मोहम्मद बेलाल (इलाहाबाद)
डॉ सालेहा सिद्दीकी की ये पुस्तक ज़िया फतेहाबादी के जीवन और उनके साहित्यिक एवं काव्यात्मक जीवन को पुनः जीवित करने एवं इस भूला चुके शायर को दोबारा याद करने की सराहनीय कोशिश हैं।
“ज़िया ए ऊर्दू ” book corporation ” नई दिल्ली से प्रकाशित हुई हैं। इस पुस्तक में ज़िया फतेहाबादी के जीवन उनके साहित्यिक योगदान पर आधारित 22 मज़मून को शामिल किया गया है। जो विभिन्न विषयों पर आधारित हैं।इस पुस्तक के अध्ययन के बाद ज़िया फतेहाबादी के जीवन के हर पहलू पर भरपूर प्रकाश पड़ता हैं।इस पुस्तक से ज़िया फतेहाबादी के सम्बंध में जो जानकारी प्राप्त होती हैं उसके अनुसार
मेहर लाल सोनी का जन्म आपके मामा लाला शंकर दास पुरी के घर कपूरथला में सुबह के वक़्त 9 फरवरी 1913 को हुआ, आप अपने पिता के ज्येष्ठ पुत्र थे | आपके पिता मुंशी राम सोनी एक सिविल इंजिनियर थे | आपकी पारम्भिक शिक्षा कि शुरुआत (1920-1922) पेशावर के खालसा मिडिल स्कुल से हुई | परन्तु आपने अपनी स्कूली शिक्षा महाराजा हाई स्कुल, जयपुर राजस्थान (1923-1929) से पूरी की | जहा आपने 1933 में B.A. Honors की डिग्री उर्दू में प्राप्त की | और M. A. इंग्लिश में 1935 में फोरमैन क्रिश्चियन कॉलेज, लाहौर के छात्र के रूप में डिग्री प्राप्त की | आपका उर्दू शायरी का सफ़र आप की माता की निगरानी और मौलवी असग़र अली हया जयपुरी की मदद से सन 1925 में शुरू हुआ था तब आप जयपुर के महाराजा हाई स्कूल के छात्र थे | ‘ज़िया’ तख़ल्लुस रखने का सुझाव ग़ुलाम कादिर फ़रख अमृतसरी ने 1928 में दिया था | चूंकि आपका परिवार फ़तेहाबाद, पंजाब से था आपने अपना नाम ज़िया फ़तेहाबादी रखा | सन 1930 में आप सीमाब अकबराबादी के शागिर्द बने तब आप लाहौर के फोर्मेन क्रिस्चियन कोलेज के छात्र थे | यहाँ से आपने B. A. (Honors) (Persian) और M.A. (अंग्रेज़ी) की डिग्रियां हासिल कीं | 1936 में आपने रिज़र्व बैंक आफ़ इंडिया की नौकरी शूरू की जहां से 1971 में रिटायर हुए | आपकी कविताओं का पहला संग्रह ” तुल्लू ” सन 1934 में साग़र निजामी ने मेरठ से छापा था और 1937 में देहली से प्रकाशित दूसरे संग्रह ” नूर ए मशरिक़ ” ने आप को उर्दू दुनिया में मशहूर कर दिया | जिसका एक शेर काफी मशहूर हुआ “वो देख मशरिक से नूर उभरा लिए हुए जलवा-ऐ-हकीकत मजाज की तर्क कर गुलामी के तू है बंदा-ऐ-हकीकत “ 1934 से लेकर 2011 तक शायरी के ग्यारह संग्रह छप चुके हैं | आप का कलाम हर उर्दू अदब को चाहने वाले ने अपने तौर से परखा और सराहा है, फ़िराक गौरखपुरी ने लिखा है “कई मुक़ामात पर मुफ़क्किराना और शायराना अन्दाज़ के इम्तिज़ाज ने मुझे बहुत लुत्फ़ दिया, आपकी शायरी बिलकुल नक्काली या तक़लीद नहीं, इसमें ख़ुलूस है और कहीं रंगीन सादगी है, कहीं सादा और दिलकश रंगीनी, तरन्नुम और रवानी और एक हस्सास सलामतरवी इसकी ख़ास सिफ़तें हैं |” दया नारायण निगम लिखते हैं-“ज़िया के कलाम में लफ़्ज़ों की तरतीब, तरकीबों की चुस्ती, बयान की रवानी वगैरा