डॉ मोहम्मद शाहिद (लखनऊ)
उर्दू हिंदी भाषाओं में लिखने वाली डॉ सालेहा सिद्दीकी की ये पुस्तक ज़िया फतेहाबादी कि उर्दू कहानियों का हिंदी अनुवाद हैं। इस पुस्तक में कुल 8 कहानियां हैं।जो विभिन्न विषयो पर आधारित हैं।
इन कहानियों में सम्मिलित हैं आलम ए बाला में, अंधेरे, नए साल का तोहफा, शरनार्थी, पड़ोसी,सूरज डूब गया,करवट, पर्दा दर पर्दा और खुदकुशी।
डॉ सालेहा सिद्दीकी की अनुवादित ये पुस्तक दारुल इशाअत ए मुस्तफ़ाई नई दिल्ली से प्रकाशित हुई हैं।144 पेज आधारित इस पुस्तक की सुंदरता और इस में सम्मिलित कहानियां पढ़ने और देखने योग्य हैं।
इस पुस्तक में सम्मिलित प्रस्तावना मे सालेहा सिद्दीकी नेकहानी के लेखक मेहर लाल सोनी के बारे में विस्तारपूर्वक वर्णन किया है जिस से ज़िया फतेहाबादी उर्फ मेहर लाल सोनी के जीवन उनके साहित्य एवं कला पर भरपूर प्रकाश पड़ता हैं।इस पुस्तक के अध्ययन के बाद मालूम पड़ता हैं कि ज़िया फतेहाबादी मुख्य रूप से कवि थे लेकिन उनकी रुचि कहानियों में भी थी। पेशे से ये बैंक में नॉकरी करते थे लेकिन जब भी वक़्त मिलता उर्दू भाषा मे शायरी करते । इन के कुल 9 काव्य संग्रह भी प्रकाशित हो चुके है। तुल्लू (1933), नूर-ए-मशरिक (1937), ज़िया के सौ शेर (1938), नई सुबह (1952), गर्द-ए राह (1963), हुस्न-ए ग़ज़ल (1964), धूप और चाँदनी (1977), रंग-ओ नूर (1981), सोच का सफ़र (1982), नरम गरम हवाएँ (1987), मेरी तस्वीर (2011)।ज़िया साहब ने बेहतरीन नज़में और ग़ज़लें कही है जिसे पढ़ कर दिल झूम झूम उठता है। उनके कलाम का कुछ नमूना देखिए ….
गुदगुदी दिल में हुई,
वलवले जाग उठे,
आरजूओं के शगूफे फूटे,
उफक ए यास से पैदा हुई उम्मीद की बेताब किरण,
शब्नामिस्तान ए तमन्ना में हर एक सिमत उजाला फैला,
खोल दी देर से सोए हुए जज़्बात ने आँख
खिरमन ए दिल में फिर इक आग सी भड़की चमकी,
इक तड़प एक शरार –
इस पे है अंजुमन ए दहर की गरमी का मदार,
खून रग रग में रवां,
इस से है हरकत में आलम का निज़ाम !
इसी प्रकार उनकी एक नज़म नए साल के मौके के लिए कही गई….
ख़त्म होता है साल आ जाओ दूर कर दो मलाल आ जाओ भूल जाओ मेरे गुनाहों को शब के नालों को दिन की आहों को जो हुआ इस का ग़म फ़िज़ूल है अब दास्तान ए अलम फ़िज़ूल है अब नामुरादी का ज़िक्र जाने दो कामरानी का दौर आने दो आओ फिर बैठ जाओ पास मेरे वलवले क्यूँ रहें उदास मेरे आओ हम फिर पीएं पिलाएं कहीं मौसम ए नौ का लुत्फ़ उठाएं कहीं आओ फिर छेड़ दें शबाब का साज़ होनेवाला है साल ए नौ आग़ाज़ सर्द ओ तारीक और तवील है रात अशरत ए सुबह की दलील है रात आज की रात ग़म किसी को नहीं रक्स करते है आस्मान ओ ज़मीं ये सितारे जो झिलमिलाते हैं प्रेम की रागनी सुनाते हैं….
