हो ,जो आलोचक भी हो कहानी कार भी हो ,इतिहासकार भी हो ,शायर भी हो और शब्दों का इतना बड़ा संग्रहणकर्ता भी हो वह पूरे इन्साइक्लोपीडिआ थे।