इस क़दर पुरलुत्फ़ है कि ख्वामख्वा दाद निकलती है |” आपकी कविताओं से ज़ाहिर होता है कि आप का रुख प्राकृतिक शायरी की तरफ़ रहा, आपकी नज़्मों से एक रचा हुआ ज़ौक आशकार है व गीतों की तरह नज़्मों में भी आपने नर्म हिन्दुस्तानी शब्दों से काम लिया | अब्र अहसनी के मुताबिक़ – “ज़िया मामूली शायर नहीं है, वो हर बात बहुत बुलंदी से कहतें हैं, उनकी ज़ुबान शुस्ता ओ पाकीज़ा और ख़यालात लतीफ़ हैं, दिल में जज़्बा ए इन्सां बेपायाँ है और ऐसा ही शायर मुल्क ओ कौम के लिए बाईस ए फ़ख्र हुआ करता है |” ज़िया एक पेशेवर शायर नहीं थे | और कई तरह के गुण अपने भीतर समेटे हुए थे आप अर्थव्यवस्था के विकास और बदलाव को काफी अच्छी तरह से विश्लेषित कर सकते थे आप बहुत अच्छे गणितज्ञ थे और उर्दू, अंगेजी एवं संस्कृत भाषा पर आपकी अच्छी पकड़ थी | आप हिंदू ज्योतिष में काफी रूचि रखते थे और इसके अतिरिक्त उपनिषद और ऋग्वेद में भी रूचि रखते थे | और यही सब गुण आपके ज्येष्ठ पुत्र रविंदर कुमार सोनी को विरासत में मिली |
उनकी शायरी की शुरुआत पर अगर नज़र डालें तो पता चलता है कि जब ज़िया फ़तेहाबादी लाहौर में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तभी 1930 ई. में वे उर्दू के सुप्रसिद्ध शायर, सीमाब अकबराबादी के शिष्य हो गए थे । उन्ही दिनों वे उर्दू के मशहूर अफ़सानानिगार कृष्ण चन्दर तथा उर्दू के मशहूर शायर जोश मलीहाबादी, साग़र निज़ामी, साहिर होशियारपुरी, खुश्तर गिरामी और मीराजी के संपर्क में आए जिनके साथ उनका एक लम्बे अरसे तक सम्बन्ध रहा ।
ज़िया फ़तेहाबादी साहब ने 1925 से उर्दू भाषा में कवितायेँ लिखना आरम्भ कर दिया था और 1929 तक अपनी एक अलग पहचान बना ली थी । 1933 में मेरठ से साग़र निज़ामी ने उनकी कविताओं का पहला संग्रह ” तुल्लू ” नाम से प्रकाशित किया । फिर 1937 में दूसरा संग्रह ” नूर-ए मशरिक़ ” प्रकाशित होने के बाद उनका नाम उर्दू दुनिया में ख़ूब जाना-पहचाना जाने लगा । इन संग्रहों के अतिरिक्त उनके नौ और संग्रह प्रकाशित हुए । कविताओं के अलावा उन्होंने उर्दू अफ़साने भी लिखे और अपने उस्ताद सीमाब की जीवनी ” ज़िक्र-ए सीमाब ” भी लिखी ।
ज़िया फतेहाबादी ने कहानिया भी लिखी है जो सूरज डूब गया के नाम से डॉ सालेहा सिद्दीकी ने ही उर्दू से हिंदी में अनुवादित किया हैं। इस पुस्तक में कुल 8 कहानियां हैं।जो विभिन्न विषयो पर आधारित हैं।
इन कहानियों में सम्मिलित हैं आलम ए बाला में, अंधेरे, नए साल का तोहफा, शरनार्थी, पड़ोसी,सूरज डूब गया,करवट, पर्दा दर पर्दा और खुदकुशी।
डॉ सालेहा सिद्दीकी की अनुवादित ये पुस्तक दारुल इशाअत ए मुस्तफ़ाई नई दिल्ली से प्रकाशित हुई हैं।144 पेज आधारित इस पुस्तक की सुंदरता और इस में सम्मिलित कहानियां पढ़ने और देखने योग्य हैं।
ज़िया फतेहाबादी मुख्य रूप से कवि थे लेकिन उनकी रुचि कहानियों में भी थी। ज़िया फतेहाबादी बेहतरीन नज़में और ग़ज़लें कही है जिसे पढ़ कर दिल झूम झूम उठता है। उनके कलाम का कुछ नमूना देखिए ….
