ए पी जे अब्दुल कलाम से कौन परिचित नही होगा।
मिसाइल मैन और पीपुल्स प्रेसिडेंट के नाम से दुनिया भर में प्रसिद्धि रखते हैं।
पिछले दिनों में, मै उन की पुस्तक विंग्स ऑफ फायर का अध्ययन कर रहा था,
इस पुस्तक में उन्हों ने धर्म के आधार पर अपने साथ होने वाली अत्याचार की घटना का वर्णन किया है
वह लिखते हैं:
मैं पाँचवी कक्षा का छात्र था, कक्षा में हमेशा सब से आगे वाली लाइन में बैठा करता था, और मेरे साथ मेरा बहुत पुराना मित्र भी बैठता था, वह मित्र हमारे गाँव के प्रधान पुजारी का पुत्र था और हम दोनो की मित्रता बहुत गहरी थी।एक दिन कक्षा में एक नए शिक्षक आएं, और उन्होंने जब मुझे एक हिंदू लड़के के साथ पहले लाइन में बैठे देखा और जब उन्हें यह मालूम हुआ कि मैं मुसलमान हूं और प्रधान पुजारी के बेटे के साथ बैठा हूं, तो उन्हों ने मुझे सबसे पिछली लाइन में बैठने का आदेश दिया, मैं बुझे मन से पिछली लाइन में चला तो गया परन्तु पीछे भेजे जाने के कारण मैं और मेरा वह मित्र बहुत उदास और दुखी हुए,
छुट्टी के बाद हम दोनों ने यह घटना अपने-अपने माता-पिता को सुनाया। जब उस मित्र के पिता हिंदू पुजारी को इस घटना के बारे में पता चला, तो वह बहुत गुस्सा हुऐ।
चूंकि इलाके में उन का प्रभाव और पहुंच बहुत ज्यादा था इस कारण जल्द ही उस शिक्षक को बुलवा लिया, और खूब डांट फटकार पिलाई, न केवल डांट ही लगाई बल्कि पूरे गांवों के सामने माफी मंगवाई, और साफ शब्दों में यह कह दिया के अगर तुम ने भविष्य में
ऐसी कोई संप्रयदिकता वाली हरकत दुबारा की, तो इस विद्यालय से ही नही
बल्कि पूरे गांवों से तुम्हे निकाल दिया जाएगा । फिर भविष्य में ऐसी कोई घटना वहां नही हुई।
अभी हाल ही में, कर्नाटक में मुस्लिम बालिकाओं के साथ खुले तौर पर भेदभाव किया गया ,और उन्हे हिजाब पहनने के कारण वर्ग- कक्ष में बैठने से मना कर दिया गया ,और एक-दूसरे को सलाम करने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। इस नफरत भरे घटना को पढ़कर मेरे दिमाग़ के कैनवास पर डॉ. कलाम की वह घटना उभर आई जो ऊपर मै ने लिखा है मेरे दिमाग़ में यही ख्याल लगातार कौंधता रहा के अगर उस प्रधान पुजारी ने शिक्षक की संप्रयदिकता वाली हरकत
पर इतनी सख्ती न दिखाई होती तो शायद नफरत के खिलाफ़ इतनी कड़ी कार्रवाई कोई और नहीं कर सकता था और वह घटना भी बार-बार घटित होती रहती, क्योंकि उस की बात ज़्यादा प्रबल होती है जो अधिक प्रभावी होता है। कर्नाटक के विद्यालय के इस घटना के बाद भी बहुसंख्यक वर्ग की प्रतिक्रिया बहुत दुखद रही है,
सिवाय कुछ आवाजों के देश भर में इस भेद भाव और नफरत के खिलाफ़ सन्नाटा है।
कलाम के बचपन के इस प्रधान पुजारी की मानसिकता वाले लोग अब हिंदुओं के बीच कम ही देखने को मिलते हैं।
मुसलमानों पर क्रूरता और नफ़रत
के विरूद्ध इन में उस प्रमुख पुजारी जैसी सख्ती नही है।
डॉ. कलाम के बचपन के समय जो उस
हिंदू पुजारी में जिम्मदारी का अहसास था, वह अब बहुसंख्यक वर्ग में नही है । तभी देश इस तरह के भ्रम और शक का शिकार है,वह खुल कर आतंकवादी को आतंकवादी नहीं कहते, वह खुल कर धार्मिक भेदभाव और हिंदू धर्म के नाम पर होने वाली हत्याओं के खिलाफ समाज में नही बोलते।
वह घटनाओं और हादसों को संतुलित करने का प्रयास करते हैं, लेकिन गिने चुने नाम ही हैं जो ऐसा करते हैं ।
कहते हैं न
शोर शराबे में सही बात कौन सुनता है।
अभी हरिद्वार के एक आतंकवादी को पुलिस ने तो गिरफ्तार किया है, लेकिन आप अखबारों और न्यूज चैनलों की सुर्खियां देखिए, सब ने उसे केवल
एक धार्मिक नेता कहा है? आप सोचिए के नरसंहार का आह्वान करने वाले व्यक्ति को बहुसंख्यक
में केवल धार्मिक नेता कहा जा रहा है।
क्या यह मुस्लिम अल्पसंख्यक के खिलाफ नफरत और नरसंहार को उकसाने वाली मानसिकता नहीं है?