ज़िया साहब की नज़मो का एक और नमूना इरशाद फ़रमाये की…
बहुत जा चुकी है शब ए तीरह सामां
उजालों के साए उफ़क पर हैं रक्सां
वो तारा, यही तो है तारा सहर का
यक़ीनन नहीं इस में धोका नज़र का
बहुत सो चूका मैं, बहुत हो चूका गुम
मुझे लोरियां अब हवाओ न दो तुम
मुझे नींद कुछ रास आई नहीं है
कि राहत मेरे पास आई नहीं है
बड़े ज़ब्त से ग़म उठाया है मैंने
अंधेरों में सब कुछ लुटाया है मैंने
उम्मीद ए तुल्लू ए सहर के सहारे
हवादिस के तूफाँ है सर से गुज़ारे
मगर सब्र का जाम अब भर चूका है
उम्मीदों का जादू असर कर चूका है
मैं तख़रीब की कुव्वतों से लडूंगा
ज़माने को तामीर का दर्स दूँगा
उठाऊँगा सर पर फ़लक को फुगाँ से
ज़मीं पर गिरेंगे ये महल आसमाँ के
पुराने बुतान ए हरम तोड़ दूँगा
मैं तहज़ीब ए इन्सां का रुख़ मोड़ दूँगा
ख़ुदा का भरम खोल दूँगा जहां पर
यक़ीं काँप जाएगा मेरे गुमां पर
ये ज़ररे जो सदियों से रौंदे गए हैं
हिक़ायत की नज़रों से देखे गए हैं
नए आफ़ताबों को फिर जन्म देंगे
लुटरों से फिर अपना हक़ छीन लेंगे
ये ज़ुल्मत की हैबत दिलों से मिटेगी
ज़माने को करवट बदलनी पड़ेगी
नहीं दूर अब तो नज़र आ रही है
उठो, दोस्तों वो सहर आरही है
ज़िया साहब के काव्य संग्रह में बेहतरीन ग़ज़लें भी शामिल है ,जिसके कारण उन्होंने उर्दू शायरी में अपनी अलग पहचान बनाई ….उन्होंने कविताओं के अतिरिक्त कहानियां और एक ड्रामा भी लिखा ,लेकिन इस के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं।अधकितम लोग उनको उनकी कविताओं के कारण जानते है।सालेहा सिद्दीक़ी बधाई की पात्र है कि उन्होंने उनके इस पहलु को भी दुनिया के सामने रखा।
सरकारी नौकरी होने के कारण इन का ट्रांसफर होता रहता इस के अतिरिक्त ये कुछ समय के लिए लंदन चले गए जिस के कारण इन की पुस्तकें जो बालकनी में रखी होने के कारण बारिश से भीग कर नष्ट हो गई।
इन की मृत्यु के पश्चात इन के बड़े पुत्र देवेंद्र कुमार सोनी ने अपने पिता की पुस्तकों को पुनः सुरक्षित करने का निर्णय किया। और उन्होंने उनके काव्य संग्रह को पुनः प्रकाशित किया।
ज़िया फतेहाबादी की ये पुस्तक ” सूरज डूब गया” भी बारिश में नष्ट हो चुकी थी लेकिन सालेहा सिद्दीकी ने उसे सुरक्षित कर उर्दू से हिंदी पाठकों के लिए हिंदी भाषा में अनुवादित कर प्रकाशित किया। सालेहा सिद्दीकी की ये कोशिश सराहनीय हैं कि उन्होंने ज़िया साहब के नष्ट हो चुके कार्य को पुनः सुरक्षित कर दिया।
ज़िया साहब ने अपनी कहानियों में अपने जीवन संघर्ष को बहुत सुंदरता से पेश किया,उन्होंने ने आम भाषा का प्रयोग कर गहरी से गहरी बातें कही…
ज़िय साहब की कहानियों का अनुवाद एक महत्वपूर्ण कार्य है। जिसे सालेहा सिद्दीकी ने अंजाम दिया है। ये एक महत्वपूर्ण किताब है जिसे हर सहित्य प्रेमी को पढ़ना चाहिए। मैं प्राथना करता हूँ कि सालेहा सिद्दीकी का ये कार्य सफल हो और उसे वही सराहना मीले जो इनकी दूसफी पुस्तकों को प्राप्त हुआ।इन्ही शब्दों के साथ मैं अपनी कलम को विराम देता हूँ।