हुआ तुल्लू उफ़क पर सितारा-ए सहरी
मिली तमाम जहाँ को नवीद-ए जलवागरी
सफ़र का हुक्म मिला कारवान-ए अन्जुम को
सवारी-ए सहर आती है राह साफ़ करो
ग़ुबार-ए ज़ुल्मत-ए शब ले उडी नसीम-ए सहर
कली चमन में हुई बाईस-ए शगुफ़त-ए नज़र
चटक के गूँचे ने आवाज़ दी कि ऐ गुलचीं
झुका भी दे दर-ए फ़ितरत पर आज अपनी जबीं
गुलों ने बुलबुल-ए शैदा से मुस्करा के कहा
ख़ामोश किस लिए बैठी है छेड़ गीत नया
फ़िज़ाएँ गूँज उठीं दिल नवाज़ नग़मों से
हुई बुलन्द सदा-ए रबाब पत्तों से
चमन में जाग उठे अशजार ले कर अंगडाई
बिसात-ए ख़ाक पर इक मौज-ए नूर लहराई
तड़प के लहर ने दरिया से यूँ ख़िताब किया
“तेरी ख़मोशरवी ने मुझे ख़राब किया”
ख़ामोशियाँ हुई रुख़सत कि दौर-ए नौ आया
रगों में ख़ून नया दौड़ता बाज़ोर आया
किसान बैल लिए दूर झोंपड़े से चला
सहर के नशे में मखमूर झोंपड़े से चला
हुई बुलन्द सदा मंदिरों से घंटों की
अज़ान मोमिन ए मस्जिद ने दी फ़िज़ा जागी
इबादत-ए सहरी में झुका दिल-ए शायर
अब एक वज्द की मंज़िल है मंज़िल-ए शायर
ख़याल ले के उड़ता बाचर्ख़-ए नीली फ़ाम
सहर की पहली किरण ने दिया उसे पैग़ाम —
“कि तुझ में मुझ में कोई फ़र्क-ओ इम्तियाज़ नहीं
“हमारा नगमा-ए नौ है सहर का साज़ नहीं
“तेरे कलाम में मेरा ही तो गुदाज़ है ये
“नुमूद-ए सुबह नहीं ज़िन्दगी का राज़ है ये”
उनकी एक और नज़्म देखिए कि….
जब तख़य्युल में सुकूँ का शायबा पाता हूँ मैं
आतिश ए नगमात की तख़लीक़ फ़रमाता हूँ मैं
क़ल्ब ए गीती में जला कर शमा ए सोज़ ए आरज़ू
ज़ीस्त की रग़ रग़ में खून ए गरम दौड़ाता हूँ मैं
बेख़ुदी में जब ख़ुदी का राज़ हो जाता है फ़ाश
कुल फ़िज़ा ए आलम ए इम्काँ पे छा जाता हूँ मैं
ख़ुद पे कर लेता हूँ तारी आलम ए दीवानगी
इस तरह खोकर ही अपने आप को पाता हूँ मैं
दिल की धड़कन इन्तेहा ए ग़म से हो जाती है तेज़
डूब कर अहसास में ताज़ा ग़ज़ल गाता हूँ मैं
मैं ही मैं हूँ इस जहाँ में, कुछ नहीं मेरे सिवा
ढूँढ़ती है और किस को अब ज़मीं मेरे सिवा
इसी प्रकार उनकी ये सुन्दर नज़्म भी देखिए कि……
गुदगुदी दिल में हुई,
वलवले जाग उठे,
आरजूओं के शगूफे फूटे,
उफक ए यास से पैदा हुई उम्मीद की बेताब किरण,
शब्नामिस्तान ए तमन्ना में हर एक सिमत उजाला फैला,
खोल दी देर से सोए हुए जज़्बात ने आँख
खिरमन ए दिल में फिर इक आग सी भड़की चमकी,
इक तड़प एक शरार –
इस पे है अंजुमन ए दहर की गरमी का मदार,
खून रग रग में रवां,
इस से है हरकत में आलम का निज़ाम !