इसी प्रकार हिन्दू धर्म के महान संत स्वयं इस पर मौन हैं, इससे भी यही मालूम होता है की उनके यहां का
धार्मिक वर्ग भी उसी घृणा के प्रभाव में है जो नफरत मुसलमानों को कीड़े-मकोड़े से अधिक कुछ नहीं समझती।
मेरा एहसास है की इस नफरत के खिलाफ आवाज उठाना अब बहुसंख्यक हिंदू समुदाय की जिम्मेदारी है। भाईचारा स्थापित करने की जिम्मेदारी अल्पसंख्यकों की नहीं बहुसंख्यकों की है, क्योंकि बहुमत में भाईचारा स्थापित करने की क्षमता भी होती है।
अल्पसंख्यक तो अत्याचार पर केवल रोने धोने के और क्या कर सकती है,
इसी प्रकार अल्पसंख्यक भाईचारा और शांति की बात करें तो उसे कमजोरी का नाम देकर उस पर कोई ध्यान देने योग्य नहीं मानता। प्रशासन भी बहुसंख्यकों के प्रभाव में होता है। वह भी अल्पसंख्यक के अत्याचार पर बहुसंख्यक वर्ग के दबाव में कान नही धरती। और अगर ऐसे देश में जहां की सबसे बड़ी अल्पसंख्यक का समाज पर कोई प्रभाव न हो, तो बहुसंख्यक वर्ग के जिम्मेदारी और न्यायसंगत समूह की कर्तव्य होता है कि वह देश से नफरत और भेदभाव को मिटाने का प्रयास करे, नहीं तो अपराधी खुद बहुसंख्यक होंगे।
कुछ भाइयों का यह दावा भी होता है कि हिंदू बहुसंख्यकों में आतंकवादी मानसिकता नहीं होती, बल्कि यह कुछ लोगों की मानसिकता है तो फिर सवाल यह उठता है कि शांतिप्रिय मानसिकता वाले बहुसंख्यक नरसंहार के आह्वान पर चुप क्यों हैं? इतना बड़ा बहुमत, जो शांतिवादी होने का दावा करता है, देश भर में ऐसी आतंकवादी गतिविधियों के खिलाफ जागरूकता क्यों नहीं बढ़ाता? वह बहुमत कहाँ है जिसे हमारे कई भाई अभी भी न्याय पसंद मानते हैं? सच्चाई यह है कि बहुसंख्यक अब मुसलमानों को खुलेआम हत्या की धमकी देना, उनकी संपत्ति लूटना और उन्हें खदेड़ना एक आम बात के रूप में देखने लगे हैं।
काश यह समझा जाता कि इस देश में भाईचारा बनाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी बहुसंख्यक वर्ग की ही है। और बहुसंख्यक वर्ग के छोटे न्याय समूह को अपने समुदाय के आतंकवादी गतिविधियों को रोकने के लिए हर संभव प्रयास करने के लिए राजी करने की आवश्यकता है, अन्यथा इतिहास पूरे बहुमत को जालिम मानेगा।