ख़ुरशीद अहमद
खिलाफत ए अब्बासिया ( 750– 1258 ) लगभग पांच सौ वर्षों तक बगदाद में क़ायम रही इन पांच शताब्दियों में ऐसी कही महिलाऐं थीं जिन्होंने इतिहास में अपनी छाप छोड़ी पर दो महिलाओं को विशेष स्थान प्राप्त हुआ एक हैं खलीफा हारून रशीद की मां खीजुरान और दूसरे उनकी पत्नी जुबैदा यहां जुबैदा पर चर्चा की जा रही है।ज़ुबैदा का असल नाम अमतुल अज़ीज़ था यह अब्बासी खलीफा मंसूर की पोती और जाफर बिन मंसूर की बेटी थीं बहुत छोटी थीं दादा गोद में खिला रहे थे उन्होंने कहा कि यह तो बिल्कुल जुबैदा है ज़ुबैदा अरबी भाषा में मक्खन के छोटे टुकड़े को कहते हैं लोगों को यह इतना पसंद आया है कि मां बाप का दिया असल नाम कहीं पीछे छूट गया और जुबैदा के नाम से मशहूर हो गईं इनकी कुन्नियत उम्मे जाफर थी वह शाही परिवार में जन्मी थीं खलीफा मंसूर की पोती और खलीफा मेहदी की भतीजी थीं जाहिर है कि पालन पोषण शाहाना अंदाज़ में हुआ एक से बढ़कर एक विद्वान इनकी शिक्षा के लिए लगाए गए बड़ी हुई तो शेर व शायरी और अरबी साहित्य से दिलचस्पी हुई.
अपनी सुन्दरता और काबिलियत के कारण पूरे शाही परिवार में मशहूर हो गईं। शादी की उम्र हुई तो युवराज ( वली अहद) हारून रशीद की ओर से रिश्ता आया जुलाई सन् 782 में शादी बड़ी धूमधाम से हुई और हारून रशीद के खलीफा बनते ही ज़ुबैदा मलिका बन गईं ।मलिका बनने के बाद उन्होंने बगदाद जो नया शहर था उसके विकास का काम संभाला खुद शायरा थीं इस लिए कोशिश की कि बग़दाद को ज्ञान व कला का केंद्र बना दें इसके लिए पैसा पानी की तरह बहाया जिसका नतीजा यह हुआ कि कुछ ही वर्षों में पूरी दुनिया से विद्वान और ज्ञानी बग़दाद में इकट्ठा होने लगे उनमें अबुल अताहिया , अबु निवास , जाहिज़ , खलील बिन अहमद , सैबवैह और इमाम अवज़ाई जैसे महान लोग थे मशहूर हकीम जिबरील को सम्मान के साथ बुला कर पचास हजार दिरहम मासिक वेतन पर रखा भारत से भी कुछ ब्रह्मण विद्वानों का जिक्र मिलता है जो जुबैदा के बुलावे पर बहुत ही अच्छी तनख्वाह पर बगदाद गए थे ।
इन सब कार्यों के साथ वह एक अचछी पत्नी और बेहतरीन मां भी थीं इन्होंने अपने पुत्र मोहम्मद अल अमीन और सौतेले बेटे मामून ( जिनकी मां का इंतकाल हो गया था ) दोनों की परवरिश बहुत शानदार तरीके से की दोनों अपनी शिक्षा व संस्कारों को लेकर आज भी मशहूर हैं दोनों के बचपन की कहानियां आज भी बच्चों को पढ़ाई जाती हैं बाद में दोनों खलीफा बनें दोनों में आपस में लड़ाई भी हुई जिसमें सौतेले बेटे मामून को विजय प्राप्त हुई और मोहम्मद अल अमीन की हत्या हो गई पर मामून हमेशा जुबैदा का उसी प्रकार सम्मान करते रहे जैसा बचपन से करते आए थे हुकुमत के बहुत से कामों में इन से सलाह व मशविरा लेते रहे।इस तरह एक भरपूर ज़िन्दगी गुजारने के बाद सन् 831 में 67 वर्ष की उम्र में इनका इंतेकाल हो गया ।जुबैदा के बहुत से काम इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं जिन पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन हज यात्रियों की सुविधा के लिए इनके द्वारा किए गए काम अतुलनीय हैं यह अपने पति के साथ हज यात्रा पर जाती रहती थी रास्ते में और खुद मक्का में हाजियों को किन परेशानियों का सामना करना पड़ता है उस से भलीभांति परिचित थीं इस के लिए इन्होंने दो ठोस कदम उठाए
1-दर्बे जुबैदा इराक से मक्का लगभग 1500 किलोमीटर का रास्ता उबड़-खाबड़ था रास्ते में पानी का कोई इंतजाम नहीं था लोग कई कई दिन का पानी साथ लेकर चलते थे कहीं ठहरने का भी कोई प्रबंध नहीं था इन्होंने इराक के शहर कूफा से मक्का तक रास्ते की पटाई कराकर उसे समतल बनाया रास्ते के किनारे सराय , पानी के हौज , और कुआं खुदाए इस रास्ते को दर्बे जुबैदा कहा जाता था शताब्दियों तक यात्री इस रास्ते का इस्तेमाल करते थे ।नहरे जुबैदा रास्ते के इलावा खुद मक्का , मिना , अराफात और मुज़दलिफा में हाजियों को पानी की कमी का सामना था कभी कभी एक बाल्टी पानी कई दीनार ( सर्वण मुद्रा ) में खरीदना पड़ता था इसके लिए इन्होंने दूर दूर से इंजीनियरों को इकट्ठा किया और उनसे एक नहर खोदने की परियोजना पर बात की .
नहर मक्का — तायफ रास्ते पर स्थित वादी ए नोमान से मक्का के मुहल्ले ” अज़ीज़िया ” आनी थी जो 38 किलोमीटर लंबी थी इंजीनियरों ने इन्कार कर दिया कहा कि पूरा रास्ता पथरीले पहाड़ियों से हो कर गुजरता है पानी के लेवल के लिए काफ़ी खुदाई करनी पड़ेगी जो बहुत मुश्किल काम है काफी खर्च आएगा जुबैदा ने कहा कि खर्चे की परवाह न करो अगर एक कुदाल मारने पर एक दीनार ( सर्वण मुद्रा ) का भी खर्च आया तो मै देने के लिए तैयार हूं इस तरह नहर बननी शुरू हुई जो दस साल में बन कर तैयार हुई इस पर 17 करोड़ सर्वण मुद्राएं खर्च हुई और अभी 1950 तक यानी बनने के 1100 वर्षों बाद भी इस नहर का इस्तेमाल होता था नहर बन कर तैयार हुई यह बग़दाद में दजला नदी के किनारे पर अपने महल में थीं इनके सामने हिसाब पेश किया गया इन्होंने हिसाब के कागज़ को नदी में बहाते हुए दुआ की कि ऐ अल्लाह मैंने इसे हाजियों की सुविधा के लिए बनाया है मैं इसका हिसाब नहीं लेती आप भी हिसाब के दिन मेहशर में मेरा हिसाब न लेना अगर आज यह नहर बाकी होती तो दुनिया का आठवां अजूबा मानी जाती यह नहर कहीं ज़मीन की खुदाई करके और कहीं दीवार बना कर तैयार की गई है।
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Bahot khob