इसी प्रकार उनकी एक नज़म नए साल के मौके के लिए कही गई….
ख़त्म होता है साल आ जाओ दूर कर दो मलाल आ जाओ भूल जाओ मेरे गुनाहों को शब के नालों को दिन की आहों को जो हुआ इस का ग़म फ़िज़ूल है अब दास्तान ए अलम फ़िज़ूल है अब नामुरादी का ज़िक्र जाने दो कामरानी का दौर आने दो आओ फिर बैठ जाओ पास मेरे वलवले क्यूँ रहें उदास मेरे आओ हम फिर पीएं पिलाएं कहीं मौसम ए नौ का लुत्फ़ उठाएं कहीं आओ फिर छेड़ दें शबाब का साज़ होनेवाला है साल ए नौ आग़ाज़ सर्द ओ तारीक और तवील है रात अशरत ए सुबह की दलील है रात आज की रात ग़म किसी को नहीं रक्स करते है आस्मान ओ ज़मीं ये सितारे जो झिलमिलाते हैं प्रेम की रागनी सुनाते हैं….
ज़िया साहब की नज़मो का एक और नमूना इरशाद फ़रमाये की…
बहुत जा चुकी है शब ए तीरह सामां
उजालों के साए उफ़क पर हैं रक्सां
वो तारा, यही तो है तारा सहर का
यक़ीनन नहीं इस में धोका नज़र का
बहुत सो चूका मैं, बहुत हो चूका गुम
मुझे लोरियां अब हवाओ न दो तुम
मुझे नींद कुछ रास आई नहीं है
कि राहत मेरे पास आई नहीं है
बड़े ज़ब्त से ग़म उठाया है मैंने
अंधेरों में सब कुछ लुटाया है मैंने
उम्मीद ए तुल्लू ए सहर के सहारे
हवादिस के तूफाँ है सर से गुज़ारे
मगर सब्र का जाम अब भर चूका है
उम्मीदों का जादू असर कर चूका है
मैं तख़रीब की कुव्वतों से लडूंगा
ज़माने को तामीर का दर्स दूँगा
उठाऊँगा सर पर फ़लक को फुगाँ से
ज़मीं पर गिरेंगे ये महल आसमाँ के
पुराने बुतान ए हरम तोड़ दूँगा
मैं तहज़ीब ए इन्सां का रुख़ मोड़ दूँगा
ख़ुदा का भरम खोल दूँगा जहां पर
यक़ीं काँप जाएगा मेरे गुमां पर
ये ज़ररे जो सदियों से रौंदे गए हैं
हिक़ायत की नज़रों से देखे गए हैं
नए आफ़ताबों को फिर जन्म देंगे
लुटरों से फिर अपना हक़ छीन लेंगे
ये ज़ुल्मत की हैबत दिलों से मिटेगी
ज़माने को करवट बदलनी पड़ेगी
नहीं दूर अब तो नज़र आ रही है
उठो, दोस्तों वो सहर आरही है
ज़िया साहब के काव्य संग्रह में बेहतरीन ग़ज़लें भी शामिल है ,जिसके कारण उन्होंने उर्दू शायरी में अपनी अलग पहचान बनाई ….उनकी गज़लों के नमूने देखिये की….
रह ए वफ़ा में ज़रर सूदमन्द है यारो |
है दर्द अपनी दवा ज़हर क़न्द है यारो |
घटा बढ़ा के भी देखा मगर न बात बनी
ग़ज़ल का रूप रिवायत पसन्द है यारो |
खुला जिसे ग़लती से मैं छोड़ आया था
मेरे लिए वही दरवाज़ा बन्द है यारो |
ग़ज़लसराई थी जिसके लिए बगैर उसके
गुलों का ख़न्दा ए लब ज़हर ख़न्द है यारो |
मुझे ख़बर है कि अपनी ख़बर नहीं मुझ को
मेरे सिवा भी कोई होशमन्द है यारो |
मिले जो दस्त ए तमन्ना से क्यूँ न पी जाऊं
वो ज़हर भी तो मेरे हक़ में क़न्द है यारो |
न जाने तोड़ के उड़ जाएगी कहाँ इक दिन
हिसार ए जिस्म में जो रूह बन्द है यारो |
ज़मीं पे रहता है उड़ता है आसमानों पर
” ज़िया ” कि पस्ती भी कितनी बुलन्द है यारो |
इसी प्रकार एक और खूबसूरत ग़ज़ल का नमूना पेश करता हूँ की….
शाख़ अरमानों की हरी ही नहीं ।
आँसुओं की झड़ी लगी ही नहीं ।
साया-ए आफ़्ताब में ऐ रिंद,
तीरगी भी है रोशनी ही नहीं ।
क़ैद-ए हस्ती से किस तरह छूटें,
राह कोई फ़रार की ही नहीं ।
मेरे शे’रों में ज़िंदगी की है,
वो हक़ीक़त जो शायरी ही नहीं ।
वो हुनर आदमी की फ़ितरत है,
जो हुनर ऐब से बरी ही नहीं ।
धरम आदमगरी सिखाता है,
सिर्फ़ तक़सीम-ए आदमी ही नहीं ।
गिनता हूँ दिल की धडकनें कि अब,
तू ने आवाज़ मुझ को दी ही नहीं ।
उसे इरफ़ान-ए ज़ुहद क्या हो ’ज़िया’,
मस्त आँखों से जिस ने पी ही नहीं ।
ज़िया साहब के गज़लों के ख़ज़ाने में एक से बढ़ कर एक ग़ज़लें है ।इस किताब में शामिल उनकी ग़ज़लो के नमूने से ये ग़ज़ल भी देखिये की।।
ग़म-ए उल्फ़त में जान दी होती ।
ख़िज्र की उम्र मिल गई होती ।
ताक़त-ए इन्तिज़ार थी कि न थी.
जुर्रत-ए इन्तिज़ार की होती ।
न हुआ हुस्न मूलतफ़ित वरना,
दिल की दुनिया बदल गई होती ।
ज़ब्त-ए ग़म में लबों का हिलना क्या,
बेज़ुबाँ आँख मुलतजी होती ।
मशवरा तर्क-ए मय का ठीक मगर,
शेख़, तू ने कभी तो पी होती ।
जान देते ख़ुशी से मौत अगर,
काशिफ़-ए राज़-ए ज़िन्दगी होती ।
गुनगुनाता कोई ’ज़िया’ की ग़ज़ल,
और फ़िज़ा साज़ छेड़ती होती ।
*****
ख़ुलूस-ओ वफ़ा का सिला पाइएगा ।
हुजूम-ए तमन्ना में खो जाइएगा ।
दिए जाएगा ग़म कहाँ तक ज़माना,
कहाँ तक ज़माने का ग़म खाइएगा ।
जिसे दीजिएगा सबक़ डूबने का,
उसे क़तरे क़तरे को तरसाइएगा ।
अँधेरों में दामन छुडाया है लेकिन,
उजालों से बच कर कहाँ जाइएगा ।
बढ़ाए चला जा रहा हूँ पतंगें,
न कब तक मेरे हाथ आप आइएगा ।
उधर हूर-ओ कौसर इधर जाम-ओ साक़ी,
किसे खोइएगा किसे पाइएगा ।
सहर ने रबाब र रग-ए गुन्चा छेड़ा,
‘ज़िया’ की ग़ज़ल अब कोई गाइएगा
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तुम चले आए तो सारी बेकली जाती रही ।
ज़िन्दगी में थी जो यकगूना कमी जाती रही ।
दिल की धड़कन तेज़ हो जाती है जिस को देख कर,
सुरमगीं आँखों की वो जादूगरी जाती रही ।
उन से हम और हम से वो कुछ इस तरह घुल-मिल गए,
दो मुलाक़ातों में सब बेगानगी जाती रही ।
दिल लगाते ही हुए रुख़सत क़रार-ओ सब्र-ओ होश,
जो मय्यसर थी कभी आसूदगी जाती रही ।
उन के जलवों में कुछ ऐसे खो गए होश-ओ हवास,
आशिक़ी में फ़िक्र-ए सुबह-ओ शाम भी जाती रही ।
ख़ार-ए इशरत में उलझ कर दामन-ए दिल रह गया,
थी जो लज़्ज़त इज़्तिराब-ए रूह की जाती रही ।
वो तो रुख़सत हो गए छा कर दिमाग़-ओ क़ल्ब पर,
याद उनकी दम-ब-दम आती रही जाती रही ।
रंग ले आई वफ़ाकोशी मेरी अन्जाम-ए कार,
मुझ से उनकी बेनयाज़ी बेरुखी जाती रही ।
दिल में रोशन शमा-ए उल्फ़त जब से की हमने ’ज़िया’,
ख़ुदनुमाई, ख़ुदरवी, ख़ुदपरवरी जाती रही ।
उन्होंने कविताओं के अतिरिक्त कहानियां और एक ड्रामा भी लिखा ,लेकिन इस के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं।अधकितम लोग उनको उनकी कविताओं के कारण जानते है।सालेहा सिद्दीक़ी बधाई की पात्र है कि उन्होंने उनके इस पहलु को भी दुनिया के सामने रखा।
सरकारी नौकरी होने के कारण इन का ट्रांसफर होता रहता इस के अतिरिक्त ये कुछ समय के लिए लंदन चले गए जिस के कारण इन की पुस्तकें जो बालकनी में रखी होने के कारण बारिश से भीग कर नष्ट हो गई।
इन की मृत्यु के पश्चात इन के बड़े पुत्र देवेंद्र कुमार सोनी ने अपने पिता की पुस्तकों को पुनः सुरक्षित करने का निर्णय किया। और उन्होंने उनके काव्य संग्रह को पुनः प्रकाशित किया।
ज़िया फतेहाबादी की ये पुस्तक ” सूरज डूब गया” भी बारिश में नष्ट हो चुकी थी लेकिन सालेहा सिद्दीकी ने उसे सुरक्षित कर उर्दू से हिंदी पाठकों के लिए हिंदी भाषा में अनुवादित कर प्रकाशित किया।
सालेहा सिद्दीकी की ये कोशिश सराहनीय हैं कि उन्होंने ज़िया साहब के नष्ट हो चुके कार्य को पुनः सुरक्षित कर दिया। इसी सिलसिले की कड़ी ये पुस्तक ( ज़िया ए उर्दू) भी हैं।
सालेहा सिद्दीकी के दोनों कार्य चाहे वो सूरज डूब गया का हिंदी अनुवाद हो या फिर उनकी साहित्यिक जीवन पर आधारित ये पुस्तक दोनो ही एक भूल चुके कवि को दोबारा याद करने की सराहनीय कोशिश हैं ।जिस के लिए मैं उनको बधाई देता हूँ। हमें इस तरह के कार्य को बढ़ावा देना चाहिए ताकि गुमनामी या वक़्त के पन्नों में खो चुके बेहतरीन कवियों एवं साहित्यकारों को दोबारा ज़िंदगी मिल सके।दुनिया उन्हें फिर से पढ़ सके समझ सके।
।इन्ही शब्दों के साथ मैं अपनी कलम को विराम देता हूँ।